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आलिम सर की हिंदी क्लास शुद्ध-अशुद्ध

13. सही क्या – अतिश्योक्ति या अतिशयोक्ति?

किसी बात को बहुत ज़्यादा बढ़ा-चढ़ाकर कहने के लिए हिंदी में जो शब्द है, वह अतिशयोक्ति है या अतिश्योक्ति? जब मैंने यही सवाल फ़ेसबुक पर पूछा था तो 53% ने ग़लत विकल्प चुना। आख़िर क्यों ज़्यादातर लोगों को हिंदी शब्दों की स्पेलिंग और उच्चारण की ग़लत जानकारी है और कैसे वे इसमें सुधार कर सकते हैं, यह जानना हो तो आगे पढ़ें।

सही है अतिशयोक्ति परंतु जो अतिश्योक्ति को सही समझते हैं या आज तक समझते रहे थे, उनको मैं उनकी चॉइस के लिए पूरा दोष नहीं दूँगा क्योंकि थोड़ा दोष हिंदी भाषा का भी है। भाषा का भी नहीं, दोष उस तरीक़े में है जो हिंदीभाषियों ने कुछ शब्दों को बोलने के लिए अपनाया हुआ है। यह दोष संस्कृत में नहीं था, जिससे हिंदी निकली है, लेकिन हिंदी में है।

दोष यह है कि हिंदी में अकार या ‘अ’ स्वरयुक्त जितने शब्द हैं, वे जब शब्द के अंत में या बीच में आते हैं तो अधिकांश मामलों में वे स्वर के साथ नहीं बोले जाते, आधे यानी व्यंजन की तरह बोले जाते हैं। इसे अलोप का सिद्धांत कहते हैं।

नहीं समझे? चलिए, हिंदी में समझाता हूँ। जैसे एक शब्द लें – कमल। इसमें व्याकरण के अनुसार तीन वर्ण हैं और तीनों में अ स्वर लगा हुआ है – क (क्+अ), म(म्+अ) और ल(ल्+अ)। यदि इस शब्द में इन तीनों के साथ ‘अ’ स्वर नहीं लगा होता तो इनको हम ऐसे लिखते – क्म्ल् और वह ठीक से बोला भी नहीं जाता। शब्दों को ठीक से बोला जाए, इसके लिए ध्वनियों में स्वर लगना ज़रूरी है। ‘अ’ ऐसा ही स्वर है।

अब कमल बोलकर देखें। क्या आप कमल बोलते समय तीनों ध्वनियों में अलग-अलग ‘अ’ स्वर लगा रहे हैं? सोचकर बोलिए। फिर से बोलकर देखिए। कुछ ध्यान दिया? चलिए, मैं ही बताता हूँ। इस शब्द में जहाँ ‘क’ और ‘म’ में हम ‘अ’ स्वर लगाते हैं, वहीं ‘ल’ में ‘अ’ स्वर नहीं लगाते। हम जो बोलते हैं, उसको ऐसे भी लिखा जा सकता है कमल् और उसका वही उच्चारण होगा जो कमल का होता है।

यह हिंदी का बेसिक नियम है कि अकारांत शब्दों में आख़िरी ‘अ’ का उच्चारण व्यंजन की तरह होता है, स्वर की तरह नहीं। कुछ अपवाद हैं जैसे सत्य, युक्त, धर्म आदि। ये वे शब्द हैं जिनमें अंतिम अ-वाली ध्वनि से पहले कोई आधा अक्षर होता है। इन मामलों में अंतिम अक्षर पूरा बोला जाएगा। इसके अलावा यदि ‘य’ से अंत होनेवाले शब्दों से पहले इ-ई-उ-ऊ हो तो भी अंतिम अक्षर यानी य पूरा बोला जाएगा। जैसे राजसूय, प्रिय आदि।

यहाँ तक तो ठीक है। इससे किसी को अंतर भी नहीं पड़ता क्योंकि आप भले कमल को कमल् की तरह बोलें, लिखेंगे कमल ही। पूरब को पूरब् की तरह बोलें, लिखेंगे पूरब ही।

परेशानी तब आती है जब व्यंजन की तरह बोला जानेवाला अ-वाला वर्ण शब्द के बीच में होता है। जैसे कमला। इसे कमला लिखें या कम्ला, उच्चारण एक जैसा होगा। ऐसे ही कुछ और शब्द देखें जिनमें ‘अ’ बीच में है।

  • मनचला या मंचला – उच्चारण एक जैसा है।
  • उबटन या उब्टन – उच्चारण एक जैसा है।
  • शेरनी या शेर्नी – उच्चारण एक जैसा है।

ऐसे हज़ारों शब्द हैं जिनमें बीच में आनेवाली अकार ध्वनि (वर्ण या अक्षर) को पूरा लिखें या आधा, उच्चारण एक जैसा होता है। इसलिए वे लोग जिनकी पढ़ने की आदत कम है या नहीं के बराबर है और जो सुने हुए शब्दों के आधार पर ही लिखते हैं, वे अतिश्योक्ति जैसी ग़लती करते हैं। ऐसी ग़लती कमला और शेरनी के मामले में नहीं होती। क्यों नहीं होती, यह हम नीचे समझते हैं।

