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आलिम सर की हिंदी क्लास शुद्ध-अशुद्ध

121. क्षति जो पूरी न हो सके, अपूर्णीय या अपूरणीय?

कोविड 19 के कारण कई परिवारों ने स्वजनों को खोया है और इस कारण उन्हें ….. क्षति हुई है। इस वाक्य में रिक्त स्थान पर क्या लिखा जाएगा – 1.अपूर्णीय या 2.अपूरणीय? जब मैंने यही सवाल फ़ेसबुक पर पूछा तो 32% लोगों ने कहा – पूर्णीय जबकि 68% लोगों के अनुसार पूरणीय होना चाहिए। ऊपर शब्दकोश से ली गई तस्वीर देखकर आप समझ गए होंगे कि अपूरणीय ही सही है। मगर क्यों? क्यों अपूर्णीय ग़लत है? जानने के लिए आगे पढ़ें।

आगे की पंक्तियों में हम यही पता करेंगे मगर अपूर्णीय और अपूरणीय के आधार पर नहीं बल्कि पूर्णीय और पूरणीय के आधार पर। कारण, मूल शब्द यही हैं जिनके आगे ‘अ’ उपसर्ग लगा है। अगर पूर्णीय-पूरणीय के बीच हार-जीत का फ़ैसला हो गया तो अपूर्णीय और अपूरणीय का भी नतीजा निकल आएगा।

आगे बढ़ने से पहले हम एक छोटी-सी क्लास इसपर कर लें कि शब्द कैसे बनते हैं और इसमें धातु की क्या भूमिका होती है। धातु को समझाने के लिए मैं अंग्रेज़ी का सहारा लूँगा। अंग्रेज़ी का शब्द लें – Act। यह तो हुआ धातु (root)। इसी Act के बाद -or, -ing और -tion प्रत्यय लगाकर कई तरह के शब्द बनते हैं Actor, Acting, Action आदि जिनका अलग-अलग मतलब के साथ इस्तेमाल होता है। कई बार इन शब्दों के आगे-पीछे भी उपसर्ग (prefix) और प्रत्यय (suffix) लगाकर और नए शब्द बनते हैं जैसे Action से पहले in लगा तो Inaction और Action के बाद -able लगाया तो Actionable।

ख़ैर, हमें धातु के बारे में समझना था और मुझे उम्मीद है कि आप धातु (root) समझ गए होंगे। धातु क्रियाओं का वह मूल रूप जिसमें प्रत्यय जुड़ने से नए-नए शब्द बनते हैं।

चूँकि हम जिस शब्द पर चर्चा कर रहे हैं, वह संस्कृत से आया है इसलिए आगे की चर्चा हमें संस्कृत के धातुओं और उनसे बनने वाले शब्दों पर केंद्रित करनी होगी। लेकिन घबराइए मत, संस्कृत एक कठिन भाषा भले ही प्रतीत हो, मैंने अपनी बात को मैंने बहुत ही सहज-सरल तरीक़े से समझाने की कोशिश की है।

पूर्णीय/पूरणीय पर आगे बढ़ने से पहले हम एक अन्य सुपरिचित शब्द लेते हैं – पूजा जो पूज् धातु से बना है जिसका अर्थ है किसी का आदर करना, आराधना करना, श्रद्धा करना आदि। इसी पूज् से पूजा, पूजन, पूजक, पूज्य, पूजनीय आदि शब्द बने हैं। इसी पूजा से हिंदी में पुजारी बना हैं (देखें चित्र)।

ऊपर के शब्दों में पूज्य और पूजनीय पर ग़ौर करें। दोनों का अर्थ है पूजा करने योग्य। हम हिंदी वाले समझते हैं (कम-से-कम मैं तो कुछ साल पहले तक यही समझता था) कि पूजन में -ईय प्रत्यय लगने से पूजनीय बनता है और यहीं हम धोखा खा जाते हैं। पूजन में -ईय जुड़ने से पूजनीय नहीं बनता। पूज् धातु के साथ ‘अनीय’ लगने से पूजनीय बनता है – पूज्+अनीय=पूजनीय। धातु में ‘अनीय’ बनकर जुड़ने वाले इस प्रत्यय को संस्कृत व्याकरण में अनीयर् प्रत्यय कहते हैं मगर आप आख़िरी र् के बारे में भूल जाएँ, अनीय ही याद रखें।

