भारतीय पंचांगों में जो 12 महीने होते हैं, क्या आपको उन सबके नाम और क्रम याद हैं? घबराइए मत, मैं आपसे उन सबके नाम नहीं पूछने जा रहा हूँ, न ही बताने जा रहा हूँ। आज की चर्चा बस एक ख़ास महीने के बारे में है जो श्रावण (सावन) के ठीक बाद आता है। जिस तरह श्रावण हिंदी में सावन हो गया, वैसे ही वह महीना – भाद्रपद – भी बोलने में थोड़ा आसान हो गया। वह आसान नाम क्या है – भादो या भादों।
जब मैंने फ़ेसबुक पर लोगों से यही सवाल पूछा तो क़रीब दो-तिहाई बहुमत (65%) ने ‘भादो’ के पक्ष में मतदान किया। शेष एक-तिहाई (35%) ने ‘भादों’ को सही बताया।
सही क्या है, इसका फ़ैसला यदि शब्दकोशों के आधार पर किया जाए तो निर्णय अल्पमत के पक्ष में जाता है। मेरे पास हिंदी के जो शब्दकोश उपलब्ध हैं, उन सबमें ‘भादों’ ही है, ‘भादो’ किसी में नहीं है। हाँ, कुछ में ‘भादों’ के साथ-साथ ‘भादौं’ भी दिया हुआ है (देखें चित्र)।
इसके उलट हमारे पोल में क़रीब दो-तिहाई ‘भादो’ को सही बता रहे हैं। यदि हमारे पोल को प्रातिनिधिक माना जाए तो यही कहा जाएगा कि कोश ‘भादों’ को सही बताते हैं लेकिन बोलने में ‘भादो’ अधिक प्रचलित है।
और ऐसा भी नहीं है कि ये कुछ इक्का-दुक्का लोग हैं जो ‘भादो’ बोलते हैं। यदि आप ‘मेहबूबा’ फ़िल्म का लोकप्रिय गाना ‘मेरे नैना सावन-भादो, फिर भी मेरा मन प्यासा’ सुनेंगे तो पाएँगे कि किशोर कुमार और लता मंगेशकर दोनों ही ‘भादो’ बोल रहे हैं, न कि ‘भादों’।
इसके उलट फ़िल्मों के नाम में ‘भादों’ ही है चाहे वह 1949 वाली ‘सावन-भादों’ हो या 1970 की रेखा और नवीन निश्चल वाली फ़िल्म (देखें चित्र)।
इससे एक निष्कर्ष यह निकल रहा है कि बोलने में ‘भादो’ चल रहा है लेकिन लिखने में ‘भादों’।
ऐसे में क्या यह उचित होगा कि हम शब्दकोशों के आधार पर ‘भादो’ को ग़लत ठहरा दें?
मेरे विचार से नहीं। और इसके पीछे दो मज़बूत कारण भी हैं। पहला कारण, शब्द के बनने की प्रक्रिया। दूसरा, प्रचलन।
पहले शब्द बनने की प्रक्रिया पर बात की जाए। ‘भादो’ या ‘भादों’ शब्द भाद्रपद के भाद्र से बना है। हिंदी शब्दसागर के अनुसार भाद्र से प्राकृत में ‘भद्दो’ बना और उससे बना ‘भादों’ (देखें चित्र)। अब यहाँ सोचने की बात यह है कि ‘भद्दो’ से ‘भादो’ बनना चाहिए, ‘भादों’ क्यों बनेगा?
ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि सामान्यतः जब किसी शब्द में पंचम वर्ण होता है (ङ, ञ, ण, न या म) तब परिवर्तित शब्द में स्वतः अनुनासिक ध्वनि आ जाती है। जैसे दन्त का दाँत हो जाना, पञ्च का पाँच हो जाना। यदि मूल शब्द में नासिक्य ध्वनि अंत में हो तो भी यह प्रभाव दिखता है। जैसे ग्राम का गाँव बनना, आश्विन का आसों हो जाना। मगर भाद्र या भद्दो में तो ऐसी कोई ध्वनि है ही नहीं, फिर उससे ‘भादो’ ही बनना चाहिए, ‘भादों’ नहीं।
परंतु जब शब्दकोशों में ‘भादों’ लिखा हुआ है तो निश्चित ही पुराने दौर में ‘भादों’ बोला जाता होगा। क्यों बोला जाता होगा, यह समझने के लिए मैंने हिंदी शब्दसागर से वे सारे शब्द खोजे जो ‘ओ’ या ‘ओं’ से समाप्त होते हैं। मुझे मालूम था कि ऐसे शब्द हिंदी में बहुत कम हैं इसलिए इस काम में बहुत ज़्यादा समय नहीं लगा।
मैंने पाया कि ऐसे ओकारांत शब्द जो ‘अव’ से परिवर्तित होकर बने हैं जैसे माधव से माधो, उद्धव से ऊधो, यादव से जादो या भैरव से भैरो, उनके अंत में अनुनासिक ध्वनि नहीं है। लेकिन बाक़ी सारे प्रचलित ओकारांत शब्दों में अनुनासिक ध्वनि मिलती है मसलन परसों, तरसों, नरसों, सरसों।
ध्यान दें कि ये सारे शब्द जिन संस्कृत शब्दों से बने हैं, उनमें से किसी में अंत में पंचम वर्ण अर्थात नासिक्य ध्वनि नहीं है। जैसे परसों परश्वः से और सरसों सर्षपः से बना है। फिर भी ये परसों और तरसों ही बोले जाते हैं, परसो या तरसो नहीं।
तो क्या हिंदी में ओकारांत शब्दों को नाक से बोलने की प्रवृत्ति है और इसी कारण ऐसे सारे शब्द अकारण-सकारण अनुनासिक हो जाते हैं? उदाहरण के तौर पर आप ‘भैरो’ को ले सकते हैं जिसका मैंने ऊपर ज़िक्र किया। उसे भी कई लोग ‘भैरों’ बोलते हैं। जैसे ‘नमकहलाल’ मूवी में अर्जुन सिंह बने अमिताभ बच्चन को सुन लें। वह अपने फ़टॉग्राफ़र दोस्त को सारी मूवी में भैरों ही बोलते हैं। नीचे देखें वह दृश्य जहाँ अमिताभ अपने मित्र को भैरों कहकर बुलाते हैं।
इस अनुनासिक प्रवृत्ति का एक कारण यह हो सकता है कि हिंदी में ऐसे हज़ारों शब्द हैं जो बहुवचन बनने के क्रम में ओंकारांत हो जाते हैं – बहनों, लोगों, शहरों, गाँवों। तो जब हज़ारों की संख्या में ओंकारांत शब्द लोगों की ज़बान पर चढ़े हों तो जिन इक्का-दुक्का शब्दों को स्वभावतः ओंकारांत नहीं होना चाहिए, वे भी वैसे हो जाएँ तो किम् आश्चर्यम्!
ऐसी स्थिति में निष्कर्ष क्या निकालें? क्या ‘भादों’ शब्दकोशों में है, इसलिए उसे सही और ‘भादो’ शब्दकोशों में नहीं है, इसलिए उसे ग़लत ठहरा दिया जाए? इसका जवाब भी शब्दकोशों में ही है। मसलन एक शब्द है ‘कोदो’ जो संस्कृत के कोद्रव से बना है। इसका एक अनुनासिक रूप ‘कोदों’ भी इसी शब्दकोश में है।
जब हिंदी में ‘कोदो’ और ‘कोदों’ दोनों रूप चल सकते हैं, तो ‘भादो’ और ‘भादों’ – ये दोनों रूप क्यों नहीं चल सकते? हो सकता है, भविष्य के कोशकार जो पुराने शब्दकोशों की कार्बन कॉपी करने के बजाय स्वतंत्र रूप से फ़ैसला करने में विश्वास रखते हों, वे प्रचलन के आधार पर अपने शब्दकोशों में ‘भादो’ को भी उसकी उचित जगह दे दें।
ऊपर मैंने तरसों और नरसों का ज़िक्र किया है। कभी इस विषय में चर्चा की थी कि परसों के बाद तरसों आता है या नरसों। रुचि हो तो पढ़ सकते हैं। लिंक आगे दिया हुआ है।
One reply on “225. मेरे नैना सावन-भादो… या सावन-भादों?”
हिंदी का मुझे मालूम नहीं था लेकिन नेपाली में भदौ चलता है ।