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आलिम सर की हिंदी क्लास शुद्ध-अशुद्ध

235. अर्ध सही या अर्द्ध? ज्ञानवर्धक या ज्ञानवर्द्धक?

कुछ शब्द दो-दो तरीक़ों से लिखे जाते हैं। जैसे हर्षवर्धन-हर्षवर्द्धन। ज्ञानवर्धक-ज्ञानवर्द्धक। अर्ध-अर्द्ध। पूर्वार्ध/उत्तरार्ध और पूर्वार्द्ध/उत्तरार्द्ध। इन शब्दों के एक रूप में केवल ‘ध’ है, दूसरे रूप में ‘द्’ और ‘ध’ मिले हुए (द्ध) हैं। ऐसे में किसी के भी मन में सवाल उठ सकता कि कौनसा सही है। आज की चर्चा इसी पर है। रुचि हो तो पढ़ें।

जब मैंने यह जानने के लिए फ़ेसबुक पर एक पोल किया कि हिंदी समाज में किस रूप को अधिक समर्थन प्राप्त है तो पता चला कि आधे से अधिक – 52% – लोग केवल ‘ध’ लिखने के पक्ष में हैं हालाँकि ‘द्ध’ के पक्षधर भी बहुत कम नहीं निकले – 35%। शेष 13% के अनुसार दोनों रूप सही हैं। 

‘द’ और ‘द्ध’ के बारे में वोटिंग का परिणाम।

अब आप जानना चाहेंगे कि सही क्या है। तो हिंदी और संस्कृत के विद्वानों से सलाह-मश्विरा करने के बाद मेरा जवाब है – दोनों सही हैं। 

यदि आप इस जानकारी से संतुष्ट हैं तो यहीं से लौट सकते हैं परंतु यदि आप जानना चाहते हैं कि दोनों रूप क्यों सही हैं, तो आप अंत तक पढ़ें। अंत तक पढ़ना इसलिए भी लाभदायक है कि उससे आपको अपने और भी कई सवालों के जवाब मिल जाएँगे। मसलन कुछ लोग शर्मा और वर्मा को शर्म्मा और वर्म्मा क्यों लिखते हैं? धर्म और कर्म को धर्म्म और कर्म्म क्यों लिखते हैं?

किताबों के मुखपृष्ठ पर वर्म्मा और धर्म्म का प्रयोग।

सबसे अच्छी बात यह कि ‘ध’ और ‘द्ध’ की इस पहेली को सुलझाने के लिए आपको संस्कृत का केवल एक आसान-सा नियम समझना होगा। वह नियम है द्वित्व का यानी डबलिंग का।

नियम यह है कि संस्कृत में जब आधे र् (इसे रेफ कहते हैं) के बाद कोई व्यंजन आता है तो वह डबल लिखा जाता है। सिंपल।

अब हम आते हैं अपने मूल प्रश्न पर जो उन शब्दों के बारे में है जो ‘ध’ और ‘द्ध’ – दोनों तरह से लिखे जाते है। सुविधा के लिए हम ‘वर्धन’ और ‘वर्द्धन’ के आधार पर चर्चा आरंभ करेंगे और पता करेंगे कि ये शब्द कैसे बने। इस प्रयास में हमें जो जवाब मिलेगा, वही जवाब ऐसे सभी शब्दों पर लागू होगा जिन्हें ‘ध’ और ‘द्ध’ दोनों तरह से लिखा जाता है। यानी एक जवाब से आपके दस सवाल हल हो जाएँगे।

पहले देखें कि वर्धन/वर्द्धन शब्द बना कैसे। यह बना है वृध् धातु से। वृध् का मतलब होता है बढ़ना। इसमें ल्युट् प्रत्यय (सीधे-सीधे शब्दों में कहें तो ‘अन’ प्रत्यय) लगाएँगे तो बनता है – वृध्+अन>वर्+ध्+अन=वर्धन

मगर ऊपर जो हमने द्वित्व (डबलिंग) का नियम पढ़ा, उसके अनुसार रेफ (र्) के बाद कोई व्यंजन आए तो वह डबल हो जाता है। यहाँ ‘व’ के बाद ‘र्’ है और उसके बाद ‘ध’ है सो वह (ध्) डबल हो जाएगा। शब्द बन जाएगा वर्ध्धन।

