यदि कोई लड़का या लड़की अपनी जाति या धर्म से बाहर शादी कर ले तो परिवार और समाज उसके ख़िलाफ़ लट्ठ लेकर खड़े हो जाते हैं, उसकी हत्या तक कर देते हैं। लेकिन यदि कोई लड़का किसी लड़की के साथ बलात्कार करता है तो कोई पिता, कोई परिवार, कोई समाज उसे बुरा-भला नहीं कहता, उसकी जान नहीं लेता। बल्कि उसे बचाने में जुट जाता है। यह कैसा समाज है जो प्यार का विरोध करता है, लेकिन बलात्कारियों का साथ देता है।
उसने कहा, मैं ऑनर किलिंग का समर्थन करता हूँ… और मैं स्तब्ध उसका चेहरा देखने लगा। वह हरियाणा का कोई बेपढ़ा गँवार नहीं था, अच्छा पढ़ा-लिखा बंदा था जो दिल्ली में बढ़िया नौकरी करता था।
मैंने उससे कुछ पूछा नहीं, क्योंकि ऐसे व्यक्ति से क्या बहस हो सकती है! जो कहे कि मैं ऑनर किलिंग का सपोर्ट करता हूँ, वह यह भी कह सकता है कि मैं दंगों का समर्थन करता हूँ, मुसलमानों की हत्या करने का समर्थन करता हूँ, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार करने का समर्थन करता हूँ… और वह करता भी होगा।
इसलिए मैंने उससे बहस नहीं की। शायद वह उसी मानसिकता में जी रहा है जिस मानसिकता में ऑनर किलिंग करनेवाले माता-पिता, भाई या चाचा-ताऊ जीते हैं – कि दूसरी जाति में शादी करके लड़के या लड़की ने समाज में उनकी इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी है और उसकी यही सज़ा है कि दोनों को जान से मार दिया जाए। ऐसा करके वे एकसाथ दो काम करते हैं – एक तो वे अपनी संतान से बदला ले लेते हैं क्योंकि उसके कारण उनको समाज में नीचा देखना पड़ा है, और दूसरा, वे समाज में अपना पुराना सम्मानित स्थान प्राप्त कर लेते हैं क्योंकि हत्या से यह साबित हो जाता है कि वे इस लड़ाई में समाज के साथ हैं न कि अपनी संतान के साथ।
भारत में कितने अपराध होते हैं – बलात्कार, चोरी, लूट, लिंचिंग, सांप्रदायिक और जातीय दंगे। लेकिन आज तक मैंने कहीं नहीं पढ़ा या सुना कि किसी बाप ने अपने बलात्कारी बेटे को मार डाला या किसी खाप पंचायत ने उन्हें मौत की सज़ा सुनाई। उलटे वे पुलिस पर आरोप लगाते हैं कि लड़के को गलत फँसाया गया है। गुजरात सहित देश भर में दंगों में कितने ही बेगुनाहों की जानें गईं, कितनी बच्चियों, युवतियों और महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ, बापों ने देखा, खापों ने देखा, समुदायों ने देखा लेकिन वह समाज कभी यह कहने नहीं आया कि इन दंगाइयों को सरेआम फाँसी पर चढ़ा दिया जाए, बल्कि वह समाज और उसके पंच ही उनको बचाने पर जुट हुए, जेल से रिहा होने के बाद दंगाइयों और महिलाओं को माला पहनाने में जुट गए। दंगाई हीरो हो गए, एमएलए और एमपी हो गए। बेटा जुआ खेले, लड़कियों को छेड़े, शराब पीकर हंगामा करे, उसको कोई सज़ा नहीं है लेकिन कोई प्यार करे तो वह इतना बड़ा गुनाह कि उनकी हत्या कर दी जाए।
प्यार का इतना विरोध क्यों? ख़ासकर उस देश में जहाँ प्रेम के देवता कृष्ण को घर-घर पूजा जाता है, जहाँ हर मूवी लव स्टोरी पर आधारित होती है और प्यार के गाने हर किसी की ज़बान पर हैं, वहाँ प्यार का इस क़दर विरोध क्यों?
