आपका या आपके मित्रों, परिचितों या रिश्तेदारों में किसी-न-किसी का नाम अजय होगा। क्या आपने कभी सोचा है कि अजय का अर्थ क्या है? अजय के कई अर्थ हैं और उनमें से एक है पराजय यानी हार। आज की चर्चा इसी शब्द पर और इसके अर्थों पर। रुचि हो तो पढ़ें।
अजय संस्कृत का शब्द है और संस्कृत के शब्दकोशों के अनुसार अजय के दो बिल्कुल ही विपरीत अर्थ हैं। विशेषण के तौर पर इसका अर्थ है – जिसपर विजय न पाई जा सके या जिसको हराया नहीं जा सके। संज्ञा (अजयः) के रूप में इसका अर्थ है – पराजय (देखें चित्र)।
हिंदी के अधिकतर शब्दकोशों में भी अजय के ये दोनों ही अर्थ दिखाए गए हैं। पहले अर्थ में पराजय और दूसरे अर्थ में वह जिसे जीता न जा सके (देखें चित्र)।
संस्कृत में अजय का दोनों अर्थों में इस्तेमाल होता होगा लेकिन हिंदी में किसी के नाम के अलावा ‘अजय’ का प्रयोग मैंने नहीं देखा। पराजय के अर्थ में तो क़तई नहीं होता; जिसे हराया न जा सके, इस अर्थ में भी अजय के बजाय अजेय का प्रयोग होता है हालाँकि तुलसीदास ने रामचरितमानस की निम्न चौपाई में इसी अर्थ में अजय का प्रयोग किया है।
भावार्थ : श्री रघुनाथ जी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी अँगूठी बनाई नहीं जा सकती। सीता जी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमान जीमधुर वचन बोले -।
तुलसीदास ने अजय का प्रयोग किया है लेकिन कहीं वह अजेय का बिगड़ा हुआ रूप तो नहीं है? मेरा ख़ुद का यही मानना था और शायद और भी कई लोग समझते हों कि अजय अजेय का ही बिगड़ा हुआ रूप है।
कारण यह संस्कृत की जानकारी न रखने वाले मेरे जैसे लोग भी पेय (जो पिया जा सके), गेय (जो गाया जा सके), देय (जो दिया जा सके) और धेय (जो धारण किया जा सके) जैसे शब्दों को देखते हुए यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जो जीता जा सके, वह जेय होगा और जिसे जीता न जा सके, वह अजेय होगा, अजय नहीं होगा।
अब जिसे जीता न जा सके, इस अर्थ में अजय कैसे बना, इसकी जानकारी संस्कृत के जानकार ही दे सकते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि संस्कृत कोश में अजय, अजेय और अजय्य – ये तीनों शब्द दिए गए हैं और तीनों का एक ही अर्थ है जिसपर विजय न पाई जा सके (देखें चित्र)।
आपने देखा कि अजय, अजय्य और अजेय – इन तीनों का एक ही अर्थ है – जो जीता न जा सके लेकिन अजय शब्द बाक़ी दोनों – अजेय और अजय्य – से इस मायने में भिन्न है कि उसका एक और अर्थ भी है – पराजय।
जय के आगे नकारसूचक ‘अ’ लगाकर अजय शब्द बना है जिसका अर्थ है जय का अभाव यानी पराजय। नकारसूचक अ (व्यंजन से पहले) या अन् (स्वर से पहले) लगाकर संस्कृत और हिंदी में अनेक शब्द बने हैं जिनमें कुछ विशेषण और कुछ संज्ञा के रूप में व्यवहृत होते हैं जैसे अजर, अमर, अवश, अगम, अचल, अटल, अभय, अनिश्चय, अनर्थ, अन्याय, अधीर आदि।
इसलिए अजय का अर्थ पराजय होना बहुत ही स्वाभाविक है भले ही हमें यह अर्थ अजीब लगे। गीता के प्रसिद्ध श्लोक की निम्न पंक्ति में जो जयाजयौ है, वह जीत के अर्थ वाले ‘जय’ और पराजय के अर्थ वाले ‘अजय’ से मिलकर ही बना है – जय+अजय=जयाजय।
भावार्थ : जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान करके फिर युद्ध में लग जा। इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।