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92. लैला के आशिक़ का नाम मजनू था या मजनूँ?

लैला के आशिक़ को कौन नहीं जानता? हाँ, उसका असली नाम बहुत से लोग नहीं जानते होंगे। मगर जिस नाम से वह मशहूर है, उसके बारे में भी भ्रम है कि वह कैसे लिखा जाए – मजनू या मजनूँ। इस विषय में फ़ेसबुक पर हुए एक पोल में 62% ने कहा, मजनूँ, 38% ने कहा – मजनू। सही क्या है, जानने के लिए आगे पढ़ें।

सही है मजनूँ और वह इसलिए हैं कि मजनूँ शब्द का मूल रूप मजनून (अरबी में मज्नून) है। जैसे आसमान का ‘न’ हटने से उसके पहले वाले ‘मा’ पर चंद्रबिंदु लग जाता है और हो जाता है आसमाँ, जहान का ‘न’ हट जाने पर हो जाता है जहाँ, वैसे ही मजनून का ‘न’ हटने से उसके पहले वाले वर्ण नू पर लग जाता है चंद्रबिंदु और शब्द बन जाता है मजनूँ (देखें चित्र)।

हिंदी शब्दसागर में मजनूँ।

मजनून सुनकर अजीब लग रहा होगा आपको लेकिन इसमें अजीब लगने वाली कोई बात नहीं है क्योंकि जुनून शब्द तो सुना होगा आपने। उसी जुनून से मजनून बना है। जुनून (संक्षिप्त रूप जुनूँ) का मतलब होता है दीवानगी या पागलपन और जिसपर दीवानगी या पागलपन सवार हो, वह हुआ मजनून (संक्षिप्त रूप मजनूँ)।

मजनून जिस जुनून से बना है, उसकी कहानी भी बहुत दिलचस्प है। जुनून बना है जिन्न से। संभवतः जब ये शब्द बने, तब यह माना जाता रहा होगा कि किसी पर जिन्न सवार हो गया है, इसीलिए वह ऐसी ऊलजलूल (पागलपन की) हरकतें कर रहा है। इस तरह जुनून का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ हुआ – जिन्न से प्रभावित होने की अवस्था और मजनून (मजनूँ) का अर्थ हुआ – जिसपर जिन्न सवार हो। बाद में पागलपन और पागल के लिए जुनून और मजनून का इस्तेमाल होने लगा। वैसे हिंदी में मजनूँ ही चलता है, मजनून नहीं।

प्लैट्स के शब्दकोश में मजनून का अर्थ।

हममें से अधिकतर समझते हैं कि मजनूँ लैला के आशिक़ का नाम है। लेकिन क्या किसी का नाम पागल या दीवाना हो सकता है? लैला के आशिक़ का पूरा नाम था क़ैस इब्न अल-मुलव्वह। इसी तरह लैला का पूरा नाम था लैला बिंत महदी इब्न साद। इब्न और बिंत का अर्थ है बेटा और बेटी।

लैला-मजनूँ की कहानी का नायक यानी क़ैस सातवीं सदी का एक अरबी शायर बताया जाता है जिसे लैला से प्यार हो गया। बाद के सालों में इस प्लॉट पर अलग-अलग भाषाओं में कई कथाएँ बनीं जिनका मैं यहाँ ज़िक्र नहीं करूँगा। आप विकिपीडिया पर मौजूद इस पन्ने पर जा सकते हैं जहाँ से मैंने भी ये जानकारियाँ जुगाड़ी हैं।

लेकिन एक कहानी जो मैंने कुछ साल पहले एक साथी से सुनी थी, वह अवश्य बताऊँगा। हो सकता है, आपमें से कुछेक ने यह सुनी हो लेकिन अधिकतर साथियों के लिए नई होगी।

कहानी यूँ है कि लैला के विरह में क़ैस अपने होश-ओ-हवास खो चुका था और उसे न खाने-पीने की सुध थी, न पहनने-ओढ़ने की। लैला के घर से कुछ ही दूरी पर वह सड़क किनारे कहीं पड़ा रहता और लैला-लैला करता रहता। उधर लैला उसकी चिंता में परेशान रहती और वह चुपके से अपनी सेविका के ज़रिए रोज़ उसके लिए दूध भिजवाया करती हालाँकि वह उसे पीता नहीं था। लेकिन लैला रोज़ नियम से अपना फ़र्ज़ अदा करती थी।

मुहल्ले का एक युवक बहुत दिनों से यह सब देख रहा था कि कैसे लैला मजनूँ के लिए दूध भिजवाती है और वह रोज़ बर्बाद हो जाता है। उसने एक दिन बिल्कुल मजनूँ का भेस बना लिया और लैला के घर के पास एक कोने में बैठकर लैला-लैला चिल्लाने लगा। लैला की सेविका आई तो उसने उसी को मजनूँ समझा और उसके सामने दूध रख दिया। नक़ली मजनूँ ने गटागट दूध पी लिया। अगले दिन फिर वह दूध रख गई। अगले दिन फिर उसने दूध पी लिया।

इसी तरह कुछ दिन बीत गए। सेविका ने जब यह ख़ुशख़बरी लैला को बताई कि मजनूँ तो अब दूध पी रहा है और पहले से सेहतमंद भी हो रहा है तो उसे थोड़ा शक हुआ। उसने अगले दिन अपनी सेविका से कहा कि आज तुम मजनूँ को दूध देने से बाद एक प्याला ख़ून देने को कहना कि लैला ने मँगाया है। वह दरअसल उसकी परीक्षा लेना चाहती थी।

अगले दिन ऐसा ही हुआ। सेविका ने नक़ली मजनूँ के सामने दूध रखकर कहा कि लैला ने तुमसे एक प्याला ख़ून माँगा है।

इसपर वह नक़ली मजनूँ चौंका। लेकिन तुरंत ही सँभलते हुए कहा, ‘ख़ून देने वाला मजनूँ उधर है। मैं तो दूध पीने वाला मजनूँ हूँ।‘

कहानी का मर्म समझ में आया? नहीं आया? लैला को जनता समझ लीजिए, दूध को वोट में बदल लीजिए और ख़ून को जनसेवा में – सब समझ में आ जाएगा।

अब भी नहीं समझ में आया हो तो दीपक जैन की यह कविता पढ़ लीजिए जो उन्होंने फ़ेसबुक पर प्रकाशित इस पोस्ट को पढ़कर लिखी थी।

 

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