उड़ीसा में बीजेपी सरकार बनने के बाद सबसे नया काम यह हुआ है कि ग्रेअम स्टेन्स और उनके दो बच्चों को ज़िंदा जलाने वाले दारा सिंह ने अपनी उम्रक़ैद की सज़ा समाप्त करने की दर्ख़्वास्त दी है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में राज्य की बीजेपी सरकार से उसकी राय माँगी है जो निश्चित रूप से सकारात्मक होगी। राजनीतिक हत्यारों की सज़ामाफी के लिए इससे पहले भी सरकारी पहलें हो चुकी हैं। सवाल है – क्या ऐसे लोगों को माफ़ी दी जानी चाहिए?
पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल* आज राष्ट्रपति से मिले और बलवंत सिंह राजोआना को माफ़ी देने का अनुरोध किया। उनके पीछे पंजाब का एक बड़ा तबक़ा है जो मानता है कि बलवंत सिंह ने बेअंत सिंह की हत्या की साज़िश रचकर ठीक किया था।
इसी तरह जम्मू-कश्मीर के नेताओं और जनता के एक बड़े हिस्से का मानना है कि संसद हमले के दोषी अफ़ज़ल गुरु* को फाँसी नहीं दी जानी चाहिए थी। तमिलनाडु विधानसभा तो एक प्रस्ताव तक पास कर चुकी है कि राजीव गांधी के हत्यारों को मृत्युदंड न दिया जाए।
स्पष्ट है कि ये तीनों मामले क्षेत्रीय और धार्मिक संकीर्णता की उपज हैं। जिस तरह अपना बेटा कुछ ग़लत कर दे तो माँ उसे माफ़ कर देती है, वैसे ही इन राज्यों की जनता भी इन क़ातिलों को बचाने की वकालत कर रही है क्योंकि वे उनकी भाषा बोलते हैं या उनके धर्म के हैं और उन्होंने एक ऐसे मुद्दे के लिए हिंसा का सहारा लिया जो उनको सही लगता है।
मैं इस मामले में लंबे-चौड़े तर्क-वितर्क करने नहीं जा रहा। मेरा बस एक सीधा-सा सवाल है। कल कोई प्रकाश सिंह बादल* या सुखबीर बादल को गोली मार दे तो क्या अकाली उसको भी माफ़ करने की मांग करेंगे? इसी तरह कल मुफ़्ती मुहम्मद सईद* या मेहबूबा मुफ़्ती की कोई हत्या कर दे तो क्या पीडीपी वाले उसकी भी रिहाई चाहेंगे? और यही सवाल तमिलों के लिए भी कि क्या जयललिता* या करुणानिधि* के संभावित हत्यारे के प्रति भी उनके मन में यही दया की भावना होगी?
मैं जानता हूँ, इन सबके जवाब में मुझे या तो भद्दी गाली मिलेगी या मौन। मैं यह भी जानता हूँ कि मौक़ा आने पर अपने प्रिय नेता के हत्यारों को माफ़ी देना तो दूर, वे उससे जुड़े समुदाय तक को नहीं बख़्शेंगे। इंदिरा गाँधी* की हत्या के मामले में हम देख चुके हैं कि सिखों के साथ तब कैसा सलूक हुआ था। यह माफ़ी और दया का मामला तभी तक ठीक लगता है, जब तक कि अपने पर नहीं बीतती। जब अपने किसी की जान छीन ली जाती है, तभी पता चलता है कि क़ातिल की गोली कितनी बेरहम होती है और ऐसे बेरहम व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकार का रहम बरतना कितना मुश्किल होता है।
अगर क़ातिल को माफ़ी देने का हक़ किसी को है तो उसी को जिसने इस हत्या के कारण सबसे ज़्यादा खोया है। और वह भी तब जब क़ातिल को अपने किए का पछतावा हो और मक़तूल का परिवार मन से उसे माफ़ करने को तैयार हो। स्टेन्स के परिवार ने दारा सिंह को माफ़ कर दिया लेकिन दारा सिंह को अपने किए का कितना पछतावा है, यह हम नहीं कह सकते। अपनी याचिका में उसने लिखा है कि उसे अपने किए का पछतावा है और जवानी के जोश में उसने वह घृणित काम किया।
लेकिन जो वकील विष्णु शंकर जैन उसकी यह याचिका लेकर सुप्रीम कोर्ट में गए हैं, वे बड़े जोश-ओ-ख़रोश से हिंदुत्ववादियों की तरफ़ से ज्ञानवापी और मथुरा में मंदिर-मस्जिद के मामले लड़ रहे हैं। इससे हम समझ सकते हैं कि दारा सिंह की आस्था आज भी किन लोगों और किन मुद्दों के साथ है। यही बात बलवंत सिंह राजोआना के साथ है। न बलवंत को अपने किए का पछतावा है, न अफ़ज़ल गुरु* को।
और अगर इसके बाद भी कोई किसी क़ातिल के लिए माफ़ी की माँग करता है तो उससे यही सवाल पूछा जाना चाहिए – कल तुम्हारे बाप या भाई या बीवी या शौहर या बेटे या बेटी को कोई मार देगा तो क्या तुम उसके लिए माफ़ी की माँग कर सकोगे?
यह लेख 28 मार्च 2012 को नवभारत टाइम्स के एकला चलो ब्लॉग सेक्शन में ‘अपने बाप के हत्यारे को माफ़ कर सकोगे?‘ के शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। यह लेख उसी का संशोधित रूप है। लेख में कई ऐसे लोगों का ज़िक्र आया है जो अब इस दुनिया में नहीं रहे। लेकिन उनका नाम हटाया नहीं गया है ताकि राजनीतिक-धार्मिक कारणों से की गई हत्याओं के दोषियों के लिए माफ़ी का मुद्दा किसी एक व्यक्ति या घटना तक सीमित न रहे।