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एकला चलो

बचपन का साथी था वो, हो जाता सच कहता जो…

ज्योतिष शास्त्र, अंक शास्त्र या ताश जैसे पत्तों के आधार पर क्या कोई भविष्यवाणी की जा सकती है? मैं जब ख़ुद से पूछता हूँ तो मेरा तार्किक दिमाग इस बात को मानने से इनकार कर देता है। लेकिन कुछ हैरतअंगेज़ भविष्यवाणियों का मैं स्वयं चश्मदीद गवाह रहा हूँ जो मेरी किशोरावस्था में एक मित्र ने की थीं। आज मैं आप सबके साथ उन अनुभवों को शेयर कर रहा हूँ।

बात तब की है जब मैं कॉलेज में पढ़ता था और हम सबने ऑब्ज़र्व किया कि हमारा पारिवारिक मित्र शशि उन दिनों जो भी कह देता था, वह सच निकलता था। बात चाहे छोटी हो या बड़ी। मैं आपको कुछ उदाहरण देता हूं। उन दिनों गुंडप्पा विश्वनाथ भारत के लिए खेलते थे और उनका फ़ॉर्म इतना ख़राब चल रहा था कि कभी 5, कभी 10 रन बनाकर पविलियन लौट जाते थे

एक दिन किसी मैच में वह 20 रनों तक पहुँच गए। हमारी मित्र मंडली बैठी रेडियो पर कॉमेंट्री सुन रही थी। एक ने कहा, ‘लगता है इस बार बाबा विश्वनाथ सेंचुरी लगाएँगे।’ शशि ने पूछा, ‘अभी कितने बने हैं?’ किसी ने कहा, ’20’। शशि ने तुरंत कहा, ’25 से ऊपर नहीं जाएगा।’ तभी रेडियो में शोर हुआ। पता चला, चौका लगा है। हमने उसे चिढ़ाया, ‘आज तो तुम्हारी भविष्यवाणी ग़लत निकलेगी।’ उसने पूछा, ‘कितने बने?’ किसी ने कहा, ’24।’ वह हँसते हुए बोला, ’25 क्रॉस नहीं हुआ न?’

एक दिन किसी मैच में वह 20 रनों तक पहुँच गए। हमारी मित्र मंडली बैठी रेडियो पर कॉमेंट्री सुन रही थी। एक ने कहा, ‘लगता है इस बार बाबा विश्वनाथ सेंचुरी लगाएँगे।’ शशि ने पूछा, ‘अभी कितने बने हैं?’ किसी ने कहा, ’20’। शशि ने तुरंत कहा, ’25 से ऊपर नहीं जाएगा।’ तभी रेडियो में शोर हुआ। पता चला, चौका लगा है। हमने उसे चिढ़ाया, ‘आज तो तुम्हारी भविष्यवाणी ग़लत निकलेगी।’ उसने पूछा, ‘कितने बने?’ किसी ने कहा, ’24।’ वह हँसते हुए बोला, ’25 क्रॉस नहीं हुआ न?’

और आप मानें या न मानें, विश्वनाथ अगली ही बॉल में 24 के स्कोर पर आउट हो गए। वह 25 रन पार नही कर पाए। और मज़े की बात कि शशि की क्रिकेट में खास रुचि नहीं थी। अगर उससे पूछते कि टीम के सभी खिलाड़ियों के नाम बताओ तो वह शायद चार-पाँच से आगे नहीं जा पाता।

1982 के उस मैच का स्कोरकार्ड जिसमें विश्वनाथ 24 रन पर आउट हो गए थे।

यह तो हुआ छोटा क़िस्सा हालाँकि इसे छोटा नहीं कह सकते क्योंकि कोई व्यक्ति हज़ारों किलोमीटर दूर खेल रहा है और एक बंदा कलकत्ता के एक ड्रॉइंग रूम में बैठा-बैठा कह रहा है कि यह इतने से आगे नहीं जा पाएगा। लेकिन यह तो अगले पल की बात हुई। शशि ने दो मामलों में ऐसी भविष्यवाणियाँ की थीं जो घटनाएँ महीनों बाद घटीं।