इसी तरह पूज् धातु के साथ ‘य’ जुड़ने से पूज्य बनता है – पूज्+य=पूज्य। इसे संस्कृत में ण्यत् प्रत्यय कहते हैं। मगर यहाँ भी ण् और त् को इग्नोर करें, केवल ‘य’ पर ध्यान दें जो पूज् में लगा है।

संस्कृत में जहाँ भी ‘चाहिए’ या ‘योग्य’ का भाव पैदा करने के लिए कोई शब्द बनाना होता है, वहाँ संबद्ध धातु में ये दोनों प्रत्यय लगते हैं – अनीय (अनीयर्) और य (ण्यत्)। यही काम दो और प्रत्यय करते हैं – यत् और क्यप् प्रत्यय (दोनों में ही आख़िर में ‘य’ जुड़ता है) लेकिन आज की चर्चा में उनके बारे में बात करना विषयांतर कर देगा।

अब हम आते हैं अपने शब्द पर। मसला है कि पूर्णीय/पूरणीय शब्द पूर्ण से बना है या पूरण से। अगर मैं शब्दों के निर्माण में धातुओं की भूमिका को समझाने में सफल रहा हूँ तो आप ख़ुद ही कह उठेंगे कि किसी से नहीं क्योंकि जो भी शब्द बनेगा, वह बनेगा धातु से और न ‘पूर्ण’ धातु है, न ‘पूरण’। धातु है पूर् जिससे ये दोनों बने हैं – पूर्ण भी और पूरण भी (देखें चित्र)।

आप ऊपर के चित्र में देख सकते हैं कि पूर् धातु का अर्थ है भरना। इस पूर् में हम (भरे जाने) योग्य का भाव डालने के लिए अनीय (अनीयर्) और य (ण्यत्) प्रत्यय जोड़ेंगे जैसा कि पूज्य और पूजनीय के मामले में किया था। नतीजतन ये दो शब्द बनेंगे।

  1. ’अनीय’ जोड़ेंगे तो बनेगा – पूर्+अनीय=पूरणीय
  2. ’य’ जोड़ेंगे तो बनेगा – पूर्+य=पूर्य (पूर्य्य)।

दोनों का अर्थ होगा – भरे जाने योग्य।

आपमें से कुछ साथी सवाल कर सकते हैं कि पूर् के साथ अनीय जुड़ने पर तो पूरनीय बनना चाहिए, पूरणीय क्यों बन रहा है। इसका जवाब यह कि जब संस्कृत के किसी शब्द में ‘र्’ हो तो ‘न्’ ‘ण्’ में बदल जाता है। (उदाहरण – कृष्ण, भरण, कारण आदि)। पूज् में र् नहीं था तो पूजनीय बना, पूर् में र् है इसलिए पूरणीय बना। इसी तरह रम् में र है, इसलिए उससे रमणीय होगा, रमनीय नहीं।

दूसरा शब्द पूर्य हिंदी में इस्तेमाल नहीं होता। इसका एक रूप पूर्य्य भी है।

अपनी बात को और स्पष्ट करने के लिए मैं नीचे कुछ शब्दों की सूची दे रहा हूँ जो इसी विधि से बने हैं।

धातु+य (ण्यत् प्रत्यय)धातु+अनीय (ण्यत् प्रत्यय)दोनों का अर्थ
कम्+य=काम्यकम्+अनीय=कमनीयकामना करने योग्य
नम्+य=नम्यनम्+अनीय=नमनीयनमन करने योग्य
पठ्+य=पाठ्यपठ्+अनीय=पठनीयपठन करने योग्य
रम्+य=रम्यरम्+अनीय=रमणीयरमण करने योग्य
मान्+य=मान्यमान्+अनीय=माननीयसम्मान करने योग्य
भुज्+य=भोज्यभुज्+अनीय=भोजनीयभोजन करने योग्य

