शायद पहली या दूसरी क्लास की बात है – मुझे Deer की स्पेलिंग और उसका अर्थ लिखने को कहा गया था। तब मैंने हरिण लिखा था (क्योंकि वागड़ी – जो मेरी मातृभाषा है – उसमें हरिण ही बोला जाता है) लेकिन मेरी टीचर या किसी सीनियर छात्र ने मुझे टोका था कि मैंने जो लिखा है, वह सही नहीं है। मुझे आज तक उलझन भरे वे पल याद हैं – हरिण ग़लत कैसे है? हम तो घर पर यही बोलते हैं। लेकिन मैं छोटा था। सवाल नहीं कर सकता था। मगर आज कर सकता हूँ – हरिण सही है या हिरन? जानने के लिए आगे पढ़ें।
जब मैंने फ़ेसबुक पर यह सवाल किया कि हरिण और हिरन में कौनसा शब्द सही है तो एक साथी अर्पणा कश्यप ने पूछा भी कि मैंने हिरण का विकल्प क्यों नहीं दिया क्योंकि वह तो हिरण ही जानती हैं। उनकी शिकायत सही थी। मैं चाहता था कि हिरण का विकल्प भी दूँ लेकिन तब हरिन भी देना पड़ता। भीड़ बढ़ जाती। वैसे भी मुद्दा ‘ण’ और ‘न’ का है ही नहीं। हिंदी में ऐसे ढेरों शब्द हैं जहाँ ‘ण’ और ‘न’ दोनों चलते हैं मसलन किरण/किरन, कृष्ण/किशन, रमण/रमन, श्रावण/सावन, अरुण/अरुन आदि। यहाँ मुद्दा था ‘इ’ की मात्रा का – कि वह ‘ह’ पर लगेगी या ‘र’ पर। इसीलिए पोल को हरिण और हिरन तक सीमित रखा।
वैसे साथियों की इच्छा का सम्मान करते हुए हम सवाल को इस तरह बदल सकते हैं – हरिण सही है या हिरण/हिरन या फिर तीनों सही हैं?
मेरा जवाब है – सभी सही हैं। सही इसलिए कि संस्कृत में हरिण है लेकिन हिंदी में उसी से बना एक और रूप भी चल गया है – हिरन/हिरण। एक तरह से कह सकते हैं कि हरिण तत्सम है और हिरन/हिरण तद्भव हैं।
जैसा कि ऊपर कहा, संस्कृत में केवल हरिण है, हिरण नहीं, कम-से-कम मृग के अर्थ में तो नहीं। संस्कृत में हिरण का मतलब है – सोना, वीर्य, कौड़ी (देखें ऊपर का चित्र)। अगर आपको ‘भारत – एक खोज’ की हर कड़ी के अंत में आने वाला क्रेडिट गीत याद हो तो उसमें एक शब्द आता है – हिरण्यगर्भा। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘स्वर्णगर्भ’ लेकिन यहाँ उसका अर्थ सृष्टि के स्रोत यानी ब्रह्म से है। पूरा सूक्त और उसका काव्यानुवाद इस प्रकार है –
वह था हिरण्यगर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान,
वही तो सारे भूत जाति का स्वामी महान।
जो है अस्तित्वमान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर।।
हरिण से हिरण या हिरन कब बने, इसकी जानकारी मुझे कोशिश करने पर भी नहीं मिल पाई। पहले मुझे लगता था कि उर्दू के प्रभाव से हरिण का हिरन हुआ होगा। लेकिन हठात् याद आया कि कबीर (चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी) के एक भजन में भी तो हिरन ही है – हिरना, समझ-बूझ बन चरना… । अगर आप शास्त्रीय भक्तिसंगीत के शौक़ीन हैं तो आपने कुमार गंधर्व का गाया यह निर्गुण भजन अवश्य सुना होगा।
हरिण>हिरन जैसे और शब्द
जैसा कि ऊपर कहा, हरिण और हिरन जैसे परिवर्तन कम ही देखने को मिलते हैं क्योंकि यहाँ व्यंजन का नहीं, स्वर का परिवर्तन हुआ है (जिसे तकनीकी भाषा में विपर्यय कहते हैं) यानी ‘इ’ की मात्रा ने अपनी जगह बदली है।
हम जानते हैं कि संस्कृत से जितने भी शब्द हिंदी में आए हैं, उनमें कई ने अपना रूप बदला है। कहीं ‘अ’ का ‘आ’ हो गया है (सर्प का साँप), ‘इ’ का ‘ई’ हो गया है (मंत्रिन् का मंत्री), ‘उ’ का ‘ऊ’ हो गया है (शुष्क का सूखा)। लेकिन कोई मात्रा ही इधर-से-उधर हो गई हो, ऐसा कम ही देखने को मिलता है। मैंने अपनी तरफ़ से कुछ शब्द खोजे, कई मेरे भाषामित्र योगेंद्रनाथ मिश्र ने बताए। उस आधार पर जो छोटी-सी सूची तैयार हुई है, वह नीचे पेश है।
- चंगुल का चुंगल
- कुछ का कछु (बाँग्ला में किछु)
- अनुमान का उनमान
- जानवर का जनावर
- विंदु/बिंदु से बूँद
- पागल से पगला
- श्मश्रु (संस्कृत)>मस्सु (प्राकृत)>मच्छु>मुच्छ>मूँछ (हिंदी)
- खर्जू: (संस्कृत)>खजुली>खुजली
मुझे एक शब्द बांग्ला का याद आ रहा है जिसमें ऐसा ही परिवर्तन देखने को मिलता है। यह शब्द है मार्किन। मार्किन का बाँग्ला में अर्थ है अमेरिकी। संभवतः American (अमेरिकन) से ही यह शब्द बना है लेकिन अमेरिकन में र (r) के साथ जो इ (i) की मात्रा थी, वह बाँग्ला शब्द में दाएँ खिसक गई और ‘क’ के साथ लग गई। साथ में शुरुआती ‘अ’ (A) भी ग़ायब हो गया और ‘म’ (m) के साथ ‘ए’ (e) का जो उच्चारण है (मे), वह भी ‘आ’ में बदल गया – बन गया ‘मा’। कहाँ (अ)मेरिकन था, बन गया मार्किन।
हिंदी में भी एक शब्द चलता है मारकीन। लेकिन इसका अमेरिकन से कुछ लेना-देना नहीं है। यह एक मोटे कपड़े के संदर्भ में इस्तेमाल होता है जो नैनजिंग या नैनकिंग नामक चीनी शहर में कभी बनता था। हिंदी शब्दकोशों के अनुसार उसी से बना है मारकीन हालाँकि नैनकीन के मारकीन में बदलने की बात कुछ पल्ले नहीं पड़ती।
आज हमने ऐसे हरिण>हिरन के बहाने ऐसे शब्दों पर बात की जिसमें स्वर का विपर्यय हुआ है। कुछ महीने पहले मैंने वबाल>बवाल जैसे शब्दों पर चर्चा की थी जिनमें व्यंजन इधर-से-उधर हुआ है। आपसे वह चर्चा मिस हो गई हो तो आगे दिए गए लिंक पर पढ़ सकते हैं –