पहली घटना मेरे बड़े भैया के बारे में थी। वह राजस्थान में थे जहाँ एक बैंक में उनकी नौकरी लगी थी। समस्या यह थी कि 6 महीने बीत जाने के बाद भी उनका कॉन्फ़र्मेशन नहीं हो रहा था। कारण दफ़्तर की इंटर्नल पॉलिटिक्स थी जिसकी वजह से बैंक मैनेजर ने पुलिस रिपोर्ट के लिए फ़ाइल ही आगे ही नहीं बढ़ाई थी। माँ-पिताजी चिंतित थे। एक दिम माँ ने शशि से पूछा, ‘शशि, वीरेंद्र का कन्फर्मेशन लेटर कब आएगा?’ वह संकोच में पड़ गया। बोला, ‘चाची जी, अब मैं क्या बताऊँ?’ माँ बोलीं, ‘तुम कुछ भी बोल दो।’ शशि ने कुछ देर सोचा और बोला, ’12 फ़रवरी।’ सुनकर हमारे चेहरे उतर गए क्योंकि वह अगस्त का महीना था और माँ सोच रही थी कि वह कुछ जल्दी की डेट बताएगा। लेकिन हमारे पास कोई चारा नहीं था सिवाय यह मनाने के कि इस बार शशि की भविष्यवाणी ग़लत साबित हो जाए।

महीने पर महीने बीतते गए और अंत में अगले साल की फ़रवरी का महीना भी आया। और इस बार भी वही हुआ। 10 फ़रवरी को हमारे पास भैया की चिट्ठी पहुँची कि उसका कॉन्फ़र्मेशन लेटर आ गया है। शशि की भविष्यवाणी के सच होने से हमारा पूरा परिवार चकित था। शशि की तस्वीर आप नीचे के चित्र में देख सकते हैं। वह बीच में है। दाहिनी तरफ मैं हूं और बाएँ मेरा एक और मित्र।

भैया के बारे में भले ही शशि का प्रिडिक्शन दो दिन से इधर-उधर हो गया हो लेकिन मेरे बारे में वह ऑन डॉट सही रहा। चलिए, अब मेरा क़िस्सा भी पढ़ लें। मैं तब कलकत्ता के सन्मार्ग नामक अख़बार में काम कर रहा था। नवभारत टाइम्स में ट्रेनी जर्नलिस्ट की पोस्ट निकली थी। मैंने अप्लाई किया था और मुबई जाकर टेस्ट-इंटरव्यू भी दे आया था। 2 फ़रवरी 1985 को मेरे पास बीसीसीएल से चिट्ठी आई कि मेरा सिलेक्शन हो गया है और जॉइनिंग की डेट जल्दी ही बता दी जाएगी (देखें चित्र)।

मुझे लगा, हफ़्ते भर में अगली चिट्ठी आ जाएगी और अपने जन्मशहर को विदा करने के लिए ख़ुद को मन से तैयार करने लगा। अगले ही महीने यानी मार्च में मैं 25 साल का होनेवाला था। एक दिन मित्र मंडली में बैठा था कि मेरे मुँह से अचानक निकला, ‘मैं तो चाहता था कि अपनी सिल्वर जूबिली यहीं मनती लेकिन लगता है, उससे पहले ही जाना होगा।’ शशि ने छूटते ही कहा, ‘तुम सिल्वर जूबिली यहीं मनाओगे। तुम 1 अप्रैल को जॉइन करोगे।’

वह फ़रवरी का दूसरा हफ़्ता था। मुझे लगा, बुलावे में इतना समय नहीं लगना चाहिए क्योंकि फ़रवरी के आरंभ में मिली चिट्ठी में साफ़-साफ़ लिखा था कि जल्दी ही आपको जॉइनिंग प्रोग्राम बताया जाएगा। जल्दी का मतलब है हफ़्ता, दो हफ़्ता। अधिक से अधिक एक महीना।

मैं बेसब्री से चिट्ठी का वेट करने लगा। हफ़्ते पर हफ़्ते गुज़रते गए और फ़रवरी का महीना भी पार हो गया। मुझे आशंका हुई कि चिट्ठी कहीं डाक में न खो नहीं गई हो। इसलिए मुंबई ऑफ़िस को पत्र लिखा। लेकिन वहाँ से भी कोई जवाब नहीं आया।

मैंने सिलेक्शन लेटर मिलने के कुछ दिनों बाद ही सन्मार्ग से इस्तीफ़ा दे दिया था और मेरी जगह नई भर्ती की वेकंसी भी निकल गई थी। लेकिन महीना बीत जाने के बाद भी मैं साथियों को या दफ़्तर को नहीं बता पा रहा था कि मेरा लास्ट वर्किंग डे क्या होगा।

मार्च महीने के भी दो हफ़्ते निकल गए। उस दिन 14 तारीख़ थी। मुझे ऑफ़िस में चिंतित बैठा देख हमारे एक वरिष्ठ साथी रुक्म जी ने मुझसे कहा, ‘सुरेंद्र से क्यों नहीं बात कर लेते? वह इन दिनों कलकत्ता में ही है।’ सुरेंद्र यानी सुरेंद्र प्रताप सिंह जो दो महीने पहले ही रविवार पत्रिका छोड़कर मुंबई नवभारत टाइम्स के स्थानीय संपादक बनकर गए थे। रुक्म जी का छोटा भाई ‘रविवार’ में ही काम करता था इसलिए उन्हें वहाँ की ख़बरें मालूम रहती थीं।