शायद इसलिए कि राधा-कृष्ण के प्यार को अध्यात्म के रस में डुबोकर उसे दूसरे रूप में परोसा जा सकता है, फ़िल्मी प्यार से किसी के परिवार पर कोई अच्छा-बुरा असर नहीं होता, लेकिन घर में अगर लड़का या लड़की अपनी मर्ज़ी से शादी का ऐलान कर दे तो उससे परिवार का सारा पावर इक्वेशन बिगड़ जाता है। जिस समाज में अधिकतर लड़के आज भी अपनी शादी के बारे में कुछ नहीं बोलते और बड़े-बुज़ुर्गों द्वारा दहेज़ लेकर तय की गई दुल्हन को चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं, वहाँ अगर कोई बाग़ी यह कहे कि मैं अपना दूल्हा या दुल्हन खुद चुनूँगा या चुनूँगी तो घर के और समाज के बड़े-बुजुर्गों के लिए यह एक चुनौती के समान है और वे वैसे ही भड़क उठते हैं जैसे अकबर भड़क उठा होगा जब सलीम ने अनारकली को मलिका-ए-हिदुस्तान बनाने का ऐलान किया था।
दूसरी बात, हमारे यहाँ शादी को प्यार से कभी जोड़ा ही नहीं गया। हमारे यहाँ शादी इसलिए होती है ताकि जवान बेटे को अपनी शारीरिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एक स्त्री-देह मिल जाए जो उसके बच्चे भी पैदा करे और घरबार भी देखे। साथ ही बिना शिकवा-शिकायत अपने पति के साथ-साथ पूरे ससुराल की सेवा भी करे। यानी अल्लाह मियाँ की गाय जो हर जायज़-नाजायज़ आज्ञा को सिर झुकाकर माने।
लेकिन जब कोई लड़का अपनी पसंद की लड़की से प्यार करता है तो माँ-बापों-चाचा-ताउओं को डर लगता है कि इतनी हिम्मतवाली बहू शायद ससुराल में वैसी गाय बनकर नहीं रहे और शायद बेटा भी उनके हाथ से निकल जाए। तो ऐसे में प्यार का विरोध तो होगा ही। ख़ासकर वे लोग तो करेंगे ही जो अभी माँ-बाप या चाचा-ताऊ की जगह पर बैठे हुए हैं। और वे भी करेंगे जो उन्हीं की मानसिकता में जी रहे हैं।
प्यार के प्रति इस विरोध की आग में घी का काम करता है जातीय और धार्मिक विद्वेष। और तब यह किसी परिवार का व्यक्तिगत मसला न रहकर जातीय या धार्मिक मसला बन जाता है। जब अपनी जाति या धर्म का लड़का (या लड़की) किसी और जाति या धर्म के लड़के (या लड़की) से प्यार करता पाया जाता है तो छोटों-बड़ों सबकी पहली प्रतिक्रिया यही होती है – क्या अपने यहाँ लड़के (या लड़की) मर गए थे? यानी सबको लगता है कि किसी और जाति-धर्म के बंदे या बंदी से शादी करके इसने सारी जाति या धर्म की इंसल्ट कर दी है। और इस इंसल्ट का बदला लेने के लिए समाज के ताक़तवर लोग परिवार का हुक्का-पानी बंद कर देते हैं या फिर लड़के-लड़की को जान से मारने का फ़रमान जारी कर देते हैं। यदि मामला हिंदू-मुस्लिम का हो तो संघ परिवार से जुड़े संगठन भी अपने झंडे-डंडे उठाकर सामने आ जाते हैं और लव जिहाद के नाम पर प्रेमी जोड़ों को अलग करने में जुट जाते हैं।
अफ़सोस की बात यह भी है कि जिन संस्थाओं से इस नई रोशनी को सबसे ज़्यादा समर्थन और छत्रछाया मिलने की उम्मीद थी, वे अदालतें और मीडिया भी अपनी समर्थक और सुरक्षात्मक भूमिका निभाने से इनकार कर रहे हैं।
लेकिन अच्छी बात यह है कि इन सबके बावजूद न प्यार कम हो रहा है, न प्रेम विवाह। कम ही संख्या में सही, आज गाँवों-देहातों से भी ऐसे युवक-युवतियाँ सामने आ रहे हैं जो सारे ख़तरे उठाकर अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले ख़ुद कर रहे हैं।
यह लेख 23 जून 2010 को नवभारत टाइम्स की वेबसाइट पर और 25 जून 2010 को नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर छपा था। यह लेख उसका संशोधित रूप है।