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आलिम सर की हिंदी क्लास शुद्ध-अशुद्ध

140. क़लम ख़रीदी जाती है या ख़रीदा जाता है?

हम सब जानते हैं कि क़लम स्त्रीलिंग है – मेरी क़लम, न कि मेरा क़लम, नीली क़लम, न कि नीला क़लम। लेकिन कमाल अमरोही के लिखे मशहूर गीत ‘कहीं एक मासूम, नाज़ुक-सी लड़की’ में एक लाइन है – क़लम हाथ से छूट जाता तो होगा…। अगर क़लम स्त्रीलिंग है तो यहाँ होना चाहिए था – क़लम हाथ से छूट जाती तो होगी…! तो क्या कमाल अमरोही ने इस गीत में भाषाई ग़लती कर दी? एक ऐसी ग़लती जिसपर किसी और का ध्यान नहीं गया। आइए, जानते हैं, मामला क्या है। क़लम स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग?

जब मैंने फ़ेसबुक पर यह सवाल पूछा कि क़लम का लिंग क्या है तो मुझे अंदाज़ा था कि इस पोल में भारी संख्या में वोट स्त्रीलिंग के पक्ष में पड़ेंगे। हिंदी कविता पर ऐसा हुआ भी। 88% के विशाल बहुमत ने स्त्रीलिंग के पक्ष में मतदान किया। यानी क़लम (पुल्लिंग) के समर्थक केवल 12% थे। लेकिन मैंने अपने प्रोफ़ाइल से जो वोटिंग कराई, वहाँ पुल्लिंग के पक्षधर अच्छे-ख़ासे थे – क़रीब 40% (देखें चित्र)।

मुझे पता है, कुछ लोगों ने पुल्लिंग के पक्ष में वोट क्यों किया। ये वे लोग हैं जो ज़्यादा जानकार हैं, जो जानते हैं कि हिंदी में भले ही क़लम को स्त्रीलिंग के रूप में लिखा-बोला जाता है लेकिन उर्दू में यह पुल्लिंग है। कुछ साथियों ने इसी आशय की टिप्पणियाँ भी कीं।

अगर आप रेख़्ता पर ‘क़लम’ लिखकर सर्च करेंगे तो आपको कई उर्दू रचनाएँ मिल जाएँगी जिनमें ‘क़लम’ का पुल्लिंग के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। कमाल अमरोही के लिखे मशहूर गीत – कहीं एक मासूम, नाज़ुक सी लड़की बहुत ख़ूबसूरत में यह लाइन है – क़लम हाथ से छूट ‘जाता तो होगा’, उमंगें क़लम फिर उठाती तो होंगी… स्पष्ट है, इसमें क़लम पुल्लिंग है। चाहें तो यहाँ टैप/क्लिक करके गीत की वह लाइन सुन सकते हैं –

फ़ेसबुक पोल में अपना वोट देते हुए सीमा जोशी ने क़लम को स्त्रीलिंग बताते हुए फ़ैज़ के एक शेर का हवाला दिया था। शेर है –

मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है, 
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने।

‘क़लम छिन गई…’ से उन्हें लगा कि उर्दू के इस शेर में भी क़लम का स्त्रीलिंग के तौर पर इस्तेमाल हुआ है। लेकिन ऐसा है नहीं। ‘छिन गई’ क्रिया क़लम के लिए नहीं, ‘मता‘ यानी संपत्ति के लिए है। ‘मता-ए-लौह-ओ-क़लम’ का अनुवाद करके उसे ‘क़लम-तख़्ती की दौलत’ कर लें और फिर पढ़ें तो समझ जाएँगे –  ‘क़लम-तख़्ती की दौलत’ छिन गई तो क्या ग़म है…

वैसे ‘लौह-ओ-क़लम’ का शाब्दिक अर्थ वही है – तख़्ती और क़लम लेकिन मद्दाह के शब्दकोश के अनुसार इसका बहुत व्यापक अर्थ है। उसमें लिखा है – वह तख़्ती जिसपर भविष्य में होने वाली सारी घटनाएँ लिखी हुई हैं और वह लेखनी जिसने यह सबकुछ ईश्वर की आज्ञा से लिखा है (देखें चित्र)।