मैंने कहा, ‘मैं तो उनको जानता भी नहीं। फ़ोन नंबर भी नहीं है।’

रुक्म जी ने कहा, ‘अभी सुरेंद्र रविवार के दफ्तर में ही है। बात कर लो।’ और उन्होंने रविवार में उदयन शर्मा का नंबर मिला दिया। उदयन ने सुरेंद्र जी यानी एसपी से बात करवाई। मैंने उन्हें अपने बारे में बताया और कहा कि मेरा सिलेक्शन हो गया है ट्रेनी जर्नलिस्ट स्कीम में तो वह बोले, ‘आप अभी यहीं हैं? आपको तो बंबई में होना चाहिए। कल से शुरू हो रही है ट्रेनिंग।’

मैंने कहा, ‘मुझे तो कोई लेटर नहीं मिला।’ उन्होंने आश्चर्य जताया और कहा, ‘मैं बंबई जाकर पता करता हूँ।’

एसपी बंबई चले गए और मैं उनके बुलावे का इंतज़ार करता रहा। जब एक हफ़्ते तक उनका भी जवाब नहीं मिला तो मैंने उनको पत्र लिखा। उस पत्र का जवाब तार से आया 27 मार्च को – REPORT IMMDTELY – S P SINGH (देखें चित्र)

मैंने अगले दिन यानी 28 मार्च का टिकट कटाया और 30 मार्च की सुबह मुंबई पहुँच गया। 11-12 बजे तक ऑफ़िस पहुँचा तो पता चला, एसपी कहीं बाहर गए हैं। किसी ने सुझाया, ‘विश्वनाथ जी से मिल लो।’ उनसे मिला तो उन्होंने कहा कि तार मैंने ही भिजवाया था। वह बोले, ‘एचआर में जाकर आज ही जॉइन कर लो। दो दिन की सैलरी बन जाएगी।’ मैं एचआर में गया। सबकुछ बताया तो वहाँ बैठे बंदे ने कहा, ‘आज तो शनिवार है। आप मंडे से जॉइन कीजिए।

और मैंने मंडे यानी 1 अप्रैल को नवभारत टाइम्स जॉइन किया।

इतनी लंबी कथा बताने का मक़सद केवल यह है कि कैसे अपनी तमाम कोशिशों और इच्छा के बावजूद मैं 1 अप्रैल से पहले जॉइन नहीं कर पाया। आप देखें कि मेरे अलावा सारे बैच की ट्रेनिंग 15 मार्च से शुरू हुई यानी उन सबको समय रहते चिट्ठियाँ मिल गईँ, केवल मुझे नहीं मिली। चलिए, चिट्ठी नहीं मिली, एसपी से मेरी बात तो 14 मार्च को हो गई थी लेकिन वह भी मुंबई जाकर भूल गए। अगर उनको याद रहता तो शायद मैं 20-22 मार्च तक पहुँच जाता और 1 अप्रैल से बहुत पहले जॉइन कर लेता। लेकिन सबकुछ इस तरह हुआ कि 1 अप्रैल से पहले मैं नवभारत टाइम्स जॉइन ही नहीं कर पाया। 1 अप्रैल यानी वही तारीख जो शशि ने करीब डेढ़ महीने पहले बता दी थी। 1 अप्रैल यानी मूर्ख दिवस लेकिन जिसने मुझे बहुत-कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया।

मैं नहीं जानता, यह क्या था। शशि भी नहीं जानता था। आप यह मत सोचिए कि शशि ने कोई ज्योतिष विद्या पढ़ी थी। सच तो यह है कि वह पक्का नास्तिक था। घर का इकलौता लड़का, प्यार में बिगड़ा हुआ और ज़िद्दी भी। उसका हुक्म था कि घर में कोई पूजा-वूजा नहीं होनी चाहिए। इस आदेश का उल्लंघन होने पर एक दिन उसने घर में मौजूद सारे देवी-देवताओं की तस्वीरें और मूर्तियाँ एक गट्ठर में बाँधकर स्टोर रूम में डाल दी थीं। किसी की हिम्मत नहीं थी उनका उद्धार करने की।

