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एकला चलो

ख़ुद को कैसे माफ़ करूँ?

हाल ही में एक किताब पढ़ी – Tuesdays with Morrie. मॉरी एक बुज़ुर्ग टीचर हैं जिन्हें ऐसी बीमारी हुई है कि उनकी मौत निश्चित है। ऐसे में उनका एक पुराना छात्र हर मंगलवार को उनके पास आता है और ज़िदगी के उनके अनुभवों के बारे में ज्ञान लेता है। हर हफ़्ते एक नया टॉपिक होता है। एक हफ़्ते मोरी उससे क्षमा के बारे में बात करते हैं और कहते हैं, मरने से पहले ख़ुद को माफ़ करो और फिर बाक़ी सबको।

लेकिन क्या ख़ुद को माफ़ करना इतना आसान है?

औरों को माफ़ करने की बात तो समझ में आती है लेकिन ख़ुद को माफ़ करने की बात मुझे समझ में नहीं आती। औरों को माफ़ करने में मैं कभी देर नहीं करता लेकिन ख़ुद को माफ़ नहीं कर सकता, न ही करना चाहता हूँ। ज़िंदगी में इतने अपराध किए हैं, ख़ास कर अपने चाहने वालों के प्रति कि कभी-कभी कबीरदास की वे लाइनें याद करने को मन करता है… मुझसा बुरा न कोय।

याद करता हूँ तो जैसे एक फ़िल्म सी घूम जाती है।

सीन नंबर 1

बचपन के दिन। मैं तब 10 साल का रहा हूँगा, मेरे बड़े भैया जो मुझसे 4 साल बड़े हैं, रंग में मुझसे साँवले थे और इसको लेकर उनके मन में थोड़ी हीनभावना थी। मेरे बड़े मामा तो उन्हें कालू कहकर ही बुलाते थे जो साफ़ है कि उनको बुरा लगता था। एक-दो बार उन्होंने मुझसे पूछा भी, क्या मैं सचमुच काला हूँ? और मैंने कहा, नहीं, बस थोड़े साँवले हो और कहता,  कृष्ण भगवान भी तो साँवले हैं। सुनकर वह खुश हो जाते। लेकिन एक दिन मेरा उनसे किसी बात पर झगड़ा हो गया। वह मुझसे बड़े थे, मैं हर चीज़ में उनसे कमज़ोर था। तो उस हार की खीझ में मैंने कह दिया – काले-कलूटे, बैगन लूटे। मैंने अपनी बात का असर तुरंत उनके चेहरे पर देखा। वह बिल्कुल मुरझा गया था। एक पल को तो मुझे लगा कि मैंने बाज़ी मार ली लेकिन मेरे वे शब्द और उनका वह चेहरा… मुझे ज़िंदगी में कभी नहीं भूले और मैं कभी भी अपनी उस हरकत के लिए ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाया।

सीन नंबर 2

वही उम्र रही होगी। मेरी एक फुफेरी बहन के साथ किसी बात का विवाद हो गया। मैं उसे चोट पहुँचाना चाहता था। कुछ और कड़े शब्द नहीं सूझे तो मैंने ब्रह्मास्त्र अपनाया – बहन की गाली। इससे पहले मैंने कभी इसका उपयोग नहीं किया था, बस दूसरों के मुँह से सुना था। शायद मैं इस हथियार का असर देखना चाहता था। तो मैंने वह गाली उसे सुना दी और असर वही। बहन स्तब्ध। मेरी बहुत अच्छी इमेज थी और वह सोच ही नहीं सकती थी कि मैं ऐसी भाषा बोल सकता हूँ। उसका वह चेहरा आज भी मुझे याद है। हालाँकि इसके बाद उसके व्यवहार में कोई फ़र्क़ नहीं आया लेकिन मैंने हमेशा इसके लिए ख़ुद को शर्मिंदा महसूस किया है।

ऐसे ही और क़िस्से हैं बचपन के। एक बार मैंने अपनी चचेरी बहन को सीढ़ियों से धक्का दे दिया था – बेवजह, शरारत में। उससे उसके सिर पर निशान आ गया जो आज तक क़ायम है। उसे भी याद है कि मैंने उसे धक्का दिया था। आज भी जब उसका वह निशान देखता हूँ तो सोचता हूँ, मैंने ऐसा क्यों किया?

