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ये चुटकुले क्यों किसी को उदास करते है?

कुछ चुटकुले बहुत ही मासूम होते हैं जैसे कोई टीचर कहे कि आज हम लव की बात करेंगे तो क्लास के किशोर छात्र-छात्राएँ समझें कि प्यार-मुहब्बत की बात होगी और पता चले कि राम और सीता के बेटे लव के बारे में पढ़ाया जाएगा। लेकिन अधिकतर चुटकुले इतने मासूम नहीं होते। वे हमेशा किसी के ख़िलाफ़ होते हैं – कभी किसी समुदाय के ख़िलाफ़, कभी किसी व्यक्ति की शारीरिक बनावट या कमियों के ख़िलाफ़। आज का ब्ल़ॉग चुटकुलों में छुपे इसी भेदभाव पर है। रुचि हो तो पढ़ें।

आज के लेख की शुरुआत एक चुटकुले से करते हैं। हो सकता है, आपने पढ़-सुन रखा हो लेकिन दुबारा पढ़ने में कोई बुराई नहीं है।

एक गाँववाला पहली बार शहर गया। वहाँ हैरत से ऊँची-ऊँची इमारतें देख ही रहा था कि एक ठग उसके पास जाकर बोला, ‘इमारत देख रहे हो?’
ग्रामीण ने कहा, ‘हाँ।’
‘तो दो पैसे,’ ठग बोला।
ग्रामीण ने पूछा, ‘पैसे क्यों दूँ?’
ठग बोला, ‘लगता है, शहर में पहली बार आए हो।’
ग्रामीण ने कहा, ‘हाँ, आया हूँ तो क्या?’
‘जानते नहीं, यहाँ इमारत देखने के पैसे लगते हैं,’ ठग ने कहा, ‘जितनी ऊँची वाली मंज़िल देखो, उतने पैसे लगते हैं। कौनसी मंज़िल देख रहे थे?’
उसने कहा, ‘5वीं।’
ठग बोला, ‘ठीक है। तो निकालो 500 रुपये।’
ग्रामीण ने चुपचाप 500 रुपये दे दिए।
जब वह ग्रामीण गाँव लौटा तो संगी-साथियों ने पूछा, ‘कैसा रहा? सुना है, शहर में ठगी बहुत होती हैं। किसी ने ठगा तो नहीं?’
ग्रामीण ने कहा, ‘मुझे कोई क्या ठगेगा? उलटे मैंने ही ठग लिया।’
फिर सारा क़िस्सा बताते हुए उसने कहा, ‘मैं तो 15वीं मंज़िल देख रहा था, पर 5वीं बताकर 1000 रुपए बचा लिए।’

हर जोक की तरह यह जोक भी सिर्फ़ हँसने का मासूम ज़रिया नहीं है। इसमें छुपी है भेदभाव की एक कहानी जिसमें एक पक्ष को सही या बेहतर ठहराया जाता है और दूसरे को ग़लत या बेवकूफ़।

यह चुटकुला शुरू से आख़िर तक शहरवालों के पक्ष में और गाँववालों के विरोध में है। बीच में हो सकता है कि सुननेवाले को गाँववाले पर दया आ जाए कि देखो, एक शहरी उसे ठग रहा है, लेकिन जोक ख़त्म होते-होते उसके दिमाग़ में जो बात घर कर जाती है, वह यही कि कैसा गँवार है जो ठगा जाकर भी ख़ुद को चालाक समझ रहा है।

यही जोक का ठहाका पॉइंट है। वह ठग आपके दिमाग़ से ग़ायब हो चुका होता है जिसने एक सीधे-सादे शख़्स से 500 रुपए झटक लिए। 

अगर आप ध्यान देंगे तो पाएँगे कि हर चुटकुला किसी-न-किसी समूह या क्लास का मज़ाक उड़ाता है। ये चुटकुले यह भी बताते हैं कि समाज के विभिन्न तबक़े एक-दूसरे के बारे में क्या राय रखते हैं। इसी कारण आपको गाँववालों के ख़िलाफ़ चुटकुले मिलेंगे तो पढ़े-लिखों के ख़िलाफ़ भी मिलेंगे हालाँकि कम संख्या में। इसके अलावा महिलाओं, कवियों, नेताओं, व्यापारियों के विरुद्ध भी बड़ी संख्या में चुटकुले मिलेंगे। ख़ास समुदायों – जिनमें अब राजनीतिक दल और उसके नेता भी शामिल हो गए हैं – और दुश्मन देश के लोगों के बारे में चुटकुले तो बहुत ही कॉमन हैं। अडल्ट चुटकुलों की तो एक ख़ास सेक्स अपील है ही।

लेकिन सबसे बुरे चुटकुले वे हैं जो किसी व्यक्ति की शारीरिक बनावट या कमी पर बनते हैं। टीवी-सिनेमा और कार्टून जैसे दृश्य माध्यमों ने दर्शकों को हँसाने के लिए इस विषय को बहुत भुनाया है। आपने कई फ़िल्में देखी होंगी जिनमें किसी मोटे या काले अभिनेता को कमीडियन के तौर पर पेश किया जाता है या दर्शकों को हँसाने के लिए कोई अभिनेता हकलाकर बोलता है।

कभी सोचा है कि ऐसे तमाम दृश्य जिनपर आप हँसते हैं, उनको देखकर उन लोगों पर क्या गुज़रती होगी जो इसी तरह की शारीरिक कमी के शिकार हैं?

