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268. सही क्या – मेढक, मेंढक, मेढ़क या मेंडक?

कूपमंडूक की कथा तो आप जानते ही होंगे। इसमें एक जानवर की कहानी के बहाने ऐसे लोगों पर व्यंग्य किया गया है जो अपने आसपास के जगत को ही ध्रुवसत्य और सर्वश्रेष्ठ समझते हैं। इस कथा में जो मंडूक शब्द आया है, उसके हिंदी में अलग-अलग रूप प्रचलित हैं। कोई मेढक कहता है तो कोई मेंढक। कुछ लोग मेंडक भी कहते हैं और कुछ मेढ़क भी (देखें चित्र)। यह चर्चा इसी पर है कि मंडूक के लिए सही शब्द कौनसा है। रुचि हो तो पढ़ें।

मेंढक, मेढक और मेंडक में सही क्या है, इसका पता लगाने से पहले मैंने यह जानने की कोशिश की कि हिंदी समाज में कौनसा शब्द अधिक चलता है. दो अलग-अलग मंचों पर किए गए पोल्ज़ में फ़ैसला एक जैसा आया। दोनों पोल्ज़ में 70% से भी अधिक लोगों ने मेंढक के पक्ष में वोट दिया जबकि बाक़ी ने मेढ़क या मेंडक को सही बताया।

सही क्या है, इसका फ़ैसला एक पल में हो सकता है किसी भी अच्छे शब्दकोश के सहारे। लेकिन शब्दकोश जिसको सही बता रहे हैं, उससे शायद आप सहमत न हों। कारण, सारे अच्छे शब्दकोश मेढक को सही बताते हैं, मेंढक को नहीं। वैसे आपकी तरह मुझे भी ऐसा लगता है कि मेंढक ग़लत नहीं है।

ऐसा मुझे इसलिए लगता है कि यह शब्द संस्कृत के जिस मंडूक (मण्डूक) शब्द से बना है, उसमें अनुस्वार के रूप में ‘ण्‘ की ध्वनि है। और जिन शब्दों में अनुस्वार की ध्वनि होती है, उनके पैटर्न को ध्यान में रखें तो तो मंडूक से मेंढक ही बनना चाहिए, मेढक नहीं।

पैटर्न क्या है? पैटर्न यह है कि हिंदी वर्णमाला के जो पाँच नासिक्य व्यंजन हैं – , , , और – वे अगर किसी संस्कृत शब्द में होते हैं और वह शब्द अपना रूप बदलकर हिंदी में आता है तो उस तद्भव हिंदी शब्द की प्रथम ध्वनि अनुनासिक हो जाती है। अनुनासिक का मतलब उसमें अँ की ध्वनि आ जाती है।

संपूर्ण परिवर्तन इस प्रकार होता है।

1. पंचमाक्षर वाली ध्वनि (यानी ङ्, ञ्, ण्, न् और म्) की ध्वनि ग़ायब हो जाती है।
2. पंचमाक्षर वाली ध्वनि से पहले वाली ध्वनि दीर्घ हो जाती है (अ का आ, उ का ऊ आदि)।
3. पंचमाक्षर से पूर्व की ध्वनि अनुनासिक हो जाती है जिसको दर्शाने के लिए उसमें चंद्रबिंदु लगाया जाता है।

अनुनासिक का मतलब उसी ध्वनि से है जो हम गाय की बाँ, बकरी की में-में, बिल्ली की म्याऊँ और कुत्ते की भौं-भौं में सुन पाते हैं – यानी अँ, आँ, इँ, ईं, उँ, ऊँ, एँ, ऐं, ओं औं।

