गौतम बुद्ध ने कहा था – दुख है। दुख का कारण है। दुख का कारण इच्छा है। तो क्या इसका मतलब यह है कि जब तक इच्छाएँ रहेंगी, तब तक दुख रहेगा? अगर हाँ तब तो दुख को समाप्त करने का या दुखों से मुक्ति का एक ही मार्ग दिखता है – इच्छाओं का नाश। मगर क्या इच्छाओं के नाश के बाद ज़िंदगी का कोई मक़सद बचता है? आख़िर इच्छाओं की पूर्ति ही तो हमें सुख भी देती है…
यह सही है कि इच्छाओं का पूरा न होना ही दुख का मूल कारण है। जब तक (अतृप्त) इच्छाएँ रहेंगी, तब तक दुख भी रहेंगे। परंतु इच्छाओं का पूर्ण होना सुख भी तो देता है। यानी इच्छा केवल दुख का नहीं, सुख का भी कारण है। इसलिए मैं क्या, कोई भी व्यक्ति जो सुख चाहता है, इच्छारहित जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता। हाँ, इच्छाओं का पूरा नहीं होना अवश्य दुख देता है। मगर क्या इस भय से इंसान इच्छा करना ही छोड़ दे?
जब तक जीवन है, तब तक इच्छाएँ हैं और जब तक इच्छाएँ हैं, तब तक सुख भी है और दुख भी। सुख का हम भरपूर आनंद लेते हैं और दुख से बचना चाहते हैं। दुख से बचना तो नामुमकिन है क्योंकि हर इच्छा तो पूरी होने से रही। लेकिन इस दुख की पीड़ा को कम किया जा सकता है, ठीक उसी तरह जिस तरह पेनकिलर की मदद से हम अपने दर्द को कम करते हैं।
बुद्ध की ही शैली में कहूँ तो – दुख हैं। मगर सारे दुख एक जैसे नहीं हैं। कुछ स्थायी होते हैं, कुछ अस्थायी। कुछ इन दोनों के बीच होते हैं जिनके बारे में पता ही नहीं होता कि वे कभी ख़त्म होंगे या नहीं।
इन्हें इस तरह से बाँटा जा सकता है।
- अस्थायी दुख जिनके बारे में हमें पता है कि ये दुख कुछ समय में ख़त्म हो जाएँगे।
- स्थायी जिनके बारे में हमें पता है कि ये दुख कभी ख़त्म नहीं होंगे।
- संशयी दुख यानी वे दुख जिनके बारे में हमें पता ही नहीं कि वे कभी ख़त्म होंगे या नहीं और ख़त्म होंगे तो कब।
आज है, कल नहीं रहेगा
पहली तरह के दुखों में वे दुख हैं जो कुछ घंटों, दिनों, महीनों या सालों के लिए आते हैं और हमें कुछ मामलों में उम्मीद और कुछ मामलों में विश्वास होता है कि आज नहीं तो कल, यह दुख ख़त्म होना ही है। इसमें कुछ बहुत छोटे होतें हैं जैसे कि सरदर्द। आपको पता है कि आराम करने पर या दवा लेने पर यह दुख चला जाएगा। वैसा ही है बुख़ार जो कुछ दिनों के लिए आता है और परेशान करता है और दवा लेने के बाद चला जाता है।
लेकिन इसी कैटिगरी में कुछ बड़े दुख हैं जैसे शादी या नौकरी में देरी, प्रमोशन न होना या परीक्षा या इंटरव्यू में फ़ेल हो जाना। हर इंसान के जीवन में ऐसे दौर आते है। कॉलेज छोड़ते ही अपॉइंटमेंट लेटर इक्का-दुक्का लोगों को ही मिल पाता है। ज़्यादातर को इंतज़ार करना पड़ता है। यही हाल शादी का है। अगर माँ-बाप की पसंद से शादी हो रही है तो भी पहली बार में रिश्ता तय नहीं हो जाता और अगर ख़ुद की पसंद से शादी करनी है तो भी जो पहली लड़की या लड़का पसंद आया, उससे शादी हो, यह ज़रूरी नहीं।
यही बात प्रमोशन की भी है। दफ़्तर में किसी और का प्रमोशन हुआ, हमारा नहीं। कॉलेज में सारे लोग पास हो गए, हम नहीं। लेकिन इसमें भी उम्मीद है। अगर मेहनत और लगन से काम किया तो आज नहीं तो कल कामयाबी मिलेगी ही मिलेगी।
आदत पड़ जाएगी इस दुख की