चुटकुलों का एक बड़ा हिस्सा औरतों पर केंद्रित होता है – ख़ासकर पत्नी और सास पर। दिल्ली में कभी एक सांध्य दैनिक निकलता था जिसके आख़िरी पेज पर चुटकुले छपते थे। एक दिन मैंने देखा कि उसके 7 में से 6 चुटकुले पति-पत्नी और सास पर थे। इन चुटकुलों में उनकी गप्पें लगाने, सजने-सँवरने या फ़िज़ूलख़र्ची की बदनाम आदतों को निशाना बनाया जाता था। जैसे बचपन में एक सिंगल-लाइनर चुटकुला सुना था – रेल का महिला डिब्बा वह होता है जो इंजन से भी ज्यादा आवाज़ करे।

इसी तरह एक पॉप्युलर जोक है जिसमें पत्नी पति से कहती है – मैं दो मिनट में पड़ोसन से मिलकर आ रही हूँ, आप आधे घंटे के बाद पानी भर लीजिएगा। 

ऐसा नहीं है कि पुरुषों पर चुटकुले नहीं बनते। लेकिन उनका टोन भी ऐसा होता है कि आख़िरकार उसमें महिला-विरोध ही झलकने लगता है। आप पाएँगे कि ऐसे चुटकुलों के केंद्र में ऐसे पुरुष रखे जाते हैं जो अपनी पत्नी से डरते हैं या ऐसे काम करते हैं जो महिलाओं के लिए तय हैं जैसे खाना बनाना, कपड़े धोना, बर्तन माँजना। यानी ये चुटकुले सामान्य पुरुष के विरुद्ध नहीं हैं, ये उन पुरुषों के विरुद्ध हैं जो समाज की नज़र में स्त्रियोचित काम करते हैं।

ऐसे पुरुष ही चुटकुलों के पात्र क्यों होते हैं? इसलिए कि पुरुषों में बहुमत ऐसे लोगों का है जो ऐसे काम करना अपनी तौहीन समझते हैं। इसलिए वे ऐसे मर्दों को अपने मज़ाक का निशाना बनाते हैं।

ऐसे चुटकुलों के समर्थक यह दलील दे सकते हैं कि चुटकुले तो हरदम असामान्य परिस्थितियों पर ही बनेंगे। जिस समाज में औरतें ही घर का कामकाज करती हैं, वहाँ घरेलू कामकाज करनेवाली महिलाओं पर लतीफ़े बन ही नहीं सकते। इसी तरह जहाँ तलाक़ आम बात नहीं है, उन देशों में इस मुद्दे से जुड़ा एक निर्दोष सत्य भी चुटकुला बन जाता है।

मेरा एक जर्नलिस्ट दोस्त एक बार रिपोर्टिंग के सिलसिले में आगरा गया हुआ था। वहाँ एक विदेशी जोड़ा मिल गया। दोस्त ने पूछा, ‘कैसा लगा ताजमहल?’ पुरुष सैलानी ने कहा, ‘बहुत अच्छा। मैं यहाँ तीसरी बार आया हूँ।’ दोस्त को सुखद आश्चर्य हुआ। पूछा, ‘इतना अच्छा लगा ताज?’ सज्जन ने कहा, ‘असल में जब-जब मैंने शादी की, तब-तब अपनी पत्नी को ताज दिखाने लाया।’

यह संवाद जोक का मज़ा क्यों देता है? क्योंकि ताजमहल जो शाहजहाँ और मुमताज के प्रेम का प्रतीक है, वहाँ एक बंदा तीन-तीन महिलाओं से प्यार, शादी और तलाक़ की बात करता है। इस चुटकुले से हम जोक का बेसिक प्रिंसिपल निकाल सकते हैं –

कोई बात या हरक़त जो हमें अपने समाज और मान्यता के अनुसार अटपटी लगती है या कोई वर्ग या समूह जो हमसे अलग दिखता या/और व्यवहार करता है, उन पर हम चुटकुला बना लेते हैं।

इसी कारण सरदारों पर चुटकुले बनते हैं क्योंकि वे पगड़ी पहनते हैं, दाढ़ी रखते हैं, आपसे अलग दिखते हैं। कवियों पर चुटकुले बनते हैं, क्योंकि आप कवि नहीं हैं और कविता सुनाने की उनकी स्वाभाविक-सी इच्छा का अपने चुटकुलों में मज़ाक उड़ाते हैं। इसी तरह नेता भी समाज में एक अलग क़िस्म का तबक़ा है जिसे सभी नापसंद करते हैं लेकिन काम भी उन्हीं से पड़ता है। तो उनके झूठे आश्वासनों और भाषणबाज़ी पर छींटाकशी की जाती है। इसी तरह व्यापारियों के लालच और कंजूसी को निशाना बनाया जाता है।

