आप सब जानते होंगे कि स्वर्णमुद्रा यानी सोने के सिक्के को उर्दू में क्या कहते हैं? लेकिन क्या आप उसका सही उच्चारण जानते हैं? वह अशर्फ़ी है या अश्रफ़ी? आप कहेंगे, यह क्या बेतुका सवाल है! यह तो हर कोई जानता है – सोने के सिक्के को उर्दू में अशर्फ़ी कहते हैं। परंतु क्या यह नहीं हो सकता कि आप ग़लत जानते हों? चलिए, पहेली छोड़ते हैं और आगे जानते हैं – सही क्या है और क्यों है।
जब मैंने फ़ेसबुक पर यही सवाल किया तो 94% ने अशर्फ़ी उच्चारण को सही बताया। 6% थे जिनके अनुसार सही है अश्रफ़ी। हक़ीक़त क्या है, यह हम नीचे समझते हैं।
चूँकि अश्रफ़ी और अशर्फ़ी, इन दोनों उच्चारणों के लिए हिंदी में अशरफ़ी (अश+रफ़ी और अशर+फ़ी) लिखा जा सकता है, इसलिए इस पोस्ट में मैं इसी वर्तनी का इस्तेमाल करूँगा। हिंदी शब्दसागर में भी यही लिखा हुआ है (देखें चित्र)।
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पहले हम यह जानते हैं कि यह शब्द बना कैसे। अशरफ़ी अरबी शब्द है जिसका अर्थ तो आप जानते ही होंगे – सोने का सिक्का। अन्य भाषाओं की तरह अरबी में भी शब्द किसी-न-किसी धातु से बनते हैं। धातु यानी किसी ख़ास क्रम में सजी व्यंजन ध्वनियाँ। मसलन क् त् ब्। जो मूलतः तीन व्यंजन ध्वनियों का समूह है और जिसका अर्थ है लिखना। इन्हीं तीन व्यंजन ध्वनियों में स्वर लगकर या कोई और व्यंजन जुड़कर उसी मूल अर्थ से संबंधित नए शब्द बनते हैं।
जैसे क् त् ब् से बने
- किताब (क्+इ+त्+आ+ब्) यानी पुस्तक
- कातिब (क्+आ+त्+इ+ब्) यानी लेखक
- मकतब (म्+अ+क्+अ+त्+अ+ब्) यानी विद्यालय।
अशरफ़ी में धातु है श् र् फ़् जिसका अर्थ है ऊँचे दर्ज़े का। इसी से शरीफ़ बना है जिसका प्रचलित अर्थ है सज्जन लेकिन इसका मूल अर्थ था – ऊँचे कुल या ख़ानदान का। जो भी ऊँचे कुल या ख़ानदान का होता था, उसे शरीफ़ कहा जाता था। चूँकि कुलीन वर्ग आम तौर पर विद्या, धन और शक्ति से संपन्न होता है और एक हद तक सुसंस्कृत भी, इसी कारण शरीफ़ का अर्थ आगे चलकर सज्जन भी हो गया। शरीफ़ का ही बहुवचन है अशराफ़। अशरफ़ का अर्थ हुआ बहुत ज़्यादा शरीफ़ (देखें चित्र)।
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अब आते हैं सिक्कों पर। सिक्के कई तरह के होते हैं लेकिन सिक्कों में जो सबसे मूल्यवान यानी ऊँचे दर्ज़े का सिक्का होता है, वह है सोने का। संभवतः इसीलिए सोने के सिक्के को अशरफ़ी कहा गया। ऐसा भी हो सकता है कि सोने के सिक्के अशराफ़ (कुलीनों) के पास ही होते रहे होंगे, इसीलिए उन्हें अशरफ़ी कहा गया।
चाहे जो हो, यह तय है कि श् र् फ् धातु से ही अशरफ़ी बना है और इसी धातु से बने अशराफ़ (अश्+राफ़)) और अशरफ़ (अश्+रफ़) की ध्वनियों के आधार पर अशरफ़ी का उच्चारण अश्+रफ़ी ही बनता है, अशर्फ़ी नहीं।
यह तो हुई समझने की बात। सही उच्चारण अश्रफ़ी है, इसकी पुष्टि उर्दू-हिंदी शब्दकोश भी करते हैं (देखें चित्र)।
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अब प्रश्न यह कि जब अशरफ़ी का सही उच्चारण अश्रफ़ी है तो हिंदी में यह अशर्फ़ी कैसे हुआ। मेरे ख़्याल से इसकी जड़ में है अरबी-फ़ारसी परिवार के लिखने और हिंदी के बोलने के तरीक़ों में अंतर।
अरबी-फ़ारसी परिवार की भाषाओं में जिन ध्वनियों में स्वर नहीं होता (मसलन जो शुद्ध व्यंजन हैं जैसे श्), उनको भी लिखते समय (हल् चिह्न की व्यवस्था होते हुए भी) हल् चिह्न नहीं लगाया जाता। यानी पढ़ते समय आप समझ नहीं पाएँगे कि इस ध्वनि को स्वर के साथ पढ़ा जाए या बिना स्वर के। जैसे अशरफ़ी में श दरअसल श् है – अश्+रफ़ी) मगर वैसा लिखा नहीं जाता।
इधर हिंदी में एक अन्य प्रवृत्ति है। शब्द के अंत और बीच में मौजूद अकार शब्दों को अक्सर स्वरमुक्त पढ़ा जाता है। जैसे कमला को कम्ला, जनता को जन्ता। ऐसे में जब फ़ारसी या उर्दू में लिखे हुए अशरफ़ी को हिंदी वालों ने पढ़ा होगा तो उन्होंने उसे अश्+रफ़ी के बजाय अशर्+फ़ी समझा होगा और हिंदी में लिखते समय उसे अशर्फ़ी बना दिया होगा। नतीजा यह कि धीरे-धीरे लिखने और बोलने दोनों में अशर्फ़ी ही प्रचलित हो गया।
यही ट्रेंड हम मदरसा में भी देखते हैं। उर्दू (अरबी) के मद्रसा का हिंदी उच्चारण मदर्सा हो गया क्योंकि उर्दू में लिखे मदरसा को हिंदी में आप मद् +रसा भी पढ़ सकते हैं और मदर्+सा भी। (पढ़ें – मदरसा का उच्चारण मदर्सा या मद्रसा?)
ऐसा केवल अरबी-फ़ारसी परिवार के शब्दों में नहीं हुआ, संस्कृत के शब्दों के साथ भी हुआ है। अनवरत (अन्+अवरत) का उच्चारण अन्+वरत हो गया, अनशन (अन्+अशन) को अन्+शन बोला जाने लगा।
अलग-अलग भाषाओं में शब्दों के लिप्यंतर से किसी शब्द का उच्चारण कैसे बदल जाता है, इसका एक अच्छा उदाहरण है दीपंकर/दीपांकर। अंग्रेज़ी में इन दोनों ही उच्चारणों के लिए Deepankar/ Dipankar लिखा जाता है। लेकिन इसका सही उच्चारण क्या है?
कुछ समय पहले इसपर चर्चा की थी। यदि जानने में रुचि हो तो क्लिक/टैप करके पढ़ें –