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एकला चलो

वर्ल्ड कप फ़ाइनल में भारत की हार से दुखी हैं… मगर क्यों?

वर्ल्ड कप क्रिकेट के फ़ाइनल में भारत की हार पर दुखी हैं? क्यों दुखी हैं? क्या इसलिए कि इस हार के कारण आपने ख़ुद पर गर्व करने का एक सुनहरा मौक़ा खो दिया? ‘ईस्ट ऑर वेस्ट, इंडिया इज़ द बेस्ट’ का नारा लगाने का अवसर गँवा दिया? लेकिन सच बताइए, अगर भारत जीत भी जाता तो क्या आपका कुछ हक़ था उस जीत पर इतराने का? आख़िर टीम के प्रदर्शन में आपका योगदान क्या होता है सिवाय तालियाँ बजाने के?

नहीं, मैं आपको चिढ़ा नहीं रहा हूँ क्योंकि थोड़ा उदास मैं भी हूँ लेकिन अपने लिए नहीं, उन भारतीय खिलाड़ियों के लिए जिन्होंने इससे पहले के सारे मैचों में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया और फ़ाइनल भी जीत जाते तो उन्हें और ख़ुशी मिलती। मगर तब ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी दुखी होते। आख़िर वे भी अच्छा खेलकर ही फ़ाइनल में पहुँचे थे। जब फ़ाइनल मैंच में उन्होंने भारतीय टीम से बेहतर खेला, तो उनका ही जीतना बनता था। नहीं क्या?

आप सोच रहे होंगे कि यह कैसा भारतीय है जो भारत की हार पर दुखी नहीं होता, भारत की जीत पर गर्व नहीं महसूस करता!

लेकिन मुझे ग़लत मत समझिए। मैं तो बस अपनी दुविधा बता रहा हूँ कि आख़िर मैं गर्व करूँ तो किसपर। क्या उन भारतीयों की उपलब्धियों पर जिन्होंने कुछ बड़ा काम किया है हालाँकि मेरा उनकी कामयाबी में कोई योगदान नहीं है? यदि हाँ तो मुझे उन भारतीयों के कुकर्मों पर शर्मिंदा भी होने पड़ेगा जिन्होंने अपनी करतूतों से इंसानियत को शर्मसार किया है।

बाक़ी देशों की ही तरह भारत में भी कई ख़ूबियाँ हैं जिनपर गर्व किया जा सके। हमारी संस्कृति और हमारी धरोहरें (हालाँकि उनमें भी बहुत-कुछ ऐसा है जो गर्व करने लायक़ नहीं है), हमारी भाषाएँ, हमारे ग्रंथ (इनमें भी कई जगहों पर ज़बरदस्त भेदभाव है), हमारी उपजाऊ भूमि, हमारी नदियाँ, हमारे पहाड़, हमारे मेहनती लोग। लेकिन सवाल यह है कि इन सबमें मेरा योगदान क्या है। अगर मैं नहीं होता तब भी ये सारी चीज़ें अपनी जगह होतीं।

भई, गर्व तो उस बात पर किया जाए जिसके होने में मैंने भी अपना कुछ लगाया हो। जैसे मैंने अगर किसी को फ़्री में पढ़ाया हो और वह अच्छे नंबर लेकर पास हो गया हो, मैंने किसी को कोई दवा दी हो और वह ठीक हो गया हो। मैंने किसी की मदद की हो और उसे नौकरी मिल गई हो। अपनी उपलब्धियों पर तो मै गर्व कर सकता हूँ लेकिन किसी और की उपलब्धि पर – ऐसी उपलब्धि पर जिससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है – मैं काहे को छाती फुलाता फिरूँ!

रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर चंद्रशेखर वेंकटरामन तक कई भारतीयों व भारतीय मूल के लोगों को नोबेल प्राइज़ मिले, लेकिन इनमें से बहुतों के नाम मैंने उनके नोबेल प्राइज़ जीतने के बाद ही जाने। फिर मुझे क्यों उनके नोबेल विजेता होने पर गर्व होना चाहिए? सचिन तेंडुलकर के नाम दुनिया में सबसे ज्यादा टेस्ट सेंचुरीज़ बनाने का रेकॉर्ड है। ODI में यह कीर्तिमान विराट कोहली ने हासिल किया है। लेकिन सचिन या विराट को तो मैंने आज तक प्रशंसा का एक मेल तक नहीं भेजा है, न मैदान पर जाकर उनका हौसला बढ़ाया है। फिर सचिन या विराट के रिकॉर्डों पर मैं कैसे इतराऊँ?

मेरा मन कभी नहीं चाहेगा कि मैं दूसरों की उपलब्धियों को अपने मस्तक का टीका बनाऊँ। मुझे यह चोरी जैसा लगेगा अगर दूसरों के अचीवमंट को अपनी छाती पर तमगे की तरह लटकाऊँ। मुझे यह निहायत ही ग़लत और घोर अनैतिक लगता है।

करोड़ों लोग हैं जो ऐसा करते हैं। वे सड़कों पर यातायात के नियमों को तोड़ते हैं; प्रतिबंध के बावजूद रात को शोर मचाकर या पटाखे छोड़कर क़ानून और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियाँ उड़ाते हैं; रिश्वत लेते और देते हैं; जाति, धर्म और पैसों के आधार पर इंसान को छोटा-बड़ा समझते हैं; देश के लिए एक पैसा देने को तैयार नहीं होते बल्कि जहाँ तक संभव हो, टैक्स की चोरी करते हैं; लेकिन यही लोग हैं कि जब कोई  भारतीय अपनी मेहनत के बल पर कुछ हासिल करता है तो गौरव की उस बारिश में ख़ुद भी नहाने निकल पड़ते हैं। यदि भारत यह वर्ल्ड कप जीत गया होता तो वे इस तरह ख़ुशियाँ मनाते मानो उस जीत में उनका बहुत बड़ा योगदान हो।

