फ़र्ज़ का एक अर्थ तो आप जानते ही होंगे – कर्तव्य। लेकिन फ़र्ज़ के कुछ और अर्थ भी हैं। जैसे इब्ने इंशा ने लिखा है – ‘फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों। फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों, अफ़साने हों।’ इसी तरह मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर है – ‘क्या फ़र्ज़ है कि सबको मिले एक-सा जवाब, आओ न, हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की।’ इन दोनों में फ़र्ज़ का मतलब कर्तव्य नहीं है। तो क्या हैं कर्तव्य के अलावा फ़र्ज़ के दूसरे अर्थ, आज इसी के बारे में बात करेंगे। रुचि हो तो पढ़ें।
सबसे पहले इब्ने इंशा की नज़्म में आए शब्द ‘फ़र्ज़ करो’ पर बात करते हैं। इसमें फ़र्ज़ का मतलब है कल्पना। फ़र्ज़ करो यानी कल्पना करो।
आप सबने ‘पड़ोसन’ फ़िल्म देखी होगी। वह सीन याद करें जब किशोर कुमार की नाटक-गायन मंडली सुनील दत्त के मामा ओमप्रकाश के घर जाती है और उन्हें बताती है कि वे जिस लड़की यानी सायरा बानो से शादी करने का इरादा कर रहे हैं, उससे उनका भांजा यानी सुनील दत्त प्यार करता है। किशोर कुमार उन्हें गवैये अंदाज़ में यह जानकारी देते हैं – मामा, फ़र्ज़ करो कि आपका कोई जवान बच्चा होता… फ़र्ज़ करो कि वह जवान हो गया है… फ़र्ज़ करो कि उसका प्यार किसी बड़ी ही, बड़ी ही ख़ूबसूरत लड़की से हो गया है…।
ओमप्रकाश भी उसी गायकी अंदाज़ में जवाब देते हैं – इसमें फ़र्ज़ करने की क्या ज़रूरत है… अगर लड़की ख़ूबसूरत है… तो प्यार होगा ही…। आख़िर में ओमप्रकाश मान जाते हैं जब उनको पता चलता है कि जिस लड़के की बात हो रही है, वह उनका अपना भांजा सुनील दत्त है।
आपने देखा कि ऊपर जो संवाद मैंने लिखे हैं, उन सबमें फ़र्ज़ का कल्पना के अर्थ में प्रयोग हुआ है।
यदि ‘पड़ोसन’ का ज़िक्र आते ही आपका उस दृश्य को देखने का मन हो गया हो तो इस लिंक पर क्लिक या टैप करके देख सकते हैं।
चलिए, फ़र्ज़ को छोड़ते हैं, फ़र्ज़ी की बात करते हैं। फ़र्ज़ी शब्द तो आप सबने सुना ही होगा। उसका क्या अर्थ है? जो असली नहीं है, यानी काल्पनिक। यह फ़र्ज़ी फ़र्ज़ के कल्पना वाले अर्थ से ही बना है।
फ़र्ज़ी की बात चली तो एक और शब्द याद आ गया जिसे फ़रज़ी भी लिखा जाता है। उसका अर्थ है – शतरंज का एक मोहरा जिसे वज़ीर कहते हैं। आपमें से कुछ को यह कहावत याद होगी – प्यादे सों फरज़ी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाय। यानी किसी को सत्ता मिल गई तो उसका रवैया और रंग-ढंग ही बदल जाता है। यह मूलतः रहीम के दोहे की दूसरी लाइन है। पूरा दोहा इस प्रकार है –
अब मिर्ज़ा ग़ालिब के शेर में आए ‘फ़र्ज़’ की बात करते हैं और उसका अर्थ ढूँढते हैं। फिर से शेर दोहरा देते हैं –
इस शेर में फ़र्ज़ का मतलब है ‘ज़रूरी, अनिवार्य’। यह शेर हज़रत मूसा के कोह-ए-तूर में जाने के वाक़ये से जुड़ा है। कहते हैं कि कोह-ए-तूर के पर्वत पर हज़रत मूसा को ईश्वर ने दस धर्मादेश (Ten Commandments) दिए थे। ग़ालिब कहते हैं कि हम भी चलते हैं कोह-ए-तूर। हो सकता है, ईश्वर हमें कुछ और बात बताए।
कर्तव्य के अलावा फ़र्ज़ के दो और अर्थ तो हमने जान लिए – कल्पना और ज़रूरी। लेकिन फ़र्ज़ के कुछ और भी अर्थ हैं। जैसे ईश्वर की ओर से लगाया हुआ धार्मिक कृत्यों का आदेश, ज़िम्मेदारी और वह नमाज़ जिसका क़ुरान में आदेश है (देखें चित्र)।
अब जाते-जाते एक रोचक बात। फ़र्ज़ शब्द अरबी से आया है मगर वहाँ उसका उच्चारण फ़र्ज़ या फ़रज़ नहीं, फ़रद़ है। इसी तरह मर्ज़ भी अरबी से आया है और वहाँ उसका उच्चारण मरद़ है। ऐसा इसलिए है कि अरबी में एक वर्ण है द़ाद – ض – जिसका उच्चारण वहाँ ‘द’ जैसा होता है लेकिन उसी वर्ण का उच्चारण फ़ारसी में ‘ज़’ जैसा होता है। फ़ारसी में उस वर्ण को ज़ाद कहते हैं।
यह कोई अजीब बात नहीं है। हमारे यहाँ भी एक ऐसा उदाहरण मिलता है। जैसे अपने ‘ज्ञ’ को लीजिए। हिंदी में हम इसे ग्य/ग्यँ बोलते हैं, संस्कृत में ज्यँ और मराठी में द्न्यँ। ऐसे में एक ही शब्द यज्ञ को हिंदी में यग्य/यग्यँ बोलेंगे, संस्कृत में यज्यँ और मराठी में यद्न्यँ। तीनों भाषाओं में शब्द एक जैसा लिखा जाता है – यज्ञ लेकिन बोला जाता है अलग-अलग तरह से।
इसी तरह अरबी और फ़ारसी में कुछ शब्द एक जैसे लिखे जाते हैं और बोले जाते हैं अलग-अलग।
फ़र्ज़, मर्ज़ के अरबी उच्चारणों से हमारा वास्ता नहीं पड़ता लेकिन एक शब्द है जिससे आपका कभी वास्ता पड़ा होगा या आपने उसकी अलग-सी अंग्रेज़ी स्पेलिंग देखी होगी। वह शब्द है Ramadan जबकि भारत में हम रमज़ान (Ramazan/Ramzan) ही पढ़ते-सुनते आए हैं। यहाँ भी वही मामला है। रमज़ान की अरबी और फ़ारसी की स्पेलिंग एक है – رمضان – मगर इसमें मीम यानी म के बाद जो वर्ण है, वह वही ض (द़ाद/ज़ाद) है जिसकी हमने ऊपर बात की और जिसे अरबी में द़ और फ़ारसी में ज़ पढ़ते हैं। इसी कारण यह शब्द अरबी में हो गया रमद़ान और फ़ारसी में रमज़ान। एक बात और बता दूँ – इनका सही उच्चारण रम्अद़ान और रम्अज़ान जैसा है न कि रम्द़ान और रम्ज़ान जैसा।