साहिब, साहब या साहेब? जब मैंने यह सवाल फ़ेसबुक पर पूछा तो 57% ने साहब को सही बताया। 29% के अनुसार साहिब और 14% के मुताबिक़ साहेब सही है। कुछ साथियों ने एक से अधिक विकल्पों को सही बताया। इनमें से सही क्या है, जानने के लिए आगे पढ़ें।
जहाँ तक मूल शब्द की बात है तो वह है साहिब जो कि अरबी का शब्द है। लेकिन तब उसका वह मतलब नहीं था जो आज साहिब/साहब/साहेब का है। तब इसका मतलब था – संगी-साथी। क़ुरआन में पैग़ंबर मुहम्मद के सबसे प्रमुख साथी और ससुर तथा पहले ख़लीफ़ा अबू बक्र के लिए साहिब शब्द का इस्तेमाल किया गया है।
आगे चलकर यह शब्द बीसियों भाषाओं में गया और इसके अर्थ और वर्तनी में भी बदलाव आया। पहले जहाँ इसका अर्थ संगी-साथी था, वहीं मध्यकाल में यह किसी को सम्मान देने के लिए इस्तेमाल होने लगा। भारत में भी भक्तिकाल के कई कवियों ने ईश्वर या प्रभु के लिए साहिब शब्द का इस्तेमाल किया है। मसलन तुलसी दास ने लिखा है –
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसी दास।
सिख धर्म में भी हम साहिब का इस्तेमाल पाते हैं – ननकाना साहिब, गुरु ग्रंथ साहिब।
आगे चलकर साहिब साहब और साहेब बन गया (क्यों हो गया, इसपर हम नीचे चर्चा करेंगे) और यह गोरों, बड़े अधिकारियों और मालिक के लिए भी इस्तेमाल होने लगा।
अब प्रश्न यह कि साहिब का साहब कैसे हुआ होगा। इसका जवाब मेरे पास नहीं था से मैंने अपने भाषामित्र योगेंद्रनाथ मिश्र से संपर्क किया। उनके अनुसार यह सब मुखसुख का मामला है।
मिश्र जी अनुसार सा (आ) बोलते समय मुँह बहुत अधिक खोलना पड़ता है (बोलकर देखें) जबकि हि (इ) के लिए मुँह बहुत कम खोलना पड़ता है, तक़रीबन बंद रहता है (बोलकर देखें)। यानी साहिब बोलते हुए मुँह को बहुत मेहनत करनी पड़ती है – ‘आ’ बोलने के लिए मुँह पूरा खोला नहीं कि तुरंत ‘इ’ बोलने के लिए मुँह बंद करना पड़ता है।
ऐसे में वह बीच का रास्ता अपनाता है ताकि मुँह ‘आ’ के मुक़ाबले कम लेकिन ‘इ’ के मुक़ाबले ज़्यादा खुला रहे। इस कारण मुँह से ह (अ) और हे (ए) की ध्वनि निकलती है। ह (अ) और हे (ए) बोलते समय हमारा मुँह ‘आ’ और ‘इ’ के बीच की स्थिति में रहता है यानी न पूरा खुला रहता है न तक़रीबन बंद (बोलकर देखें)।
‘इ’ का ‘अ’ या ‘ए’ में बदलने का एक और दिलचस्प उदाहरण बहिन है जो हिंदी में बहन हो गया (इ का अ) और गुजराती में ब्हेन व पंजाबी में भैण (इ का ए/ऐ)। इसके अलावा ‘यानी’ का ‘याने’, ‘कि’ का ‘के’, ‘मिहनत’ का ‘मेहनत’, ‘मिहरबान’ का ‘मेहरबान’ आदि कुछ उदाहरण हैं जो मुझे अभी याद आ रहे हैं।
चलिए, यह तो हो गया कि मूल शब्द क्या था और उससे क्या-क्या शब्द बने। अब प्रश्न यह है कि सही किसे कहा जाए। तो इसका कोई एक जवाब नहीं है। कोशों और प्रयोगों के आधार पर मैंने जितना समझा, उसके आधार पर कह सकता हूँ कि धार्मिक मामलों में साहिब का ही प्रचलन दिखता है इसलिए वहाँ साहिब ही लिखा और बोला जाए (गुरु ग्रंथ साहिब) लेकिन सम्मानवाचक शब्द के अर्थ में हिंदी में साहब लिखना-बोलना ही उचित हैं। नीचे देखें – शब्दकोश इनके बारे में क्या कहता है।
तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि साहेब बिल्कुल ग़लत है? जी हाँ, हिंदी के लिए तो है। मगर मराठी नाम में अगर यह शब्द है सो साहेब ही होगा जैसे बालासाहेब ठाकरे और बाबासाहेब आंबेडकर। बांग्ला में भी साहेब है। याद करें अनिल कपूर की 1985 की फ़िल्म ‘साहेब’ जो बांग्ला फ़िल्म का रीमेक था। गुजराती में भी साहेब ही बोला और लिखा जाता है।
साहब और साहेब से एक बात याद आई जो ‘ह’ ध्वनि की विशेषता है। विशेषता यह कि अगर किसी शब्द के शुरू में ‘अ’ स्वर है और उसके बाद ‘ह’ है तो ‘अ’ स्वर ‘ए’ स्वर में बदल जाता है। इसी कारण गहना, कहना, रहना या शहर, ठहर, ज़हर आदि बोलते समय गेहना, केहना, रेहना और शेहर, ठेहर, ज़ेहर जैसे हो जाते हैं। महबूबा भी इसी वजह से मेहबूबा बन जाता है। इस प्रवृत्ति पर हम पहले चर्चा कर चुके हैं। रुचि हो तो इस लिंक की मदद से पढ़ें।