चुटकुलों का एक बड़ा हिस्सा नॉनवेज यानी सेक्स-संबंधी चुटकुलों का है। चूँकि एक बंद समाज में शादी के बाहर के रिश्तों की अनुमति नहीं है, इसलिए सेक्स-संबंधी अधिकतर चुटकुले फ़्री सेक्स या विवाहेतर संबंधों पर होते हैं।

सबसे ज़्यादा आक्रामक और घातक चुटकुले वे होते हैं जो किसी ख़ास समुदाय को लक्ष्य करके बनाए जाते हैं। ऐसे कम्यूनल चुटकुले विरोधी समुदाय में बहुत हिट होते हैं। इन लतीफ़ों में ऐसी कोई बात होती है जिससे उन्हें मूर्ख, कायर, कमज़ोर, अनाड़ी साबित किया जा सके। इन चुटकुलों की ख़ासियत यह होती है कि ये समुदाय और धर्मनिरपेक्ष होते हैं और आप एक ही चुटकुला अलग-अलग समुदाय के बारे में सुन सकते हैं।

जैसे दिल्ली के प्रतिष्ठित दैनिक नवभारत टाइम्स के पहले पेज पर एक जोक छपा था। एक हिंदुस्तानी बॉर्डर क्रॉस करके पाकिस्तान गया। वहाँ उसने देखा कि दो पाकिस्तानी कुछ काम कर रहे हैं। एक ज़मीन से मिट्टी निकालकर गड्ढा तैयार कर रहा था, दूसरा उस गड्ढे को मिट्टी से भर रहा था। हिंदुस्तानी को कुछ समझ नहीं आया। उसे पूछा, ‘आप लोग क्या कर रहे हो?’ पाकिस्तानियों ने कहा, ‘हम तीन लोग हैं जिनमें से एक का काम गड्ढा खोदना, दूसरे का पौधा लगाना और तीसरे का मिट्टी भरना है। पौधा लगानेवाला आज छुट्टी पर है लेकिन हम दोनों अपना काम कर रहे हैं।’

इस जोक पर हम हिंदुस्तानी खूब हँस सकते हैं कि पाकिस्तानी कितने मूर्ख होते हैं। लेकिन एक पल ठहरकर सोचिए। इस जोक में हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी शब्दों की जगह बदल दीजिए और तब यह जोक पाकिस्तानियों को भी खूब हँसाएगा।

इसी तरह का एक और जोक है। रामू ने बाप बनने पर दोस्तों को मिठाई बाँटी। दोस्तों ने कहा, ‘लेकिन तू तो पिछले तीन सालों से घर नहीं गया है।’ रामू बोला, ‘तो क्या हुआ? चिट्ठी तो लिखता था ना?’

यह उस ज़माने का चुटकुला है जब मैं मुंबई में नौकरी करता था। तब मोबाइल नहीं होते थे, चिट्ठियाँ ही लिखी जाती थीं। आज इस चुटकुले में ‘चिट्ठी तो लिखता था न’ की जगह ‘फ़ोन पर बात तो करता था न’ हो गया होगा। लेकिन निशाना पहले भी यूपी-बिहार वाले थे, आज भी वही होंगे। इस चुटकुले का मक़सद यूपी-बिहार वालों को मूर्ख साबित करना है जैसे इमारत वाले चुटकुले में ग्रामीण को मूर्ख साबित करना था।  

कुछ लोग इन चुटकुलों को बुरा नहीं मानते। वे कहते हैं कि ये चुटकुले सामाजिक द्वेष को उसी तरह निकालते हैं जिस तरह गाली मन की हिंसा को निकालती है और इस तरह वास्तविक हिंसा को रोकती है।

मुझे पता नहीं कि यह कितना सही है। लेकिन यह तो सच है कि चुटकुले जब भी सुने-सुनाए जाते हैं, वे उस वर्ग या समुदाय के बारे में नेगटिव इंप्रेशन छोड़ जाते हैं। ऐसा नहीं है कि यह इंप्रेशन चुटकुले बनाते हैं। इंप्रेशन तो पहले से बना होता है, चुटकुले उसे और पक्का बनाते हैं और प्रचारित करते हैं। ऐसा करके वे सामाजिक (और आज के दौर में राजनीतिक भी) समरसता को कितना नुक़सान पहुँचाते हैं, इसपर कभी ध्यान नहीं दिया जाता। मेरी तरह कभी कोई सवाल उठाए भी तो वह लतीफ़ेबाज़ों के ठहाकों के नीचे दब जाता है।

यह लेख 29 जून 1997 को नवभारत टाइम्स के रविवार्ता सेक्शन (देखें ऊपर का चित्र) और 19 मार्च 2010 को नवभारत टाइम्स के ब्लॉग सेक्शन में प्रकाशित हुआ था। यह लेख उसका संशोधित रूप है।

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