भक्त प्रह्लाद के बारे में आपने पढ़ा ही होगा। वह विष्णु का भक्त था जिस कारण उसका दैत्यराज पिता उससे सदैव नाराज़ रहता था। उसके पिता ने उसे मारने के कई प्रयास किए, यहाँ तक कि उसे आग में ज़िंदा जलाने की कोशिश भी की। मगर इस प्रयास में प्रह्लाद तो नहीं जला, उसकी बुआ होलिका जल गई। यहाँ तक तो आपको मालूम होगा। मगर क्या आप जानते हैं कि प्रह्लाद के पिता का नाम क्या था? हिरण्यकश्यप या हिरण्यकशिपु? आज की चर्चा इसी पर है। रुचि हो तो पढ़ें।
जब मैंने प्रह्लाद के पिता के नाम के बारे में फ़ेसबुक पर पोल किया तो 42% ने हिरण्यकश्यप को सही बताया जबकि हिरण्यकशिपु को सही ठहराने वाले केवल 29% थे। शेष 29% का मत था कि दोनों नाम सही हैं।
अब प्रश्न यह है कि सही नाम क्या है। तो न तो हमारे पास प्रह्लाद के पिता के आधार कार्ड की फ़ोटोकॉपी है, न ही जन्मकुंडली है। सो हमें उन ग्रंथों को ही आधार बनाना होगा जिनमें इस कथा और चरित्रों का ज़िक्र हुआ है।
इनमें से एक है भागवत पुराण जिसमें हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दो भाइयों का उल्लेख है। इस पुराण के अनुसार ये दोनों मूलतः वैकुंठ के द्वारपाल जय और विजय थे जिन्हें एक श्राप के कारण पृथ्वीलोक में तीन-तीन बार जन्म लेना पड़ा था। पहले जन्म में ये हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के रूप में, दूसरे जन्म में रावण और कुंभकर्ण के रूप में और तीसरे जन्म में शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में पैदा हुए। इस श्राप और तीन जन्मों की रोचक कथा के बारे में मैं आगे चर्चा करूँगा। अगर आपको न मालूम हो तो अवश्य पढ़िएगा।
पहले सही नाम के बारे में फ़ैसला कर लिया जाए।
जैसा कि ऊपर बताया, भागवत पुराण में जो नाम है, वह हिरण्यकशिपु ही है, हिरण्यकश्यप नहीं।
इसके अलावा महाभारत में भी हिरण्यकशिपु नाम का कई मौक़ों पर ज़िक्र आता है। एक अवसर पर अनुशासन पर्व में ऋषि उपमन्यु कृष्ण से वार्तालाप के दौरान इस नाम का ज़िक्र करते हुए बताते हैं कि कैसे हिरण्यकशिपु ने शिव को प्रसन्न करने के लिए एक और तप किया था और शिव से मिले वरदान के बल पर इंद्र, यम, सूर्य, अग्नि, वायु, सोम और वरुण सहित सभी देवताओं की सम्मिलित शक्ति प्राप्त की थी। इसी तरह शल्य पर्व में कृष्ण कहते हैं – महाअसुर हिरण्याक्ष तथा एक और हिरण्यकशिपु – ये दोनों नाना विधियों और क्रियाओं से मारे गए थे।
हिरण्यकशिपु का उल्लेख रामचरितमानस में भी है हालाँकि थोड़े परिवर्तित रूप में। तुलसी ने हिरण्यकशिपु को कनककसिपु बना दिया (देखें चित्र) क्योंकि हिरण्य और कनक दोनों का एक ही अर्थ है सोना। उन्होंने भी कसिपु ही लिखा है, कस्यप नहीं।
इस सभी हवालों से सिद्ध होता है कि धर्मग्रंथों में हिरण्यकशिपु नाम ही दिया हुआ है। संस्कृत के कोशों में भी यही नाम दिया हुआ है (देखें चित्र)।
चलिए, नाम तो तय हो गया मगर इसका अर्थ क्या है? हिरण्य का मतलब तो हमने ऊपर जान ही लिया – सोना। संस्कृत कोशों के अनुसार कशिपु के कई अर्थ हैं – तकिया, मसनद, बिस्तर, वस्त्र, भोजन आदि। एक तरह से इस नाम का अर्थ हुआ – जिसे धन और भौतिक सुख-सुविधाओं की अत्यंत चाहत हो।
अब अगर इसी नाम में कशिपु को कश्यप कर दें तो उसका अर्थ हुआ – सोने का कछुआ।