यहाँ आप पूछेंगे – वर्ध्धन? मगर हम तो वर्द्धन और वर्धन की बात कर रहे थे।

जी हाँ। हम उसी तरफ़ जा रहे हैं। आप जानते होंगे कि ‘ध’ एक महाप्राण ध्वनि है। और ये महाप्राण व्यंजन जो होते हैं (हर वर्ग के दूसरे और चौथे व्यंजन जैसे ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ और भ), वे कभी डबल बोले नहीं जा सकते। हमारी जीभ उनका एकसाथ उच्चारण नहीं कर सकती। उसे प्रॉब्लम होती है। इसलिए वह पहले वाले व्यंजन को अल्पप्राण कर देती है। (अल्पप्राण बोले तो ‘ख’ का अल्पप्राण ‘क’, ‘घ’ का अल्पप्राण ‘ग’ यानी महाप्राण वर्ण से ठीक पहले वाला व्यंजन।) इस तरह ‘ध’ का अल्पप्राण हुआ ‘द’ (त, थ, , ध)। इसलिए वर्ध्धन का पहला ‘ध्’ ‘द्’ में बदल जाता है। शब्द बन जाता है वर्द्धन

यह तो हुई भाषाविज्ञान की बात जिसके आधार पर भाषावैज्ञानिक योगेंद्रनाथ मिश्र समझाते हैं कि क्यों ‘ध्ध’ ‘द्ध’ में बदलता है। ऊपर का पैरा मैंने उन्हीं से हुई चर्चा के आधार पर लिखा है। लेकिन इसकी एक शास्त्रीय व्याख्या भी है जो संस्कृत के नियमों के आधार पर की जा सकती है। आचार्य डॉ. शक्तिधरनाथ पांडेय इसे यूँ समझाते हैं – 

  • अचो रहाभ्यां द्वे’ सूत्र से वैकल्पिक द्वित्व के कारण दो रूप बनते हैं।
  • ‘व’ के ‘अ’ के पश्चात् रेफ होने के कारण, फिर उसके बाद में आने वाले यर् ‘ध’ को द्वित्व हुआ है। उत्तर (बाद वाले) धकार (झश्) परे होने के कारण पूर्व ‘ध’ को जश्त्व से दकार हो गया है। इस प्रकार वर्द्धन शब्द बना है। द्वित्वाभाव में वर्धन लिखा जाएगा।

जो संस्कृत व्याकरण में निपुण होंगे, वे इस संक्षिप्त व्याख्या से समझ गए होंगे कि क्यों वर्ध्धन का वर्द्धन हो जाता है। लेकिन जो नहीं समझते, उनके लिए मैं इसी बात को उसी तरह से समझाने की कोशिश करता हूँ जिस तरह से और जितना मैं समझ पाया हूँ।

संस्कृत का एक सूत्र है (झलां जश् झशि) जिसके अनुसार 

  1. यदि किसी शब्द में ग-घ, ज-झ, ड-ढ, द-ध या ब-भ (हर वर्ग का तीसरा और चौथा व्यंजन – इस समूह को झश् कहा जाता है) से पहले…
  2. य, र, ल, व और पंचम वर्णों के अलावा कोई व्यंजन (इस समूह को झल् कहा जाता है) आए…
  3. तो वह व्यंजन अपने वर्ग के तीसरे वर्ण (इस समूह को जश् कहा जाता है) में बदल जाता है।

अब भी नहीं समझे? चलिए, इसे प्रैक्टिकल करके समझते हैं। ऊपर के पैरे का पहला वाक्य पढ़ें और उसके बाद नीचे के पैरे का पहला वाक्य। इसी तरह ऊपर के पैरे के दूसरे वाक्य के बाद नीचे का दूसरा वाक्य।

  1. ध्ध में दूसरा व्यंजन है ध। उस ध (तवर्ग के चौथे सदस्य) से पहले…
  2. ध् (जो न तो पंचम वर्ण है, न ही य, र, ल, व है) आ रहा है…
  3. तो ध् अपने वर्ग (तवर्ग) के तीसरे वर्ण (द्) में बदल जाएगा।

इस प्रक्रिया से (जिसे संस्कृत में जश्त्व कहते हैं) वर्ध्धन का हो जाएगा वर्द्धन

यह तो बात हुई कि क्यों और कैसे वृध् से पहले वर्धन, फिर (द्वित्व के कारण) वर्ध्धन और अंत में (जश्त्व के चलते) वर्द्धन हुआ। लेकिन इससे तो यही स्पष्ट हुआ कि वर्द्धन सही है। फिर मैंने शुरू में ऐसा क्यों कहा कि वर्धन और वर्द्धन दोनों सही हैं?

