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174. सही क्या है – तजुर्बा या तज्रुबा?

तजुर्बा एक ऐसा शब्द है जिसका हिंदी में ठीकठाक इस्तेमाल होता है। इसका प्रचलित अर्थ है ‘अनुभव’ मसलन कोई शिक्षक कह सकता है कि मुझे पढ़ाने का तीस साल का तजुर्बा है। लेकिन हिंदी के पुराने शब्दकोशों में तजुर्बा नहीं मिलता, तज्रुबा मिलता है। तो क्या तजुर्बा ग़लत है? आज की चर्चा इसी विषय पर।

इस लेख का शीर्षक देखकर आपमें से अधिकतर लोग चौंक गए होंगे कि तजुर्बा तो सुना था, यह तज्रुबा क्या बला है। जब मैंने फ़ेसबुक पर यही सवाल पूछा तो वहाँ भी चौंकने वालों की संख्या 64% थी। केवल 36% लोगों को मालूम था कि तज्रुबा भी कोई शब्द है, बल्कि यही सही शब्द है।

सही-ग़लत का फ़ैसला बाद में करेंगे मगर यह बात तो तय है कि मूल शब्द तज्रुबा ही है। उसी से बाद में तजुर्बा बना।

तज्रुबा (तजरुबा) को तजरबा भी कहा जाता है। हिंदी शब्दसागर में हमें तजरबा और तजरुबा दोनों की एंट्रियाँ मिलती हैं। वहाँ तजरबा की एंट्री में स्रोत के तौर पर तीन-तीन अरबी रूप दिखाए गए हैं – तज्रबह्, तज्रिबह् और तज्रुबह् (देखें चित्र)।

यानी तज्रुबा और तज्रबा के अलावा इसका एक रूप तज्रिबा भी है। मद्दाह के उर्दू-हिंदी शब्दकोश में तो यह तीसरा वाला रूप ही दिया हुआ है – तज्रिबः। हालाँकि वहाँ बाक़ी दोनों रूपों का भी उल्लेख है (देखें चित्र)।

इससे अनुमान होता है कि मूल अरबी शब्द तज्रिबः है जिससे बाक़ी सारे रूप निकले। तज्रुबा/तज्रबा और तजुर्बा/तजर्बा भी।

तज्रुबा और तज्रबा से तजुर्बा और तजर्बा कैसे बने, इसके मेरे अनुसार दो कारण हो सकते हैं। पहला कारण यह कि अरबी-फ़ारसी परिवार के शब्दों में अमूमन मात्राएँ गुल कर दी जाती हैं यानी लिखी नहीं जातीं। इसके कारण जो ये भाषाएँ और उनके शब्दों को अच्छी तरह नहीं जानते, वे कुछ शब्दों का ग़लत उच्चारण कर सकते हैं।

अब आप तजरबा को देखिए जो इसके उर्दू रूप का लिप्यंतर है। हम हिंदीवाले इसे तज्+रबा भी पढ़ सकते हैं और तजर्+बा भी। और यहीं से समस्या शुरू होती है।

आप जानते ही होंगे कि हिंदी में शब्दों के बीच या अंत में आने वाला अ-स्वर अक्सर बोला नहीं जाता (संस्कृत में ऐसा नहीं है)। इस वजह से कमला का उच्चारण कम्ला होता है और जनता का जन्ता। कमला और जनता जैसे शब्दों में जिनमें केवल एक अ-स्वर है, वहाँ तो मुश्किल नहीं होती – उसे व्यंजन की तरह बोल दिया जाता है। मगर जिन शब्दों के बीच में एक से ज़्यादा ऐसे अ-स्वर होते हैं और वे भी लगातार, वहाँ समस्या होती है कि किस अ-स्वर को लुप्त किया जाए और किसे नहीं।

अगर हिंदी के अपने शब्दों का मामला हो तो वहाँ यह समस्या नहीं आती क्योंकि हमें मालूम रहता है कि कोई शब्द किन-किन शब्दों से बना है और उसी के अनुसार हम अ-स्वर को लुप्त करते हैं या नहीं करते। उदाहरण के लिए दो शब्द लें – अनकही और बदलना। हम जानते हैं कि अनकही अन और कही से बना है तो बदलना बदल के साथ ना जुड़ने से। इसलिए हम आसानी से अन्+कही (न कि अनक्+ही) और बदल्+ना (न कि बद्+लना) बोल लेते हैं। लेकिन अरबी-फ़ारसी परिवार के शब्दों की व्युत्पत्ति के बारे में हमारी जानकारी नहीं है इसलिए वहाँ गड़बड़ी हो जाती है।