मद्दाह के शब्दकोश में लोहोक़लम का अर्थ

ख़ैर, उर्दू में इसे पुल्लिंग लिखा जाता है, इसपर कोई विवाद नहीं है। लेकिन हिंदी में इसे स्त्रीलिंग के रूप में लिखा-बोला जा रहा है तो हिंदी के लिए यह स्त्रीलिंग ही है। हिंदी के आम शब्दकोश भी इसे स्त्रीलिंग ही बताते हैं। लेकिन हिंदी शब्दसागर इसे पुल्लिंग और स्त्रीलिंग दोनों बताता है (देखें चित्र)।

हिंदी शब्दसागर में क़लम को पुल्लिंग और स्त्रीलिंग दोनों बताया गया है

शब्दसागर में एक और चौंकाने वाली जानकारी है। वह यह कि लेखनी के अर्थ में कलम शब्द संस्कृत में भी है – कलमः (देखें दोनों चित्र)।

हिंदी शब्दसागर में कलम के स्रोत के रूप में अरबी और संस्कृत दोनों दिखाए गए हैं
आप्टे के संस्कृत-अंग्रेज़ी में कलमः का अर्थ।

अगर ऐसा है तो हिंदी का कलम/क़लम अरबी से आया है या संस्कृत से? यह जानने के लिए और रिसर्च करना होगा कि क्या भारत में अरबी-फ़ारसी का प्रचलन शुरू होने से पहले ‘कलम’ शब्द का उपयोग होता था। चूँकि अभी यह रिसर्च मैं कर नहीं पाया हूँ इसलिए फ़िलहाल हम यही मानकर चल रहे हैं कि क़लम शब्द उर्दू (अरबी) से ही आया है।

क़लम की तरह एक और शब्द याद आ रहा है मुझे जो उर्दू में पुल्लिंग है, हिंदी में स्त्रीलिंग है। वह है चर्चा। लेकिन यहाँ मामला उलटा है क्योंकि चर्चा उर्दू से हिंदी में नहीं आया, हिंदी से उर्दू में गया है। चर्चा मूलतः संस्कृत का शब्द है। हम हिंदी में कहते हैं, उनकी कविता की बहुत चर्चा हो रही है। उर्दू में कहेंगे, उनकी कविता के ख़ूब चर्चे हो रहे हैं।

इसी तरह एक और शब्द है धारा जो हिंदी में स्त्रीलिंग है मगर एक बहुत ही लोकप्रिय गीत में उसका पुल्लिंग के रूप में इस्तेमाल हुआ है। ‘बैजू बावरा’ का गाना है – तू गंगा की मौज, मैं जमुना का धारा। बचपन से ही मैं सोचता था कि इसमें धारा को पुल्लिंग क्यों लिखा गया है। मुझे लगा, फ़िल्मी गीतकार इस तरह की छूट लिया करते ही हैं और कभी-कभी तो अति भी करते हैं जैसे सावन कुमार के ‘बरखा रानी’ गीत का यह अंश –  ‘ये अभी तो आए हैं, कहते हैं हम जाए हैं’। मुझे पता नहीं किस इलाक़े की हिंदी में ‘जाते हैं’ या ‘जा रहे हैं’ के लिए ‘जाए हैं’ का प्रयोग चलता है।

लेकिन शकील बदायूनी सावन कुमार से बहुत ऊँचे दर्ज़े के शायर हैं। याद कीजिए – ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया। जब उन्होंने लिखा है तो हो सकता है कि उर्दू में धारा को पुल्लिंग बोलते हों। मैं उर्दू के मामले में उतना ही सिफ़र हूँ जितना संस्कृत के मामले में। दूसरे, उर्दू कोशकार ‘धारा’ और ‘चर्चा’ को अपने कोश में जगह नहीं देते जो कि बहुत अजीब बात है। अगर उर्दूभाषी ‘चर्चा’ और ‘धारा’ को अपनी बोलचाल में जगह देते हैं तो ये शब्द उर्दू कोश में होने चाहिए भले ही वे अरबी-फ़ारसी-तुर्की से न आए हों। रेख़्ता के कोश में ये दोनों शब्द हैं लेकिन उसमें उनका लिंग नहीं दिया हुआ है।

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