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191. ‘नरो वा कुंजरो’ का ज़िक्र महाभारत में नहीं तो कहाँ है?

‘नरो वा कुंजरो’ – यह वाक्य कभी सुना है? याद कीजिए। चलिए, कुछ क्लू दे देता हूँ। युधिष्ठिर, अश्वत्थामा, हाथी, द्रोणाचार्य? कुछ याद आया? चलिए, बता देता हूँ – महाभारत में जब युधिष्ठिर द्रोणाचार्य को उनके बेटे अश्वत्थामा के मारे जाने की झूठी सूचना देते हैं और कहते हैं – अश्वत्थामा हत इति (अश्वत्थामा मारा गया) तो उसके ठीक बाद कहते हैं – नरो वा कुंजरो। सही? या ग़लत? इस विषय में एक चौंकाने वाली जानकारी के लिए आगे पढ़ें।

आजकल राजनीति में फ़ेक न्यूज़ (अधूरा सच या पूरा झूठ) की बड़ी चर्चा है और एक यूट्यूब डिबेट में बोलते हुए मैंने कहा कि अश्वत्थामा के बारे में कहा गया युधिष्ठिर का अर्धसत्य शायद इतिहास की पहली फ़ेक न्यूज़ थी। डिबेट के बाद भी मैं इस मुद्दे पर मनन कर रहा था कि अचानक ख़्याल आया कि आख़िर युधिष्ठिर ने कहा क्या था।

अश्वत्थामा हताहतो? या केवल अश्वत्थामा हतो? कहीं अश्वत्थामा हतः तो नहीं? या फिर अश्वत्थामा हत इति? इसी तरह नरो वा कुंजरो है या नरो वा कुंजरो वा? इंटरनेट पर हमें ये सारे अलग-अलग रूप मिलते हैं। परंतु महाभारत में क्या है?

सबसे पहले मैंने गीता प्रेस का ‘महाभारत’ देखा। द्रोण पर्व के 190वें अध्याय में उस प्रसंग का विवरण इस तरह है :

अर्थ : महाराज! भीम की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण के आदेश से प्रेरित हो भावीवश राजा युधिष्ठिर वह झूठी बात कहने को तैयार हो गए।

अर्थ : एक ओर तो वे असत्य के भय में डूबे हुए थे और दूसरी ओर विजय की प्राप्ति के लिए भी आसक्तिपूर्वक प्रयत्नशील थे; अतः राजन! उन्होंने अश्वत्थामा मारा गया, यह बात तो उच्च स्वर में कही, परंतु हाथी का वध हुआ है,’ यह बात धीरे से कही।

अर्थ : इसके पहले युधिष्ठिर का रथ पृथ्वी से चार अंगुल ऊँचे रहता था किंतु उस दिन उनके इस प्रकार असत्य बोलते ही उनके रथ के घोड़े धरती का स्पर्श करके चलने लगे।

मेरे अनुमान से ऊपर के उद्धरणों में ‘अश्वत्थामा हत इति’ के ठीक बाद ‘नरो वा कुंजरो’ या ‘नरो वा कुंजरो वा’ होना चाहिए था मगर ऐसा था नहीं। यह मेरे लिए चौंकाने वाली बात थी। लेकिन हो सकता है, यह महाभारत में ही कहीं और हो। मगर मेरे लिए संभव नहीं था कि मैं इसके लिए पूरा महाभारत छान मारता। मुझे नेट पर ऐसा कोई ई-संस्करण नहीं मिला जहाँ कीवर्ड सर्च करके मैं यह पता लगा पाता कि ‘नरो वा कुंजरो’ का उल्लेख कहाँ आया है।

