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एकला चलो

एक ‘देशद्रोही’ ने कैसे मनाया 15 अगस्त?

कितना अच्छा दिन है आज। हम अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से मुक्ति के 60 सालों का जश्न मना रहे हैं। लाल क़िले से लेकर स्कूल-कॉलेजों में और मुहल्लों से लेकर अपार्टमेंटों तक में तिरंगा फहराया जा रहा है, बच्चों में मिठाइयाँ बाँटी जा रही हैं। मेरे अपार्टमेंट में भी सुबह से देशभक्ति गीत बज रहे हैं और मैंने उस शोर से बचने के लिए अपने फ़्लैट के सारे दरवाज़े बंद कर दिए हैं। मैं नीचे झंडा फहराने के कार्यक्रम में भी नहीं जा रहा। मैं इस छुट्टी का आनंद लेते हुए घर में बैठा बेटी के साथ टॉम ऐंड जेरी देख रहा हूँ।

आप मुझे देशद्रोही कह सकते हैं। कह सकते हैं कि मुझे देश से प्यार नहीं है। मुझपर जूते-चप्पल फेंक सकते हैं। कोई ज़्यादा ही देशभक्त मुझपर पाकिस्तानी होने का आरोप भी लगा सकता है।

मैं मानता हूं कि मेरा यह काम शर्मनाक है, लेकिन मैं क्या करूँ? मैं जानता हूँ कि जब मैं नीचे जाऊँगा और लोगों को बड़ी-बड़ी देशभक्तिपूर्ण बातें बोलते हुए सुनूँगा तो मुझसे रहा नहीं जाएगा। वहाँ हमारे लोकल एमएलए होंगे जिनके भ्रष्टाचार के क़िस्से उनकी विशाल कोठी और बाहर लगीं चार-पाँच कारें खोलती हैं – वही हमारे बच्चों को भगत सिंह और गाँधीजी के त्याग और बलिदान की बातें बताएँगे। वहाँ हमारे सेक्रेटरी साहब होंगे जिन्होंने मकान बनाते समय लाखों का घपला किया और आज तक ज़बरदस्ती सेक्रेटरी बने हुए हैं – वही देश के लिए क़ुर्बानी देनेवाले शहीदों का नाम ले-लेकर घड़ियाली आँसू बहाएँगे। वहाँ अपार्टमेंट के वे तमाम सदस्य होंगे जिन्होंने नियमों को ताक पर रखकर एक्स्ट्रा कमरे बनवा लिए हैं, और कॉमन जगह दख़ल कर ली है। ऐसे भी कई होंगे जिन्होंने बिजली के मीटर रुकवा/धीमे करवा दिए हैं। ये सारे लोग वहाँ तालियां बजाएँगे कि आज हम आज़ाद हैं।

क्या करूँ अगर मुझे ऐसे लोगों को देशभक्ति की बात करते देख ग़ुस्सा आ जाता है। इसलिए मैंने फ़ैसला कर लिया है कि मैं वहाँ जाऊँ ही नहीं।

हालाँकि मैं जानता हूँ कि लाख चाहते हुए भी मैं उनसे बच नहीं पाऊँगा। ये सारे लोग आज आज़ादी का जश्न मनाने के बाद कल शहर की सड़कों पर निकलेंगे और हर गली, हर चौराहे, हर दफ़्तर, हर रेस्तराँ में होंगे। मैं उनसे बचकर कहाँ जाऊँगा?

कल 16 अगस्त को जब मैं ऑफ़िस के लिए निकलूँगा और देखूँगा कि टंकी में तेल नहीं है तो मेरी पहली चिंता यही होगी कि तेल कहां से भरवाऊँ, क्योंकि ज़्यादातर पेट्रोल पंपों में मिलावटी तेल मिलता है (पेट्रोल पंप का वह मालिक भी आज आज़ादी का जश्न मना रहा होगा; अगर वह ख़ुद नेता हुआ तो शायद भाषण भी दे रहा होगा)।

