कुछ लोगों कन्फ़्यूज़ हो जाते हैं कि उर्दू से आए शब्दों में कहाँ नुक़्ता लगेगा और कहाँ नहीं। जल्दी होगा या ज़ल्दी, जबरन होगा या ज़बरन, जंग सही है या ज़ंग। जल्दी और जबरन में तो उन्हें स्पेलचेक से मदद मिल जाती है जो ज़ल्दी और ज़बरन लिखने पर उनके नीचे लाल रेखा दिखा देता है। लेकिन जंग और ज़ंग में ऐसा नहीं होता क्योंकि दोनों शब्द सही हैं हालाँकि उनके अर्थ अलग-अलग हैं। आज की क्लास इसी पर।
जब मैंने ‘जंग’ और ‘ज़ंग’ पर फ़ेसबुक पोल किया और पूछा कि युद्ध के लिए क्या लिखेंगे – जंग या ज़ंग तो 75% ने सही जवाब दिया। 25% वोट ग़लत विकल्प पर पड़े। यानी हर चार में से एक व्यक्ति को ग़लत मालूम था।
युद्ध के लिए सही शब्द है जंग – बिना नुक़्ता वाला ज। ज़ंग भी एक शब्द है लेकिन उसका मतलब है मोरचा जो पानी और हवा (ऑक्सिजन) की उपस्थिति में लोहे पर लगता है। बोले तो अंग्रेज़ी में rust और रसायन शास्त्र की भाषा में फ़ेरिक ऑक्साइड। देखें चित्र।
जंग और ज़ंग दोनों ही फ़ारसी शब्द हैं लेकिन एक नुक़्ते के कारण दोनों के अर्थ बिल्कुल बदल गए हालाँकि मुझे दोनों के बीच गहरा संबंध लगता है। जब शासकों, नेताओं और कभी-कभी समाज के दिमाग़ पर ‘ज़ंग’ लग जाता है, तभी मुल्कों और क़ौमों के बीच ‘जंग’ शुरू हो जाती है।
कुछ लोग हिंदी में नुक़्तों के इस्तेमाल के सख़्त ख़िलाफ़ हैं। उनका कहना है कि हिंदी ने भले ही दूसरी भाषाओं के शब्द ले लिए हों और उनको मन से अपना भी लिया हो परंतु यह ज़रूरी क्यों हो कि हम उन शब्दों को उसी तरीक़े से बोलें जैसे उन भाषाओं में बोले जाते हैं जहाँ से वे लिए गए हैं। मसलन अंग्रेज़ Police को पलीस बोलते हैं, लेकिन हिंदी में तो पुलिस ही है। इसी तरह Doctor को हम डॉक्टर नहीं बोलते, डॉक्टर या डाक्टर बोलते हैं और यह शब्द भारत में हर किसी को समझ में भी आता है। जब अंग्रेज़ी से आए शब्दों के मामले में कोई दबाव नहीं तो फिर अरबी-फ़ारसी परिवार की भाषाओं से आए शब्दों के मामले में नुक़्तों की ज़बरदस्ती क्यों? अगर ज़हर को किसी ने जहर बोल या लिख दिया तो क्या क़यामत आ जाएगी? फ़ारसी को फारसी बोल दिया तो क्या उसका मतलब फरसा समझ लिया जाएगा?
बात में दम है। मगर इसे थोड़ा उलटा करके देखें। हम जानते हैं कि अंग्रेज़ कई महाप्राण ध्वनियों का उच्चारण नहीं कर पाते जैसे ख, घ, छ, ध आदि। इसी कारण वे गाँधी को गैंडी बोलते हैं। सुनने में हमें ख़राब लगता है। मगर यदि कोई अंग्रेज़ गाँधी को गाँधी बोल पाए तो क्या आपको अच्छा नहीं लगेगा? अगर बोल पाए तो?
हम हिंदीभाषियों के साथ अच्छी बात यह है कि हम सारी नहीं मगर कुछ विदेशी ध्वनियाँ बोल पाते हैं। जब बोल सकते हैं तो बोलने में क्या समस्या है? जो बोल सकते हैं, बोलें। जो नहीं बोल सकते या बोलना नहीं चाहते, वे न बोलें। इसीलिए हिंदी में ज़हर भी सही माना गया है और जहर भी।
पहले समस्या थी। अधिकतर लोगों को नहीं पता था कि नुक़्ता कहाँ लगता है, कहाँ नहीं लगता। फलतः वे ग़लत जगह नुक़्ते लगा देते थे। मगर अब तो डिजिटल वर्ल्ड में आप स्पेलचेक और ऑटो-करेक्ट ऑन करके काफ़ी हद तक शुद्ध लिख सकते हैं। मैं भी लिखते समय हमेशा नुक़्ते वाली ‘की’ नहीं दबाता। अब ‘नुक़्ता’ ही लीजिए। लिखता हूँ ‘नुक्ता’ और वह साथ-के-साथ ‘नुक़्ता’ टाइप हो जाता है। लिखता हूँ ‘करीब’ और वह ‘क़रीब’ टाइप हो जाता है। हाँ, ‘जंग’ और ‘ज़ंग’ में सिस्टम ऑटो-करेक्ट नहीं करेगा क्योंकि उसे पता नहीं कि मैं क्या लिखना चाहता हूँ – ‘जंग’ या ‘ज़ंग’ – क्योंकि दोनों सार्थक शब्द हैं। इसी तरह ‘खुदा’ और ‘ख़ुदा’ में भी ऑटो-करेक्ट काम नहीं करेगा। ‘राज’ और ‘राज़’ में भी नहीं करेगा।
परंतु ऐसे शब्द बहुत ही कम हैं। अधिकतर शब्द ऐसे हैं जिनका कोई वैकल्पिक नुक़्ता-रहित या नुक़्ता-सहित रूप मौजूद ही नहीं है। जैसे ‘मौजूद’ को ही लीजिए। इसमें ‘ज़’ लगाने से मौज़ूद शब्द बनेगा लेकिन इस तरह का कोई शब्द है ही नहीं। इसलिए आपने मौजूद लिखा तो सिस्टम उसे बदलेगा नहीं और अगर ग़लती से मौज़ूद लिख भी दिया तो सिस्टम उसके नीचे लाल लाइन दिखाकर उसे ग़लत बता देगा।
कहने का अर्थ यह कि कंप्यूटर सिस्टम ने लिखना बहुत ही आसान कर दिया है। इसलिए हमें इस आसानी का फ़ायदा उठाना चाहिए। इसका एक फ़ायदा यह होगा कि शब्दों की शुद्ध वर्तनी लिखे जाने से जिनको नहीं मालूम है, वे भी सही उच्चारण और सही स्पेलिंग सीख जाएँगे।
नुक़्ते की बात चली है तो एक शब्द याद आ गया जिसपर बहुत भ्रम है। भ्रम यह कि सही शब्द रिवाज है या रिवाज़? इसपर हम पहले चर्चा कर चुके हैं। रुचि हो तो पढ़ें। लिंक नीचे दिया हुआ है।
One reply on “167. जंग में सबकुछ जायज़ है तो ज़ंग में क्यों नहीं?”
बेहद उत्साहित हूं(चंद्रबिंदु न लिख पाने की विवशता)
हिंदी भाषा की जैसी गति आज के पत्रकार/पत्रिकाओं आदि ने कर रखा है कि शायद ‘सही’ क्या है ये तय करना मुश्किल हो चला है।सर(हलंत की विवशता) का सानिध्य अपेक्षित है।