इसलिए मैंने संस्कृत-हिंदी के विशेषज्ञों के एक वॉट्सऐप समूह में यह प्रश्न रखा। वहाँ आचार्य डॉ. शक्तिधरनाथ पांडेय ने मेरी मदद करते हुए इस बात की पुष्टि की कि ‘नरो वा कुंजरो’ का ज़िक्र महाभारत में कहीं नहीं है और कहीं होगा भी तो वह प्रक्षिप्त (बाद में जोड़ा गया) ही होगा। उन्होंने माना कि ‘नरो वा कुंजरो’ प्रचलन में है मगर उन्हें भी नहीं मालूम कि यह कहाँ से आया। नीचे ऑडियो लिंक में उनका मत सुनें।

‘नरो वा कुंजरो’ और ‘नरो वा कुंजरो वा’ के बारे में उन्होंने कहा कि स्वतंत्र वाक्य के रूप में ‘नरो वा कुंजरो’ अशुद्ध है। शुद्ध वाक्य होगा – नरो वा कुंजरः। हाँ, यदि अंत में एक और ‘वा’ आता हो तो ‘नरो वा कुंजरो वा’ हो सकता है। परंतु जैसा कि उन्होंने स्पष्ट किया – महाभारत में न कहीं ‘नरो वा कुंजरः’ है, न ही ‘नरो वा कुंजरो वा’।

अपनी स्टडी के दौरान मैंने चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य लिखित ‘महाभारत कथा’ में भी यह प्रसंग खोजा और वहाँ मुझे ‘नरो वा कुंजरो’ से मिलता-जुलता वाक्य ‘मनुष्य नहीं, हाथी’ मिला। पुस्तक में इस प्रसंग का वर्णन यूँ किया गया है –

युधिष्ठिर असत्य बोलते हुए डरे, पर विजय प्राप्त करने की लालसा भी उनको विकल कर रही थी। वह बड़ी दुविधा में पड़ गए। फिर भी किसी तरह जी कड़ा करके ज़ोर से बोले – ‘हाँ, अश्वत्थामा मारा गया।’ परंतु यह कहते-कहते फिर उनको धर्म का भय हो आया। इस कारण अंत में धीमे स्वर में यह भी कह दिया – ‘मनुष्य नहीं, हाथी।’

यह पढ़कर मेरे मस्तिष्क में यह संशय पैदा हुआ कि कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘नरो वा कुंजरो’ महाभारत के किसी और पाठ या रूपांतर में हो। मुझे लगा कि दक्षिण भारत में जो महाभारत प्रचलित है, संभव है, उसमें ऐसा कुछ लिखा हो।

आप जानते होंगे कि महाभारत के मुख्यतः दो पाठ हैं – एक उत्तर भारतीय, दूसरा दक्षिण भारतीय। इन पाठों के भी कई-कई रूपांतर हैं। भंडारकर ऑरिएंटल रिसर्च इंस्टिट्यूट, पुणे (बोरी) ने इन सभी उत्तर और दक्षिण भारत की कई-कई पांडुलिपियों और रूपांतरों के आधार पर एक पाठांतर (Critical) संस्करण तैयार किया है जिसमें अलग-अलग संस्करणों में पाए गए भेदों का भी उल्लेख है। यह पाठांतर संस्करण जिसे पुणे संस्करण भी कहते हैं, नेट पर उपलब्ध है। मुझे वहाँ भी वही लिखा मिला जो गीता प्रेस के संस्करण में है – केवल एक अंतर के साथ।

अंतर यह कि पाठांतर संस्करण में वह लाइन नहीं है जो ऊपर गीता प्रेस के उद्धरण में ब्रैकिट में है। यानी ‘अश्वत्थामा हत इति शब्दमुच्चैश्चचार ह’।(अश्वत्थामा मारा गया, यह बात तो उच्च स्वर में कही) – यह वाक्य वहाँ नहीं है। गीता प्रेस ने भी वह लाइन ब्रैकिट में शायद इसीलिए दी है कि उत्तर भारतीय पाठ में वह लाइन नहीं है। वह केवल दक्षिण भारतीय (कुंभकोणम) पाठ में है।