तजरबा को फिर से लेते हैं। हमें नहीं मालूम कि अरबी में यह किस धातु से कैसे बना है और वहाँ इसका क्या उच्चारण है। ऐसे में यदि हमारे सामने यह शब्द आ जाए तो हमें शब्द के बीच में दो अ-स्वर दिखेंगे। ज और र। अगर हम इसे बोलते समय ‘ज’ के साथ लगे अ-स्वर को ग़ायब करें तो उच्चारण निकलेगा तज्+रबा (तज्रबा) और ‘र’ के साथ लगे अ-स्वर को ग़ायब करे तो उच्चारण होगा तजर्+बा (तजर्बा)। हमें संभवतः दूसरा रूप ज़्यादा उपयुक्त लगा इसलिए तज्रबा को तजर्बा कर दिया।

ऐसी गड़बड़ियाँ और भी विदेशी शब्दों के साथ होती हैं। एक और उदाहरण मदरसा का है। मदरसा का सही उच्चारण मद्रसा है (मद्+रसा) परंतु अधिकतर हिंदीभाषी मदर्सा (मदर्+सा) बोलते हैं। इसी तरह अश्रफ़ी (अश्+रफ़ी) आम प्रचलन में अशर्फ़ी (अशर्+फ़ी) हो गई है। बेवकूफ़ बे+वकूफ़ के बजाय बेव्+कूफ़ हो गया।

दूसरा कारण वह हो सकता है जिसे भाषा विज्ञान में विपर्यय (Transposition) कहते हैं – जब किसी शब्द में मौजूद ध्वनियाँ या मात्राएँ अपनी जगह बदल लें। हो सकता है कि विपर्यय के कारण तज्रबा तजर्बा हो गया हो। यानी र के साथ जो अ-स्वर था, वह ज के साथ जुड़ गया हो – तज्+रबा>तजर्+बा।

विपर्यय के उदाहरण सभी भाषाओं में मिलते हैं। उर्दू में वबाल है जो हिंदी में बवाल हो गया (‘व’ और ‘ब’ ने अपनी जगह बदल ली)। लखनऊ का नखलऊ हो गया (‘ल’ और ‘न’ ने अपनी जगह बदल ली)। हरिण का हिरण हो गया (‘इ’ की मात्रा ने जगह बदल ली)। पागल का पगला हो गया (‘आ’ की मात्रा ने जगह बदल ली)। चंगुल का चुंगल हो गया (उ की मात्रा ने जगह बदल ली)।

अब मूल प्रश्न पर लौटें कि सही क्या है। मेरा जवाब यह कि दोनों सही हैं। जो शब्द इतने सालों से भारत में चल रहा है, उसे ग़लत क्यों कहें? कभी बहिन था, आज बहन है तो क्या बहन लिखना-बोलना ग़लत घोषित कर दिया जाए? कभी वबाल था, आज बवाल है तो क्या बवाल को अशुद्ध घोषित कर दिया जाए?

जाते-जाते एक बात और। हिंदी में तजुर्बा का अर्थ अधिकतर अनुभव (experience) से लिया जाता है। लेकिन इसका एक अर्थ प्रयोग (experiment) भी है। पुरानी हिंदी फ़िल्मों में इसका इस्तेमाल इस अर्थ में भी किया जाता था। मुझे वी. शांताराम की ‘दो-आँखें बारह हाथ’ याद आ रही है जिसमें नायक द्वारा कुछ क़ैदियों को जेल की चहारदीवारी से निकालकर उन्हें सुधारने के प्रयास को तजुर्बा ही कहा गया है।

इस लिंक पर मूवी का वह संवाद सुनें जिसमें प्रयोग के तौर पर तजुर्बा शब्द का इस्तेमाल हुआ है।

आज हमने तजरबा और मदरसा जैसे अरबी शब्दों की बात की कि कैसे इन शब्दों में ग़लत जगह पर अ-स्वर के लुप्त होने से उनका उच्चारण बदल गया। यही बात संस्कृत के कुछ शब्दों में हुई है। एक है अनवरत (लगातार)। अधिकतर लोग इसे अन+वरत बोलते हैं। परंतु क्या यह सही उच्चारण है? अगर नहीं तो क्यों? इसपर हम पहले चर्चा कर चुके हैं। रुचि हो तो पढ़ें –

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