मेरा मत है कि अगर मैं गर्व करूँगा तो उसी काम के लिए जिसकी सफलता में मेरा भी कोई हाथ हो। और अगर मैं शर्म करूँगा तो उसी काम के लिए जिसकी विफलता के लिए मैं भी जिम्मेदार हूँ।

भारत में अगर गर्व करने लायक़ सौ बातें हैं तो शर्म करने लायक़ हज़ार बातें। इसलिए यदि मैं 11 भारतीय खिलाड़ियों की उपलब्धियों के लिए गर्व करना शुरू कर दूँ तो सैकड़ों भारतीयों की हरकतों के कारण शर्मिंदा होने के लिए भी तैयार रहना होगा। ऐसा तो हो नहीं सकता कि कोई भारतीय यदि अपना कमाल दिखाकर दुनिया में अपना और देश का नाम रोशन करे तो उस उपलब्धि की बारिश में मैं नहा लूँ मगर कोई भारतीय अगर जघन्य कर्म  करके अपना और देश का नाम डुबोए तो उस गंदे नाले में तैरने से मैं इनकार कर दूँ। मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू – यह दोगलापन मेरे स्वभाव में नहीं है।

इसी देश में जाति और धर्म के नाम पर वोट माँगे और दिए जाते  हैं, मंदिर और मस्जिद के लिए लोग एक-दूसरे का क़त्ल कर देते हैं। इसी देश में पैसों के लिए जैसे हर आदमी अपना ईमान बेचने को तैयार रहता है। संसद, न्यायपालिका और सरकारी दफ़्तर, पुलिस महकमा – हर जगह पैसा ही भगवान है। इसी देश में ग़रीबी के चलते हर रोज़ दस किसान आत्महत्या करते हैं और देश का प्रधानमंत्री हर रैली में देश की आर्थिक उन्नति के दावे करते नहीं अघाता।

नहीं, मुझे एक हिंदुस्तानी के तौर पर इनपर शर्म नहीं आती… क्योंकि इन सबके लिए मैं क़तई ज़िम्मेदार नहीं हूँ। न मैं जाति-धर्म के आधार पर वोट देता हूँ, न मंदिर-मस्जिद के झगड़े में उलझता हूँ, न मैं रिश्वत लेकर कोई काम करता हूँ, न ही कराता हूँ, न मैं इस मौजूदा सरकार की आर्थिक नीतियों का समर्थन करता हूँ।

हाँ मुझे शर्म आती है। अक्सर आती है… एक इंसान के तौर पर। जब मैं कार से जा रहा होता हूँ और कई लोगों को बसों के लिए स्टैंड पर खड़े देखता हूँ तो मुझे अपनी समृद्धि और ऐश-ओ-आराम पर शर्म आती है, मुझे लगता है कि मेरे पास जो पैसा है, वह इन्हीं का है जो पचासों जगह से घूमकर मुझ तक पहुँचा है। जब मैं एक हज़ार के टिकट ख़रीदकर परिवार के साथ मूवी देख रहा होता हूँ तो मुझे यह सोचकर शर्म आती है कि यही पैसा मेरी मेड के 15 दिनों के काम की सैलरी है जिसे मैं दो घंटे के मनोरंजन के लिए उड़ा रहा हूँ। जब मैं सड़कों पर भीख माँग रहे बच्चे या बूढ़े को देखता हूँ तो मैं शर्मसार हो जाता हूँ कि मैंने आज तक ऐसा कुछ नहीं किया जिससे इनमें से किसी एक की हालत में रत्ती भर सुधार आता।

एक इंसान के तौर पर मैं कई-कई बार शर्मिंदा होता हूँ। अपनी तरफ़ से इस शर्म के भार को कम करने के लिए कुछ-कुछ करता भी हूँ जैसे किसी अनाथ बच्चे की साल भर की पढ़ाई को स्पॉन्सर कर दिया या अच्छा काम करने वाली कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद कर दी हालाँकि जानता हूँ कि इतनी बड़ी शर्म के बोझ के मुक़ाबले यह मामूली-सा कर्म राई के बराबर है। लेकिन बाक़ी भारतीय – आम और ख़ास – भी इन बातों के लिए क्या कभी शर्मिंदा महसूस करते होंगे?

आप सब जो विश्व कप में भारत की हार पर आज दुखी हो रहे हैं, क्या उन करोड़ों लोगों के हालात पर भी दिन में एकाध बार दुखी होते हैं जिनके पास रोज़गार नहीं है, पक्का घर नहीं है, बीमार पड़ने पर अच्छा इलाज नहीं मिलता, जो कहने को इंसान हैं मगर जानवरों की ज़िंदगी जी रहे हैं?

यह लेख 20 अक्टूबर 2010 को नवभारत टाइम्स के एकला चलो ब्लॉग सेक्शन में उनके मेडल जीतने पर मेरा सर क्यों ऊंचा हो?  के नाम से  प्रकाशित हुआ था। यह लेख उसी का संशोधित/परिवर्धित रूप है।

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