बोरी के पाठांतर संस्करण में युधिष्ठिर के वक्तव्य से जुड़ी केवल ये दो पंक्तियाँ हैं – 

अर्थ : असत्य के भय में डूबे मगर विजय के प्रति आसक्त युधिष्ठिर ने स्पष्ट रूप से कहा कि अश्वत्थामा मारा गया लेकिन (अश्वत्थामा के) नाम के बाद हाथी शब्द धीरे से कहा।

इससे क्या अर्थ निकलता है? यही कि जब द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर ने पूछा कि मेरा पुत्र जीवित है या मृत, तो युधिष्ठिर ने कृष्ण के प्रोत्साहन पर केवल इतना कहा – अश्वत्थामा हाथी मारा गया लेकिन हाथी शब्द को मन-ही-मन या शेष वाक्य के मुक़ाबले बहुत धीरे से कहा।

नरो वा कुंजरो (नर या हाथी) या मनुष्य नहीं, हाथी – यह तो कहीं भी नहीं मिला।

महाभारत में ही एक और जगह (द्रोण पर्व के अंतर्गत नारायणास्त्रमोक्ष पर्व के 193वें अध्याय में) युधिष्ठिर के इस अर्धसत्य का फिर से उल्लेख आता है जब कृपाचार्य अश्वत्थामा को द्रोणवध से जुड़ी घटना का विवरण देते हैं। यह विवरण पूर्व के संजय द्वारा दिए गए विवरण से बेमेल है क्योंकि यहाँ युधिष्ठिर द्रोणाचार्य से और भी बहुत-कुछ कहते दिखाई देते हैं।

अर्थ : युधिष्ठिर असत्य के भय में डूबे होनेपर भी विजय में आसक्त थे, अतः मालवनरेश इंद्रवर्मा के पर्वताकार महान गजराज अश्वत्थामा को भीमसेन के द्वारा युद्धस्थल में मारा गया देख द्रोणाचार्य के पास जाकर वे उच्च स्वर से इस प्रकार बोले –

अर्थ : ‘आचार्य! तुम जिसके लिए हथियार उठाते हो और जिसका मुँह देखकर जीते हो, वह तुम्हारा सदा का प्यारा पुत्र अश्वत्थामा पृथ्वी पर मार गिराया गया है। जैसे वन में सिंह का बच्चा सोता है, उसी प्रकार वह रणभूमि में मरा पड़ा है।’ 

अर्थ :असत्य बोलने के दोष को जानते हुए भी राजा युधिष्ठिर ने द्विजश्रेष्ठ द्रोण से वैसी बात कह दी। फिर वे अस्फुट स्वर में बोले —’वास्तव में इस नाम का हाथी मारा गया।’ 

पिछले प्रसंग में युधिष्ठिर को केवल एक वाक्य बोलते हुए दिखाया गया है – ‘अश्वत्थामा (हाथी) मारा गया’ लेकिन यहाँ उनको द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के मारे जाने की साफ़-साफ़ और विस्तार से घोषणा करते हुए दिखाया गया है। हम इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि कृपाचार्य अश्वत्थामा को भड़काने के प्रयास में अपनी तरफ़ से कुछ जोड़ रहे थे।

चाहे जो हो, तथ्य यह है कि यहाँ भी ‘नरो वा कुंजरो’ का कहीं अता-पता नहीं है।

‘नरो वा कुंजरो’ की ही तरह शबरी के ‘जूठे’ बेरों की कथा भी लोक में प्रचलित है। लेकिन क्या आपको पता है कि शबरी ने राम को ‘जूठे’ बेर खिलाए थे, यह न तो वाल्मीकि रामायण में है, न तुलसीकृत रामचरित मानस में। यह बात फिर कहाँ से निकली, इसपर हम पहले चर्चा कर चुके हैं। यदि रुचि हो तो पढ़ें। लिंक आगे दिया हुआ है।

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