ऊपर आपने देखा होगा कि कम् और पठ् में ‘य’ जुड़ने से काम्य और पाठ्य हो गया है। इसी तरह भुज् में ‘य’ जुड़ने से भोज्य हो गया है। यह ण्यत् प्रत्यय के नियम के तहत हुआ है जिसमें धातु के शुरुआती ‘अ’ का ‘आ’ और ‘उ’ का ‘ओ’ हो जाता है। इसे दीर्घीकरण कहते हैं। लेकिन फिर सवाल यह कि नम् का नाम्य और रम् का राम्य क्यों नहीं हुआ। इसका कारण फ़िलहाल मुझे मालूम नहीं। या तो इनमें कोई और नियम लगा है या फिर ये अपवाद हैं। संस्कृत के बारे में मेरी जानकारी शून्य से बस थोड़ी अधिक होगी। यदि भविष्य में इस विषय पर पढ़ते हुए आवश्यक जानकारी मिली और आने वाले दिनों में ऐसा ही कोई संदर्भ फिर से उठा तो आपको बताऊँगा। हाँ, यदि आप इसका कारण जानते हैं तो नीचे कॉमेंट में बता दें। मैं और बाक़ी साथी आपके आभारी रहेंगे।

हो सकता है, अभी भी कुछ साथी मेरे तर्क से सहमत नहीं हो पा रहे हों और सोच रहे हों कि जब राष्ट्रीय, देशीय, अम्लीय, तटीय, दलीय, संघीय आदि शब्द बन सकते हैं तो पूर्ण से पूर्णीय और उससे अपूर्णीय क्यों नहीं बन सकता।

कारण दो हैं।

  1. ऊपर बताए गए शब्दों में राष्ट्र, देश, अम्ल, तट, दल, संघ आदि के साथ ईय प्रत्यय लगा है और नए शब्द बने हैं। ये सभी संज्ञाएँ हैं जबकि ‘पूर्ण’ संज्ञा नहीं, विशेषण है।
  2. ईय प्रत्यय लगने से जो नए शब्द बनते हैं, उनका अर्थ होता है (संज्ञा) का, (संज्ञा) वाला। मसलन राष्ट्रीय यानी राष्ट्र का या राष्ट्र से जुड़ा, अम्लीय मतलब अम्ल (के गुण) वाला। लेकिन पूर्ण में ईय प्रत्यय लगाकर पूर्णीय बनाएँगे तो उसका अर्थ होगा पूर्ण का, पूर्ण वाला जबकि हम उसका जो अर्थ समझ रहे हैं, वह है पूर्ण होने योग्य, भरे जाने योग्य। ईय प्रत्यय लगने से योग्यता वाला अर्थ नहीं आ सकता। उसके लिए धातु में अनीय (अनीयर्) या य (ण्यत्) प्रत्यय ही लगाना होगा.

हमेशा की तरह इस बार भी संस्कृत के मामले में मैंने अपने भाषामित्र योगेंद्रनाथ मिश्र से विस्तृत परामर्श किया। उनसे चर्चा के बाद ही मैं संस्कृत धातुओं के बारे में कुछ-कुछ समझ पाया और इस विषय पर सार्वजनिक चर्चा करने का विश्वास जुटा पाया।

आज हमने अनीयर् प्रत्यय की बात की। इसी प्रत्यय से एक शब्द बना है – शोचनीय (शुच्+अनीय) जिसका अर्थ हम समझते हैं – चिंताजनक। लेकिन संस्कृत में इसका अर्थ कुछ और है। क्या है इसका अर्थ, यदि जानने में रुचि हो और इतना लंबा पोस्ट पढ़ने के बाद थक न गए हों तो आगे दिए गए लिंक पर टैप या क्लिक करें।

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2 replies on “121. क्षति जो पूरी न हो सके, अपूर्णीय या अपूरणीय?”

निष्कर्ष यह है शब्द ‘ अपूरणीय ‘ अधिक सही है।

शब्द ‘ अपूर्णीय ‘ को सही नहीं माना जा सकता।

जी हाँ। पूरणीय/अपूरणीय ही सही है, पूर्णीय/अपूर्णीय ग़लत प्रयोग है। पूर् धातु में अनीय जुड़ने से (पूर्+अनीय) पूरणीय बना है।

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