शशि के नास्तिक बनने की कथा भी रोचक है – थोड़ी-थोड़ी स्वामी दयानंद जैसी। बात तब की है जब वह 10-12 साल का था। वह अपने दादा जी से बहुत प्यार करता था। एक बार जब दादा जी बीमार पड़े और मृत्युशैया पर थे तो उसने भगवान से प्रार्थना की कि मेरे दादा जी को बचा लो। लेकिन भगवान ने उसकी नहीं सुनी और दादा जी गुज़र गए। बस तभी से वह भगवान का दुश्मन हो गया।

ये सारी बातें जिनका मैं खुद गवाह हूँ, उन्होंने मुझे यह बताया कि एक नास्तिक इंसान जो ज्योतिष, टैरो, हस्तरेखा वगैरह न तो जानता है, न ही मानता है, वह भी आनेवाले समय के बारे में सच-सच बता पा रहा है। इसने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि क्या सबकुछ पहले से तय है जिसका पता शशि को न जाने कैसे लग जाता है!

मैंने इस बारे में कई बार सोचा, बहुत सोचा। शशि कैसे बता देता था कि कोई घटना इतने दिनों के बाद होगी? इसके दो ही जवाब हो सकते थे।

  1. वह घटना पहले ही उस तारीख़ को होनी थी और शशि को पता चल जाता था।
  2. शशि में ख़ुद इतनी ताक़त थी कि वह जो तारीख़ बोल देता था, सारी कायनात उसे सच साबित करने में लग जाती थी।

दूसरी वाली संभावना पर विश्वास करना कठिन था। शशि के चाहने पर बोलर विश्वनाथ को ऐसी बॉल करे कि वह चूक जाएँ और विकेटकीपर उनकी गिल्लियाँ उड़ा दे, यह माना नहीं जा सकता था। शशि के चाहने पर राजस्थान के एक बैंक का मैनेजर पुलिस को एक चिट्ठी महीनों तक न भेजे, यह भी नहीं माना जा सकता था। शशि के चाहने पर डाकिया मेरी चिट्ठी खो दे, यह भी विश्वास के परे है। तो क्या शशि को भविष्य का पता चल जाता था किसी तरह से? अगर हाँ तो इसका मतलब यही है कि भविष्य तय है। अगर भविष्य तय है तो फिर हमारा और सबका रोल तय है। और अगर हमारा और सबका रोल तय है तो ईश्वर का हमारी ज़िंदगी में कोई रोल है ही नहीं।

इस सोच-विचार के बीच मेरे नास्तिक-वैज्ञानिक दिमाग ने एक सिद्धांत खोजा। उस सिद्धांत का आधार यह है कि कल जो हुआ, उसके आधार पर आज की घटनाएँ होंगी और आज जो होगा, उसके आधार पर कल की घटनाएँ घटेंगी। और इसी तरह से एक के ऊपर रखी दूसरी ईँट की तरह सबकुछ एक-दूसरे पर निर्भर है और इसलिए तय है। कुछ लोग हैं जो भविष्य के गर्भ में छुपी उस भावी घटना की झलक देख पाते हैं, अधिकतर लोग नहीं देख पाते। शशि के पास भी यह क्षमता कुछ ही सालों तक रही। बाद के समय में मैंने उससे अपने भविष्य को लेकर कुछ सवाल पूछे लेकिन उसने जो बताया, वह सच नहीं साबित हुआ। आगे चलकर वह आस्तिक भी हो गया। 2016 में अपनी मौत से कुछ समय पहले उसने वॉट्सऐप पर यह टिप्पणी शेयर की थी जिससे उसका मित्रों के प्रति प्रेम और ईश्वर में आस्था झलकती है।

यह लेख 4 फ़रवरी 2011 को नवभारत टाइम्स के एकला चलो ब्लॉग सेक्शन में ‘वह जो बोलता, सच हो जाता‘ के शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। यह लेख उसी का संशोधित रूप है।

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One reply on “बचपन का साथी था वो, हो जाता सच कहता जो…”

स्मृतियां हमें बीते दिनों में ले जाती हैं। जिंदगी में कितने भी सफल हों, पर हमेशा से यही लगता है कि बीते हुए दिन बहुत ही आनंदमय थे। शशि का व्यक्तित्व हमारे दिलों पर एक अमिट छाप छोड़ गया है। अनगिनत घटनाएं हैं, जो शशि को आम जिंदगी से अलग करता है। नीरेंद्र नागर संपादित कलकत्ता लोक पत्रिका के प्रकाशन में शशि ने अपना योगदान दिया ताकि पत्रिका समय पर निकल सके। प्रेमचंद की उक्ति, बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन होता है, शायद हमें उम्र की सूचना दे रहा है। हमारे मित्रों की कमी महसूस होने लगी है। पर एक अच्छी बात है, फ़ोन हमें जोड़े हुए है।

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