आपने देखा होगा कि मैंने इन स्वरों के ऊपर दो तरह के चिह्न लगाए हैं – बिंदु और चंद्रबिंदु। लेकिन चिह्न भले दो हों, ध्वनि एक ही है। दरअसल जिन स्वरों की मात्राएँ शिरोरेखा के ऊपर भी जाती हैं, वहाँ चंद्रबिंदु के लिए पर्याप्त जगह बचती नहीं है इसीलिए वहाँ बिंदी से ही काम चला लिया जाता है लेकिन उच्चारण वहाँ भी अनुनासिक ही होता है। जैसे ‘में’ में चंद्रबिंदु की जगह बिंदी लगी है मगर उच्चारण ‘एँ’ जैसा ही है।

चलिए, पहले अनुस्वार के अनुनासिक में बदलने की इस प्रवृत्ति के कुछ उदाहरण देख लेते हैं ताकि आप समझ सकें कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ।
कंपन (कम्पन) > काँपना
वंटन (वण्टन) > बाँटना
दंत (दन्त) > दाँत
चंद्र (चन्द्र) > चाँद
कंटक (कण्टक) > काँटा आदि।

आपने देखा, इन सभी में पंचमाक्षर ध्वनि (म्, ण्, न्) ग़ायब हो गई और उस ध्वनि से पहले वाला वर्ण (यानी जिसपर अनुस्वार लगा है), वह दीर्घ और अनुनासिक हो गई – कं का काँ, दं का दाँ आदि। फलतः उसपर चंद्रबिंदु आ गया।

अब हम आते हैं मंडूक (मण्डूक) पर। इसमें भी एक नासिक्य ध्वनि (ण्) है। ऊपर के उदाहरणों को देखते हुए तत्सम मण्डूक से तद्भव मेढक/मेंढक बनने के क्रम में इसकी नासिक्य ध्वनि (ण्) का लोप हो जाना चाहिए और उसके बदले उससे पहले वाले व्यंजन (म) को अनुनासिक हो जाना चाहिए। इस हिसाब से (कण्टक > काँटा की तरह) मण्डूक से मेंढक ही होना चाहिए, न कि मेढक।

लेकिन हम केवल अनुमान के आधार पर कोई निर्णय नहीं लेंगे। एक-दो ऐसे और शब्द लेते हैं और फिर फ़ैसला करते हैं। मंडूक से बहुत ज़्यादा मिलते-जुलते दो शब्द आ रहे हैं मेरे ज़ेहन में – मुंडन (मुण्डन) और मुंडिका (मुण्डिका)।

पहले देखते हैं मुंडन (मुण्डन) में क्या परिवर्तन हुआ? इसकी ण् ध्वनि ग़ायब हुई और उससे पहले वाला वर्ण ‘मु’ दीर्घ होकर ‘मू’ हो गया और उसके साथ अनुनासिक ध्वनि जुड़ गई। शब्द बन गया मूँड़ना। इसी तरह मुंडिका (मुण्डिका) में भी ‘मु’ दीर्घ होकर ‘मू’ हो गया, उसके सिर पर अनुनासिक ध्वनि के रूप में चंद्रबिंदु लग गया और शब्द बन गया – मूँड़ी।

अब जब मुंडन (मुण्डन) से मूँड़ना (मुं का मूँ) और मुंडिका (मुण्डिका) से मूँड़ी (मुं का मूँ) हो सकता है तो मंडूक (मण्डूक) से मे का में/मेँ यानी मेंढक क्यों नहीं होना चाहिए?

मेरी समझ से इसके इन तीन में से कोई एक कारण हो सकता है।

1. मेंढक संस्कृत का ही एक और शब्द है जिसका अर्थ है मेढ़ा या नर भेड़ (देखें चित्र)। इसलिए उससे अलग करने के लिए मेंढक के बजाय मेढक चला।

2. मेढक और मेंढक दोनों भले अलग-अलग तरह से लिखे जाते हों मगर उनका उच्चारण एक ही है। मैंने ऊपर अनुनासिक (नाक जैसी) ध्वनि की बात की जिसके कारण कुछ वर्णों के उच्चारण में अंतर आ जाता है (जैसे का और काँ) मगर ‘म’ जो कि ख़ुद ही नासिक्य ध्वनि है (यानी जिसको बोलने पर नाक से हवा निकलती है), उसे और कितना नासिक्य किया जा सकता है?

