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आलिम सर की हिंदी क्लास शुद्ध-अशुद्ध

220. देवताओं का आह्वान किया जाता है या आवाहन?

धराशायी (पिछली चर्चा) की ही तरह हिंदी का एक और शब्द है जिसके कई-कई रूप आपको इंटरनेट पर मिल जाएँगे। इस शब्द का मतलब है किसी को बुलाना या निमंत्रण देना। मंत्रों द्वारा देवी-देवताओं को बुलाने के अर्थ में भी इसका प्रयोग होता है। लेकिन इसकी सही स्पेलिंग क्या है – आह्वान (आ+ह्+वा+न), आहवान, आव्हान (आ+व्+हा+न), आवहान, आवाह्न (आ+वा+ह्+न) या आवाहन? आज की चर्चा इसी विषय पर है। रुचि हो तो पढ़ें।

जब मैंने इस शब्द पर एक फ़ेसबुक पोल किया तो चुनने के लिए वे सारे छह-के-छह विकल्प दिए थे जो मुझे इंटरनेट पर मिले – आह्वान, आहवान, आव्हान, आवहान, आवाह्न और आवाहन। इनमें से पहले विकल्प आह्वान पर सबसे अधिक 85% वोट पड़े। परंतु इन 85% में क़रीबन आधे लोग ऐसे भी थे जो कह रहे थे कि आह्वान के साथ-साथ आवाहन भी सही है।

क्या वे सही कह रहे थे? अगर शब्दकोशों की मानें तो जवाब ‘हाँ’ में है क्योंकि उनमें आह्वान और आवाहन दोनों दिए गए हैं (देखें चित्र)।

यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है। हिंदी और संस्कृत के शब्दकोशों में भले ही दोनों शब्दों की एंट्री हैं मगर क्या दोनों का एक ही अर्थ है या दोनों में कोई अंतर है? कहीं ऐसा तो नहीं कि मंत्रों द्वारा देवताओं को बुलाने के लिए एक शब्द का प्रयोग होता हो और आम लोगों को पुकारने या बुलाने के लिए दूसरे शब्द का प्रयोग होता है? 

अगर आप शब्दकोश में दोनों शब्दों के दिए गए अर्थों को देखेंगे तो पता चलेगा कि ऐसा नहीं है। दोनों ही शब्दों का एक ही अर्थ है।

आम तौर पर ऐसा होता नहीं है कि किसी भाषा में दो मिलते-जुलते शब्दों का एक ही अर्थ हो। कभी वर्ण बदल जाने पर और कभी मात्राएँ इधर-उधर हो जाने पर शब्द निरर्थक हो जाता है या उसका कोई और अर्थ निकलता है। अब लड़की का लकड़ी हो जाए तो दोनों के अर्थों में ज़मीन-आसमान का अंतर आ जाता है। इसी तरह वहन और बहन के अर्थों में ख़ासा अंतर है।

लेकिन कभी-कभार ऐसा होता है जैसा कि आह्वान और आवाहन में हम देखते हैं। 

आह्वान और आवाहन को देखें तो पहली नज़र में यह विपर्यय का मामला लगता है।

विपर्यय का मतलब है किसी शब्द में इस तरह का परिवर्तन जिसमें कोई वर्ण या मात्रा अपना स्थान बदल ले और ऐसा नया शब्द बन जाए जिसका अर्थ वही हो जो मूल शब्द का था। जैसे वबाल का बवाल (व और ब के बीच अपने-अपने स्थान की अदला-बदली) या हरिण का हिरण (अ और इ स्वरों के बीच अपने-अपने स्थान की अदला-बदली)।

आ+ह्+वा+न का में ‘वा’ तीसरे स्थान पर है, आ+वा+ह+न में वह दूसरे स्थान पर आ गया। इसी तरह ‘ह्’ दूसरे नंबर पर था, वह तीसरे नंबर पर आ गया, साथ ही स्वरयुक्त हो गया।

लेकिन संस्कृत के जानकार डॉ. शक्तिधरनाथ पांडेय के अनुसार ऐसा नहीं कि एक शब्द से दूसरा शब्द बना हो। उनके अनुसार दोनों शब्दों की व्युत्पत्ति इस तरह हुई है (देखें चित्र)।

अब यह णिच् और ल्युट् मेरी समझ से बाहर की चीज़ है क्योंकि संस्कृत के मामले में मैं बिल्कुल लड्डू हूँ। इसलिए जब ख़ुद ही कुछ नहीं समझ पाया, तो आपको क्या समझा सकता हूँ! हमारे लिए बस इतना समझना काफ़ी है कि संस्कृत के ये दोनों शब्द स्वतंत्र रूप से बने हैं।

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