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108. स्वामी से बना क्या – साँई, साईं या साँईं?

साँई बाबा, साईं बाबा, साँईं बाबा या साई बाबा? जब मैंने फ़ेसबुक पर एक पोल किया तो 63% वोट दूसरे विकल्प पर पड़े यानी साईं बाबा पर और वे सही हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बाक़ी ग़लत हैं। जिन 12% लोगों ने साँई को सही बताया, वे भी सही हैं। यही नहीं, जिन 20% लोगों ने तीसरे विकल्प यानी साँईं को सही ठहराया था, वे भी मेरे हिसाब से ग़लत नहीं हैं। ये तीनों क्यों सही हैं, यह जानने के लिए आगे पढ़ें।

पहले हम यह जान लें कि साईं क्यों सही है। पहला कारण तो यह कि शब्दकोश इसे सही बताते हैं (देखें चित्र)।लेकिन शब्दकोश के अलावा भी साईं को सही ठहराने का हमारे पास एक कारण है जो साईं शब्द की जन्म प्रक्रिया से जुड़ा है। साईं शब्द स्वामी से बना है (देखें चित्र)। स्वामी सरलीकरण के क्रम में पहले सामी बना। फिर सामी की ‘म्’ ध्वनि घिस गई, बच गया साई लेकिन ‘म्’ ग़ायब होने से पहले अपनी ध्वनि का कुछ हिस्सा छोड़ गया जिसके कारण ‘ई’ स्वर अनुनासिक हो गया यानी ‘ईं’ बन गया। परिवर्तित शब्द बना साईं।

यह प्रक्रिया हम हिंदी के और भी कई शब्दों में देखते हैं जहाँ नासिक्य ध्वनियाँ (ङ्, ञ्, ण्, न् और म्) जब किसी शब्द से हटती हैं तो वे अपने आधार स्वर को या/और अपने आसपास के स्वर को अनुनासिक बना देती हैं। नीचे इसके कुछ उदाहरण देखते हैं।

  • कुमार से कुँवर
  • चामर से चँवर
  • भ्रमर से भँवर
  • कमल से कँवल
  • श्यामल से साँवल/साँवला
  • जमाई से जँवाई
  • ग्राम से गाँव

लेकिन साईं और कुँवर, चँवर, गाँव आदि मामलों में एक बड़ा अंतर है। अंतर यह कि सामी से जब ‘म्’ हटा तो अनुनासिक ध्वनि ‘ई’ पर आई यानी उसी स्वर पर जिस स्वर के साथ ‘म्’ जुड़ा हुआ था। परंतु कुमार, चामर या ग्राम के मामलों में जब ‘म्’ हटा तो अनुनासिक ध्वनि ‘म्’ के साथ जुड़े स्वर यानी ‘व’ पर न आकर उससे पहले वाले स्वर पर आई। बने कुँवर, चँवर और गाँव न कि कुवँर, चवँर और गावँ।

यह पहेली मुझे सालों से परेशान कर रही थी कि साईं और दूसरे शब्दों में यह अंतर क्यों है और मेरे पास इसका कोई हल नहीं था। इसीलिए मैंने यह पोल पहले नहीं किया। लेकिन इधर मेरे भाषामित्र योगेंद्रनाथ मिश्र ने, जो अक्सर मेरी दुविधाएँ दूर करते रहते हैं, इस मामले में भी मेरी सहायता की।

योगेंद्र जी के अनुसार कुमार से जो शब्द पहले बना होगा, वह कुवँर ही रहा होगा। इसी तरह जमाई से पहले जवाँई बना होगा। लेकिन आगे जाकर कुवँर कुँवर हो गया और जवाँई जँवाई हो गया। इसी तरह साईं भी आगे जाकर साँई हो गया। अंतर बस यह रहा कि कुवँर और चवँर जैसे शब्द प्रचलन से ग़ायब हो गए जबकि साईं और साँई के मामले में दोनों ही रूप चलते रहे। हिंदी शब्दसागर में साईं के साथ-साथ साँई को भी जगह दी गई है (देखें चित्र)।

अब अगला प्रश्न यह कि क्यों इन शब्दों में अनुनासिक ध्वनि अपना स्थान बदलती है। यानी कुवँर कुँवर क्यों हो जाता है और साईं साँई क्यों बन जाता है। इसकी एक रोचक वजह है। यह वजह जानने के बाद हमें इस प्रश्न का जवाब भी मिल जाएगा कि क्यों मैं तीसरे विकल्प यानी साँईं को भी सही ठहरा रहा हूँ।

दरअसल जो पाँच नासिक्य ध्वनियाँ हैं (ङ्, ञ्, ण्, न् और म्) या अनुनासिक ध्वनियाँ हैं (अँ, आँ, इँ, ईं, उँ, ऊँ, एँ, ऐं, ओं, औं), वे अपने आसपास के स्वरों को भी प्रभावित करती हैं और उनको भी अनुनासिक बना देती हैं। मसलन दुनिया शब्द को लीजिए। दुनिया में ‘नि’ है – न् एक नासिक्य ध्वनि है – और उसके बाद आने वाले ‘या’ में अनुनासिक ध्वनि नहीं है। परंतु आप बोलेंगे तो मुँह से ‘याँ’ ही निकलेगा मानो आप दुनियाँ बोल रहे हैं (बोलकर देखिए)। इसी तरह आम या कान बोलिए। आप ‘आ’ या ‘का’ बोल रहे हैं लेकिन उच्चारण हो रहा होगा आँम और काँन जैसा।