यह इसलिए कि ऊपर हमने जिस द्वित्व सिद्धांत की बात की (जिसके अनुसार रेफ के बाद कोई व्यंजन आए तो वह डबल हो जाएगा) अनिवार्य नहीं है, वैकल्पिक है। यानी आप चाहें तो डबल करें, चाहें तो न करें।

द्वित्व का सिद्धांत अनिवार्य नहीं है, इस बात की पुष्टि संस्कृत के एक और जानकार डॉ. श्रीओम शर्मा पाणिनि के सूत्रों के आधार पर इस तरह करते हैं – 

  • इधर जो व्यंजनों को द्वित्व संबंधी बात है, इसमें पाणिनि तथा उस समय के अन्य ऋषियों के भी अलग-अलग मत थे। इस संदर्भ में इन सूत्रों को देखा जा सकता है –
  • त्रिप्रभृतिषु शाकटायनस्य (8.4.50), सर्वत्र शाकल्यस्य (8.4.51), दीर्घादाचार्याणाम् अचो रहाभ्यां द्वे (8.4.46), अनचि च (8.4.47)।
  • इन सभी सूत्रों का सारांश यही समझना चाहिए कि द्वित्व व्यवस्था वैकल्पिक है।
  • अतः ‘नपुंसकस्य झलचः‘ सूत्र के महाभाष्य में श्रीपतञ्जलि जी कहते हैं – न व्यञ्ञ्जनपरस्यैकस्य वाऽनेकस्य वा श्रवणं प्रति विशेषोऽस्ति॥ 
  • अर्थात् व्यंजन से परे एक या अनेक व्यंजनों के श्रवण में कुछ विशेषता अर्थात् उच्चारण में अंतर प्रतीत नहीं होता है।

ऊपर संस्कृत के जानकारों डॉ. पांडेय और श्री शर्मा दोनों ने हमें यह बताया कि द्वित्व का सिद्धांत वैकल्पिक है मगर पिछली सदी के पूर्वार्ध (द्वित्व सिद्धांत के अनुसार इसे पूर्वार्द्ध भी लिखा जा सकता है) तक द्वित्व का यह नियम हिंदी में काफ़ी प्रचलित था। यदि आपने कुछ पुरानी किताबें देखी होंगी तो उनमें लेखकों के नाम वर्म्मा, शर्म्मा आदि लिखे देखे होंगे (लेख के शुरू में दिया गया चित्र देखें)। इसी तरह कुछ लोगों को आचार्य्य, कार्य्य, धर्म्म, कर्म्म इत्यादि भी लिखते हुए देखा होगा। यह सब शब्द में आने वाले ‘र्’ के कारण हो रहा है। लेकिन जैसा कि डॉ. पांडेय और श्री शर्मा ने बताया, यह वैकल्पिक व्यवस्था है। आचार्य्य, कार्य्य, धर्म्म, कर्म्म के साथ-साथ आचार्य, कार्य, धर्म, कर्म भी शत-प्रतिशत सही हैं।

अब अंतिम और महत्वपूर्ण प्रश्न कि जब दोनों सही हैं तो क्या लिखा जाए? इसका जवाब आप ही के पास है। जब हम आज की तारीख़ में हर जगह कार्य्य के बजाय कार्य और धर्म्म के बजाय धर्म लिख रहे हैं तो वर्द्धन के बजाय हर जगह वर्धन और अर्द्ध के बजाय हर जगह अर्ध ही क्यों न लिखा जाए? ख़ासकर तब जब वह सही प्रयोग है और आप्टे के संस्कृत कोश में भी वही दिया हुआ है (देखें चित्र)।

आप्टे के संस्कृत-अंग्रेज़ी कोश में वर्धन।
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