फ़ेसबुक पोल के दौरान कुछ साथियों ने बताया कि मराठी में हिरण्यकश्यप और हिरण्यकश्यपु चलते हैं। हो सकता है, यह इस कारण हुआ हो कि कशिपु अनजाना और कठिन शब्द है जबकि कश्यप अपेक्षाकृत परिचित और आसान। दूसरी संभावना यह भी है कि मराठी में पिता का नाम जोड़ने की परंपरा के कारण हिरण्यकश्यप चल गया हो क्योंकि हिरण्यकशिपु के पिता का नाम कश्यप था।
चलिए, मेरी तरफ़ से तो फ़ैसला हो गया कि सही नाम क्या है। आप अपने हिसाब से तय कर लीजिए कि आपको क्या लिखना या बोलना है। मेरे भाषामित्र योगेंद्रनाथ मिश्र का तो कहना है कि जो चला, वह भला। इस हिसाब से हिरण्यकश्यप को भी सही मान लिया जाना चाहिए जिसे हमारे पोल में 42%+29%=71% साथियों का समर्थन मिला। इस हिसाब से तत्सम नाम हिरण्यकशिपु, और तद्भव नाम हिरण्यकश्यप/हिरण्यकश्यपु।
अब श्राप और उसके फल की बात। कथा यह है कि चार कुमार जो ब्रह्मा के मानसपुत्र थे और हमेशा बालरूप में दिखते थे, विष्णु से मिलने वैकुंठ पहुँचे। वे वैकुंठ के पहले छह द्वार तो पार कर गए लेकिन सातवें द्वार पर पहरा दे रहे जय-विजय नामक दोनों द्वारपालों ने उन चार कुमारों को रोका और उनकी हँसी भी उड़ाई क्योंकि एक तो वे बच्चे-से दिख रहे थे, फिर निर्वस्त्र भी थे। जय-विजय ने कहा कि विष्णु इस समय विश्राम कर रहे हैं। इस पर इन कुमारों ने कहा कि वे विष्णु के भक्त हैं और विष्णुभक्त कभी भी उनसे मिल सकते हैं। जब ये दोनों फिर भी नहीं माने तो उन्होंने उन्हें पृथ्वीलोक में जन्म लेने का श्राप दिया।
इतने में विष्णु भी प्रकट हो गए। जय-विजय ने उनसे प्रार्थना की कि वे उन्हें इस अभिशाप से मुक्ति दिलाएँ। विष्णु ने कहा कि वे ऐसा नहीं कर सकते, उन्हें पृथ्वीलोक में जन्म तो लेना ही होगा लेकिन वहाँ वे कितने जन्म लेना चाहते हैं, यह वे तय कर सकते हैं। विष्णु ने उन्हें दो विकल्प दिए। एक, वे सात जन्मों तक विष्णुभक्त के रूप में पैदा हों और उसके बाद वे वैकुंठ लौटें। दूसरा, वे तीन जन्मों तक विष्णु के शत्रु के रूप में पैदा हों और विष्णु के द्वारा ही मारे जाने के बाद वैकुंठ लौटें। इन दोनों ने दूसरा विकल्प चुना ताकि उनकी जल्द-से-जल्द वैकुंठ वापसी संभव हो पाए।
इसके बाद ये सबसे पहले सतयुग में हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के रूप में पैदा हुए और विष्णु के नरसिंह और वराह रूप के हाथों मारे गए, त्रेतायुग में रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए और विष्णु के राम रूप के हाथों मारे गए और द्वापर युग में शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में पैदा हुए और विष्णु के कृष्ण रूप के हाथों मारे गए।
कथा के अनुसार इसके बाद ये वैकुंठ लौट गए और वहाँ अपनी पुरानी जगह वापस पा गए। आज भी विष्णु के मंदिरों में इन दोनों की मूर्तियाँ पाई जाती हैं (देखें चित्र)।
आज की चर्चा में ऊपर रामचरितमानस का ज़िक्र आया जिसे तुलसी रामायण भी कहते हैं। यह रामायण पुल्लिंग है या स्त्रीलिंग? रामायण पढ़ी या रामायण पढ़ा? इसपर हम पहले बात कर चुके हैं। अगर आप उस चर्चा में शामिल होने से रह गए हों तो नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक या टैप करके पढ़ सकते हैं।