इसी तरह आरंभ में जब लोगों ने कुवँर और जवाँई बोलना शुरू किया होगा तो कुछ लोगों ने पाया होगा कि ‘कु’ और ‘ज’ का उच्चारण तो ‘कुँ’ और ‘जँ’ जैसा हो रहा है। इसी के आधार पर कुछ लोगों ने ‘कुँ’ और ‘जँ’ लिखना शुरू कर दिया। आगे चलकर यही स्पेलिंग प्रचलन में आ गई और लोग कुँवर और जँवाई ही लिखने लगे। 

यही बात साईं के साथ भी हुई। साईं बोलने पर ‘ईं’ में मौजूद अनुनासिक ध्वनि का असर ‘सा’ पर भी पड़ता है और उसका उच्चारण ‘साँ’ जैसा होने लगा। इसीलिए कुछ लोग साँई लिखने लगे और साँई भी प्रचलन में आ गया।

वैसे सच बात यह है कि साईं बोलें या साँई, मुँह से जो उच्चारण निकलता है, वह है साँईं यानी दोनों में अनुनासिक ध्वनि (बोलकर देखिए)। यही कारण है कि हमारे पोल में 20% लोगों ने साँईं को सही बताया है। निश्चित रूप से उन्होंने अपनी आँखों से ज़्यादा अपनी ज़ुबान और अपने कानों पर भरोसा किया है जिसने हमेशा साँईं ही बोला और साँईं ही सुना है।

साईं की तरह का एक और शब्द है नींव। यह संस्कृत के नेमि शब्द से बना है। नेमि से प्राकृत में हुआ नेइँ (म् की ध्वनि लुप्त हुई और इ स्वर अनुनासिक हुआ)। आगे चलकर नेइँ बदल गया नीवँ में और नीवँ से बना नींव – व की अनुनासिक ध्वनि उससे पहले के स्वर ‘नी’ पर आ गई। शब्दसागर में आपको नीवँ मिलेगा (देखें चित्र) लेकिन आज के शब्दकोशों ने नीवँ को त्यागकर नींव को ही स्वीकार कर लिया है (देखें चित्र)।

हिंदी शब्दसागर में नीवँ।
राजपाल के शब्दकोश में नींव।

यही बात पावँ और दावँ के मामले में भी है। कुछ पारंपरिक लोगों और संस्थानों को छोड़ सब दाँव और पाँव ही लिखते-बोलते हैं।

नीवँ/नींव, दावँ/दाँव और पावँ/पाँव के मामले में पिछले शब्दरूप प्रचलन से हट गए लेकिन साईं/साँई के मामले में दोनों रूप चलते रहे। इसका एक कारण यह हो सकता है कि हिंदी की प्रकृति के अनुसार नीवँ, पावँ और दावँ बोलना लगभग असंभव है क्योंकि ये अकारांत हैं और अधिकतर अकारांत शब्दों में अंतिम ‘अ’ स्वर का लोप हो जाता है – मन को मन् बोला जाता है, कमल को कमल् बोला जाता है जबकि ‘न’ और ‘ल’ दोनों में ‘अ’ स्वर है। नीवँ, पावँ और दावँ में भी आख़िरी ध्वनि ‘व’ की है जिसमें ‘अ’ स्वर मिला हुआ है मगर इन तीनों ही शब्दों के अंत में मौजूद ‘अ’ स्वर का लोप हो गया है इसलिए जब स्वर ही नहीं बचा तो ‘व्’ की स्वरमुक्त ध्वनि अनुनासिक होगी ही कैसे?

साईं में यह मामला नहीं है क्योंकि उसके अंत में ‘अ’ नहीं, ‘ई’ के रूप में एक दीर्घ स्वर है जिसके मूल या अनुनासिक रूप बोलने में कोई मुश्किल नहीं है। इसलिए लिखित में साँई के साथ-साथ साईं का रूप भी बना रहा – भले ही बोलचाल में सर्वत्र साँईं उच्चरित होता रहा।

अनुनासिक ध्वनि किस तरह आसपास के स्वरों को प्रभावित करती है, इसका बहुत अच्छा उदाहरण आपको साहिर लुधियानवी की लिखी इस मशहूर नज़्म में मिलेगा जिसके अंतिम अंतरे में ‘यूँही’ का रदीफ़ के तौर पर इस्तेमाल हुआ है। नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक या टैप करके ध्यान से सुनिए, मुकेश यूँ-ही बोल रहे हैं या यूँ-हीं। 

वैसे आप कह सकते हैं कि मुकेश तो नाक से गाने के लिए ही जाने जाते थे, सो वे तो ‘ही’ को ‘हीं’ बोलेंगे ही। तो फिर मुहम्मद रफ़ी का यह गाना सुन लीजिए – ओ दुनिया के रखवाले… देखिए, वे दुनिया बोल रहे हैं या दुनियाँ! 

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