ख़ैर, अपने एक विश्वसनीय पेट्रोल पंप तक मेरी गाड़ी चल ही जाएगी, इस भरोसे के साथ मैं आगे बढ़ूँगा और चौराहे की लाल बत्ती पर रुकूँगा। रुकते ही सुनूँगा मेरे पीछे वाली गाड़ी का हॉर्न जिसका ड्राइवर इसलिए मुझपर बिगड़ रहा होगा कि मैं लाल बत्ती पर क्यों रुक रहा हूँ। मेरे आसपास की सारी गाड़ियाँ, रिक्शे, बस, सब लाल बत्ती को अनदेखा करते हुए आगे बढ़ जाएँगे, क्योंकि चौराहे पर कोई पुलिसवाला नहीं है। मैं एक देशद्रोही नागरिक जो आज आज़ादी के समारोह में नहीं जा रहा, कल उस चौराहे पर भी अकेला पड़ जाऊँगा, जबकि सारे देशभक्त अपनी-अपनी मंज़िल की ओर बढ़ जाएँगे। 

अगले चौराहे पर कोई पुलिसवाला मौजूद होगा, इसलिए कुछ गाड़ियाँ लाल बत्ती पर रुकेंगी। लेकिन बसवाला नहीं। उसे पुलिसवाले का डर नहीं, क्योंकि या तो वह ख़ुद उसी पुलिसवाले को हफ़्ता देता है, या फिर बस का मालिक खुद पुलिसवाला है, या कोई नेता है।

नेताओं, पुलिसवालों और पैसेवालों के लिए इस आज़ाद देश में क़ानून न मानने की आज़ादी है।

मैं देखूँगा कि मेरे बराबर में ही एक देशभक्त पुलिसवाला बिना हेल्मेट लगाए बाइक पर सवार है, लेकिन मैं उसे टोकने का ख़तरा नहीं मोल ले सकता, क्योंकि वह किसी भी बहाने मुझे रोक सकता है, मेरी पिटाई कर सकता है, मुझे गिरफ़्तार कर सकता है। आप मुझे बचाने के लिए भी नहीं आएँगे क्योंकि मैं ठहरा देशद्रोही जो आज आज़ादी का जश्न मनाने के बजाय अपनी बेटी के साथ कार्टून चैनल देख रहा हूँ।

आगे चलते हुए मैं उन इलाक़ों से गुज़रूँगा जहाँ लोगों ने सड़कों पर घर बना दिए हैं, लेकिन उन घरों को तोड़ने की हिम्मत किसी को नहीं है, क्योंकि वे वोट देते हैं। वोट बेचकर वे सड़क को घेर लेने की आज़ादी खरीदते हैं, और वोट खरीदकर ये एमएलए-एमपी विधानसभा और संसद में पहुँचते हैं जहाँ एक तरफ़ उन्हें क़ानून बनाने का क़ानूनी अधिकार मिल जाता है, दूसरी तरफ़ क़ानून तोड़ने का ग़ैरक़ानूनी अधिकार भी। कोई उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। इसलिए वे अपने वोटरों से कहते हैं, रूल्स आर फ़ॉर फ़ूल्स। मैं भी क़ानून तोड़ता हूं, तुम भी तोड़ो। मस्त रहो, बस मुझे वोट देते रहो, मैं तुम्हें बचाता रहूँगा।

इसको कहते हैं लोकतंत्र। लोग अपने वोट की ताकत से नाजायज़ अधिकार ख़रीदते हैं, अपनी आज़ादी खरीदते हैं – क़ानून तोड़ने की आज़ादी। यह तो मेरे जैसा देशद्रोही ही है जो लोकतंत्र का महत्व नहीं समझ रहा, जिसने अपने फ़्लैट में एक इंच भी इधर-उधर नहीं किया, और उसी तंग दायरे में सिमटा रहा, जबकि देशभक्तों ने कमरे, मंज़िलें सब बना दिए सिर्फ़ इस लोकतंत्र के बल पर। आज उसी लोकतांत्रिक देश की आज़ादी की 60वीं सालगिरह पर लोक और सत्ता के इस गठजोड़ को और मज़बूती देने के लिए जगह-जगह ऐसे ही क़ानूनतोड़क लोग अपने क़ानूनतोड़क नेता को बुला रहे है।