कहने का अर्थ यह कि ङ, ञ, ण, न, म आदि तो पहले ही नाक से बोले जाते हैं इसलिए उनके साथ आप एक और अनुनासिक ध्वनि जोड़ दें तो भी कुछ अंतर नहीं पड़ेगा। मा बोलें या माँ, उच्चारण एक है, नोक बोलें या नोंक, उच्चारण एक ही है। शायद इसीलिए मेंढक से बिंदी हट गई हो और मेढक चल पड़ा हो। हालाँकि हमारे पोल से तो लगता है कि मेंढक ही इन दिनों ज़्यादा चला हुआ है।

3. संस्कृत के शब्द जो हिंदी में आए हैं, वे सीधे संस्कृत से नहीं आए। अधिकतर शब्द प्राकृत और अपभ्रंश के रास्ते आए हैं। सो हो सकता है मंडूक से मेढक के बीच इस शब्द ने और रूप धारण किए हों और उन्हीं से इसने अपना अंतिम रूप हासिल किया हो। ग़ौर करने की बात है कि जहाँ संस्कृत के अधिकतर शब्दों में ‘ड’ का परिवर्तन ‘ड’ या ‘ड़’ में हुआ है (मुंडन से मूँडना/मूँड़ना, उड्डयन से उड़ान आदि), वहीं मंडूक से मेढक/मेंढक में परिवर्तन के दौरान ‘‘ का ‘‘ हो गया है।

लेकिन जाते-जाते स्पष्ट कर दूँ कि मैं जिस मेंढक की बात कर रहा हूँ, उसका उच्चारण ‘में+ढक’ होगा न कि ‘मेन्+ढक’ (या ‘मेन्+डक’), जैसा कि मैंने कुछ लोगों को बोलते हुए सुना है। हो सकता है, मेंढक के पक्ष में वोट करने वाले कुछ लोग इसकी ध्वनि मेन्ढक समझ रहे हों। ऐसे लोगों के लिए सुझाव है कि आप ‘में’ और ‘ढक’ को पहले अलग-अलग बोलिए (वही ‘में’ जिसका अर्थ अंदर या भीतर है) – में…ढक, में…ढक, में…ढक। दो-तीन बार बोलने के बाद फिर साथ-साथ बोलिए, आप इसकी ध्वनि पहचान लेंगे।

मेढक और मेंढक के अलावा एक और उच्चारण भी चलता है – मेढ़क। हमारे एक पोल में 17% लोगों ने मेढ़क के पक्ष में मतदान किया। हो सकता है, वे मेंढ़क ही बोलते हों।

दरअसल ड- और ढ-युक्त बहुत सारे शब्दों में (बोलने में आसानी के कारण) ड का ड़ और ढ का ढ़ हो गया है जैसे मेढा का मेढ़ा, मूँडना का मूँड़ना, खाँड का खाँड़ आदि। मेढक/मेंढक का मेढ़क/मेंढ़क भी इसी प्रकार हुआ होगा। आप बारी-बारी से बोलिए – मेढकी को ज़ुकाम आया और मेढ़की को ज़ुकाम आया। क्या बोलना आसान लगता है? निश्चित ही मेढ़की बोलना आसान है।

आज हमने देखा कि संस्कृत के मंडूक से हिंदी का मेढक/मेंढक बना है। यह ड और ढ का चक्कर हमें कुछ और शब्दों में भी मिलता है। मसलन ठंडा सही है या ठंढा? इसपर पहले चर्चा हो चुकी है। यदि आपको भी इस शब्द पर संदेह है तो यह पोस्ट पढ़ सकते हैं।

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