  • यदि किसी ने कमल शब्द पढ़ा है, वह जब कमला लिख रहा होगा तो उसे कमल का ध्यान होगा और वह उसे कमला ही लिखेगा, कम्ला नहीं क्योंकि वह जानता है कि कमल से ही कमला बना है।
  • इसी तरह यदि कोई शेर शब्द जानता है, वह जब शेरनी लिख रहा होगा तो उसे शेर का ध्यान होगा और वह उसे शेरनी ही लिखेगा, शेर्नी नहीं क्योंकि वह जानता है कि शेर से ही शेरनी बना है।
  • इसी तरह कोई अतिशय शब्द और उसका अर्थ जानता है, वह जब अतिशयोक्ति लिख रहा होगा तो उसे अतिशय का ध्यान होगा और वह उसे अतिशयोक्ति ही लिखगा, अतिश्योक्ति नहीं क्योंकि वह जानता है कि अतिशय से ही अतिशयोक्ति बना है।

लेकिन अधिकतर लोग अतिशय का अर्थ नहीं जानते इसीलिए वे अतिशयोक्ति को अतिश्योक्ति समझ लेते हैं और वैसे ही लिखते हैं। अतिशय का अर्थ है बहुत ज़्यादा। उक्ति का अर्थ है बयान या कथन। अतिशय+उक्ति का अर्थ है (किसी के बारे में) बहुत ज़्यादा बोलना यानी बढ़ा-चढ़ाकर बोलना या तारीफ़ करना।

निष्कर्ष क्या निकला? यही कि शब्दों के बीच जो अ-वाली ध्वनियाँ आती हैं, उनको आप ठीक से तभी लिख पाएँगे जब आप वे ख़ास शब्द या उनसे मिलते-जुलते शब्द पहले से पढ़े रहे होंगे। यदि केवल सुनने के आधार पर ये शब्द लिखेंगे तो ग़लतियों की आशंका बहुत ज़्यादा है।

जब आप पढ़ते हैं तो वे सारे शब्द जो आपकी नज़रों के सामने से गुज़रते हैं, वे आपके दिमाग़ में एक चित्र की तरह बैठ जाते हैं। इसी वजह से आप परिचित शब्दों को जल्दी से पढ़ पाते हैं जबकि अपरिचित शब्दों को पढ़ने में देर होती है।

मुझे यह जानकर हैरत होती है कि हिंदी के अधिकतर युवा पत्रकारों ने हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार प्रेमचंद को पूरा नहीं पढ़ा, प्रसाद, जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव या आज के नए लेखकों को तो भूल ही जाइए। हमारे समय में ऐसा नहीं था।

भाषा सुधारनी है तो पढ़िए

अब भी बहुत देर नहीं हुई है। मेरी सलाह है उन सबसे जो अपनी भाषा सुधारना चाहते हैं, सीरियसली चाहते हैं, पढ़िए। अच्छी साहित्यिक किताबें पढ़िए। अब तो वे मुफ़्त में उपलब्ध हैं। प्रेमचंद के कहानी संग्रह मानसरोवर के आठों भाग किंडल ऐप पर बिना पैसे दिए पढ़ सकते हैं। रोज़ एक कहानी पढ़िए। ध्यान देकर पढ़िए। और आप देखेंगे कि कुछ ही दिनों में आपकी भाषा में (तथा धर्म, जाति, वर्ग और समाज को लेकर आपकी दृष्टि में भी) कितना सुधार आया है।

अगर नहीं पढ़ेंगे तो वही होगा जो हिंदी की प्रमुख वेबसाइटों पर देखने को मिल रहा है, जहाँ मानसिक को मांसिक लिखा जाता है क्योंकि लिखनेवालों को पता ही नहीं कि यह शब्द मानस से बना है। जानते होते, किताबें पढ़ी होतीं तो मानसिक को मांसिक नहीं लिखते। ऐसा लिखनेवालों में सबसे तेज़ ‘आजतक’ से लेकर हिंदी में सबसे ज़्यादा पढ़ा जानेवाला दैनिक जागरण भी शामिल हैं (देखें चित्र)।

सोचकर देखिए। क्या ब्रिटेन या अमेरिका के सबसे ज़्यादा पढ़े जानेवाले अंग्रेज़ी अख़बार या वेबसाइट पर आप किसी हेडलाइन में Mental को Mintal लिखा देख सकते हैं? सवाल ही नहीं उठता।

लेकिन हम हैं कि हिंदी की जयजयकार करते हैं, उसी की रोटियाँ खाते हैं और उसका क्या हाल बनाकर रखते हैं।

जिस अलोप के सिद्धांत के चलते कई लोग अतिशयोक्ति को अतिश्योक्ति बोलते और लिखते हैं, उसी के कारण वे बदरी को भी बद्री कर देते हैं। बदरी और बद्री में क्या सही है, यह जानना हो तो यह क्लास पढ़ें।

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