जनता के ये सेवक आज अपने-अपने इलाक़ों में तिरंगा फहराएँगे। एक एमएलए-एमपी और बीसियों जगह से आमंत्रण। लेकिन देशसेवा का व्रत लिया है तो जाना ही होगा। आख़िरकार जब भाषण देते-देते थक जाएँगे तो रात को किसी बड़े व्यापारी-इंडस्ट्रियलिस्ट के सौजन्य से सुरा-सुंदरी का सहारा लेकर अपनी थकान मिटाएँगे। यह तो मेरे जैसे देशद्रोही ही होंगे जो अपने फ़्लैट में दुबके बैठे हैं और जो रात को दाल-रोटी-सब्ज़ी खाकर सो जाएँगे।

नीचे देशभक्ति के गाने बंद हो गए हैं, भाषण शुरू हो चुके हैं। जय हिंद के नारे लग रहे हैं। मेरा मन भी करता है कि यहीं से सही, मैं भी इस नारे में साथ दूँ। दरवाज़ा खोलकर बालकनी में जाता हूँ। नीचे खड़े लोगों के चेहरे देखता हूँ। चौंक जाता हूं, अरे, यह मैं क्या सुन रहा हूँ, ऊपर से हर कोई जय हिंद बोल रहा है, लेकिन मुझे उनके दिल से निकलती यही आवाज़ सुनाई दे रही है – मेरी मर्ज़ी। मैं लाइन तोड़ आगे बढ़ जाऊँ, मेरी मर्ज़ी। मैं रिश्वत दे जमीन हथियाऊँ, मेरी मर्ज़ी। मैं हर क़ानून को ठेंगा दिखाऊँ, मेरी मर्ज़ी…

मैं बालकनी का दरवाज़ा बंद कर वापस कमरे में आ गया हूँ। ड्रॉइंग रूम में बेटी ने टीवी के ऊपर प्लास्टिक का छोटा-सा झंडा लगा रखा है। मैं उसके सामने खड़ा हो जाता हूं। झंडे को चूमता हूं, और बोलने की कोशिश करता हूं – जय हिंद। लेकिन आवाज़ भर्रा जाती है। ख़ुद को बहुत ही अकेला पाता हूँ। सोचता हूं, क्या और भी लोग होंगे मेरी तरह जो आज अकेले में आज़ादी का यह त्यौहार मना रहे होंगे। वे लोग जो इस भीड़ का हिस्सा बनने से ख़ुद को बचाए रख पाए होंगे? वे लोग जो अपने फ़ायदे के लिए इस देश के क़ानून को रौंदने में विश्वास नहीं करते? वे लोग जो रिश्वत या ताक़त के बल पर दूसरों का हक़ नहीं छीनते? क्या आप हैं ऐसे इंसान? या बनना चाहते हैं ऐसा नागरिक? मैं जानना चाहता हूँ, क्या इस देश में अभी भी कोई उम्मीद बची है।

यह लेख आज़ादी की 60वीं सालगिरह पर लिखा गया था और 2007 में नवभारत टाइम्स वेबसाइट पर छपा था। लेकिन आज जब आज़ादी की 75वीं सालगिरह भी मन चुकी, तब यह और भी ज्वलंत हो गया है क्योंकि पहले सिर्फ़ लोग क़ानून तोड़ते थे, आज सरकारें और मंत्री-मुख्यमंत्री क़ानून तोड़ रही हैं, क़ानून तोड़ रहे हैं। अपराध साबित होने से पहले एक ख़ास समुदाय के घर तोड़े जा रहे हैं, कपड़ों से उनको पहचानकर उन्हें अपराधी घोषित किया जा रह है। धर्म के नाम पर देश को हिंदुओं और मुसलमानों में बाँटा जा रहा है। 

पंद्रह साल पहले मैंने अपने लेख के अंत में पूछा था – क्या इस देश में कोई उम्मीद बची है। यह पूछते समय मन में छोटी-सी आशा थी कि इसका जवाब शायद हाँ में हो।

आज पंद्रह साल बाद वह छोटी-सी आशा भी धूमिल पड़ रही है।

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