आप कह सकते हैं कि ये सारी बचपन की नादानियाँ हैं जिनको दिल पर नहीं लेना चाहिए। लेकिन जो दुख मैंने बड़े होने के बाद दिए! एक मेरा दोस्त था – बहुत ही गहरा दोस्त। उसे मैंने ऐसा सदमा पहुँचाया कि उसका दोस्ती पर से विश्वास उठ गया। उसके बाद उसने सालों मुझसे बात नहीं की। कभी राह चलते मिलता तो चेहरा घुमा लेता। मैं अक्सर उसे सपनों में देखता कि हम फिर से बातचीत कर रहे हैं। नींद खुलती तो पता चलता, नहीं, वह तो आज भी नाराज़ है। फिर एक दिन क़रीब 12 साल बाद मैंने उसे एसएमएस किया – क्या मेरे गुनाहों की सज़ा अभी भी पूरी नहीं हुई? उसका जवाब आया कुछ देर बाद – अभी मैं दिल्ली से बाहर हूँ। लौटकर मिलते हैं। एसएमएस पढ़ते ही मेरी आँखों से आँसुओं की धारा निकल पड़ी। तो क्या उसने मुझे माफ़ कर दिया?

शायद हाँ। लेकिन क्या माफ़ करने से अपराध ख़त्म हो जाता है? क्या ग्लानि का भाव ख़त्म हो जाता है? नहीं होता। होना भी नहीं चाहिए। आज जब मैं जाने-अनजाने किए गए अपने गुनाहों को याद करता हूँ तो एक फ़ायदा यह होता है कि मैं उन्हें दोहराने से बचता हूँ। उस पहली गाली के बाद मैंने फिर किसी को ऐसी गाली नहीं दी। रंग के आधार पर कहे गए उस पहले अपशब्द के बाद मैंने किसी और को रंग के आधार पर नीचा दिखाने की कोशिश नहीं की। किसी और को सीढ़ियों से गिराने का प्रयास नहीं किया। किसी और दोस्त को धोखा नहीं दिया। अगर मैंने ख़ुद को माफ़ कर दिया होता और सबकुछ भूल गया होता तो शायद आगे भी ऐसी ग़लतियाँ करता रहता।

अफ़सोस केवल एक है। मैंने वे अपराध तो नहीं दोहराए, लेकिन जाने-अनजाने दूसरे और नए क़िस्म के अपराध होते रहते हैं। इंसान हूँ, सारी कमज़ोरियों के साथ – ताक़त का अहंकार, कमज़ोर पर क्रोध, राग-द्वेष। इन सबसे औरों की तरह मैं भी मुक्त नहीं हूँ। इसलिए किसी न किसी को – ख़ासकर अपनों को – अक्सर चोट पहुँचा ही देता हूँ। बाद में पछतावा होता रहता है, लेकिन तब तक देर हो चुकी रहती है। अगर वे मुझे माफ़ कर भी दें तो मैं ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाता। लगता है, हर अपराध के साथ मैं ख़ुद पर मिट्टी डाल देता हूँ, फिर उसे प्रायश्चित के पानी से धोता हूँ, लेकिन कुछ ही दिनों में कोई और अपराध हो जाता है। शायद जीवन भर चलता रहेगा यह मलिन और साफ़ होने का सिलसिला – रोज़ मैले होने और रोज़ नहाने की तरह।

लेकिन एकाध दाग़ ऐसा भी है जो रोज़ नहाने पर भी नहीं धुलता। एक ऐसा अपराध जिसका कोई प्रायश्चित नहीं है, कोई माफ़ी नहीं है। अब उस अजन्मे शिशु से मैं माफ़ी कैसे माँगूँ जिसको हमने पैदा ही नहीं होने दिया? उसकी हत्या के लिए ख़ुद को माफ़ कैसे करूँ?

यह सब मैं आपको क्यों बता रहा हूँ, पता नहीं। न आप मुझे जानते हैं, न मैं आपको जानता हूँ। या शायद इसीलिए कि आप मुझे नहीं जानते, मैं यह सब आपके सामने कहने का साहस कर पा रहा हूँ। जिनका दिल दुखाया, उनसे तो कभी नहीं कह पाया कि उनका दिल दुखाकर मैं ख़ुद भी कितना तड़पता रहा हूँ। यहाँ आपसे अपने मन की बात कहकर लग रहा है, मानो अपने किसी दोस्त के कंधे पर सिर रखकर रो रहा हूँ।

यह लेख 19 सितंबर 2009 को नवभारत टाइम्स के एकला चलो ब्लॉग सेक्शन में प्रकाशित हुआ था। यह लेख उसका संशोधित रूप है।

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