दूसरी तरह के दुख ऐसे होते हैं जिनके दूर होने का कभी कोई चांस ही नहीं होता। जैसे किसी से परमानेंट ब्रेकअप हो जाना, किसी दुर्घटना में किसी अंग का खो जाना या किसी अपने का इस दुनिया से ही चले जाना। ये दुख जब आते हैं तो पहाड़ जैसे लगते हैं क्योंकि इससे आपकी दुनिया ही बदल जाती है। जिस व्यक्ति का चेहरा आपने साल-दर-साल हर रोज़ देखा हो और जिसका हफ़्ते भर के लिए दूर जाना भी आपको बेचैन कर देता हो, वही अचानक एक दिन हमेशा के लिए चला जाए तो कैसा लगेगा! कैसा लगेगा हर रोज़ बिना उसके बाक़ी ज़िंदगी बिताना! आपका हाथ या पैर कट जाए या आँखें चली जाएँ तो कैसा लगेगा उनके बिना जी पाना! ये दुख ऐसे होते हैं जो आपकी दुनिया ही बदल देते हैं। इसलिए मैं इन्हें जीवन का सबसे बड़ा दुख मानता हूँ। परंतु इस दुख के साथ अच्छाई यह होती है कि मन इसके साथ समझौता कर लेता है। वह आदत डाल लेता है इस दुख के साथ जीने की। इसलिए यह दुख हमें कुछ समय के बाद वैसी पीड़ा नहीं देता जैसा यह तीसरे तरह का दुख देता है जिसकी चर्चा हम अगले पैरे में करेंगे।
उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच
तीसरी तरह का दुख वह है जिसमें आपको पता नहीं होता कि यह दुख कभी ख़त्म होगा या नहीं। जैसे रिसेशन में अचानक नौकरी छूट जाना या शादीशुदा जीवन में पार्टनर से नहीं पटना। ऐसे में एक स्थायी-सा तनाव या अवसाद हर समय रहता है कि कल क्या होगा। भविष्य क्या होगा? बच्चों का क्या होगा? इसी तरह अगर ख़ुद को या किसी अपने को कैंसर हो जाए। आप यह भी नहीं कह सकते कि यह बीमारी ठीक नहीं होगी, और यह भी नहीं कि ठीक हो ही जाएगी। इस तरह के दुख हमें हमेशा संशय की स्थिति में रखते है और हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर इसका असर सबसे ख़राब होता है क्योंकि न तो आप पूरी तरह उम्मीद रख सकते हैं न ही नाउम्मीद हो सकते हैं। यह एक ऐसा मेहमान है जो अपना बोरिया-बिस्तर लेकर आ तो जाता है, जाने का इरादा भी जताता है मगर अपनी जाने की तारीख़ कभी नहीं बताता। हो सकता है – कल चला जाए, मुमकिन है – बरसों पड़ा रहे।
तो अब आप अपने दुख को तोलिए कि वह किस कैटिगरी का है। जो लोग कैटिगरी 2 और 3 का दुख झेल रहे हैं, उनसे हमें सहानुभूति होनी चाहिए और संभव हो तो उनकी मदद करनी चाहिए जिससे उनका दुख कम हो। मगर जिन लोगों का दुख कैटिगरी नं. 1 का है, उन्हें ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए कि क्या उनका दुख उतना बड़ा है जिसके लिए परेशान हुआ जाए!
मेरे हिसाब से इस तरह का दुख सामान्य दुख है और अगर हमारी लाइफ़ में इस तरह का दुख आता है तो हमें उसको जीवन का अनिवार्य हिस्सा मानकर उसका मुक़ाबला करना चाहिए। यह दुख उतना बड़ा दुख नहीं है जितना हमें उस समय लगता है जब हम इससे गुज़र रहे होते हैं। कष्ट होता है मगर इस कष्ट को इस उम्मीद के सहारे ख़त्म नहीं तो कम तो किया ही जा सकता है – दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है, लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है…
मेरे जीवन में दो-तीन बार ऐसे दौर आए हैं जब लगा कि मुझपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है। उस समय फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के उपर्युक्त शेर से शुरू होने वाले इस प्यारे गीत ने मुझे बहुत हिम्मत दी थी। आइए, लेख के अंत में 1942 – अ लव स्टोरी का यह प्यारा-सा गीत सुनते हैं – ये सफ़र बहुत है कठिन मगर…
यह लेख 15 अक्टूबर 2009 को नवभारत टाइम्स के एकला चलो ब्लॉग सेक्शन में प्रकाशित हुआ था। यह लेख उसका संशोधित रूप है।