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आलिम सर की हिंदी क्लास शुद्ध-अशुद्ध

102. ‘ठंडे-ठंडे’ पानी से नहाएँ या ‘ठंढे-ठंढे’ पानी से?

ठंड या ठंढ – यह सवाल उन लोगों को काफ़ी परेशान करता है जो अक्सर शब्दकोश देखते हैं। कारण यह कि वे बोलते और लिखते तो ठंड हैं लेकिन शब्दकोशों में ठंढ को सही बताया हुआ होता है। आख़िर सही क्या है और क्यों है, जानने के लिए आगे पढ़ें।

फ़ेसबुक पर अपने साप्ताहिक ब्दपोल 102 में मैंने सही-ग़लत नहीं पूछा। मैंने पूछा कि अभी जो मौसम जा रहा है, उसे क्या बोलते हैं। दो विकल्प दिए थे – ठंड और ठंढ। 77% ने कहा – ठंड, शेष 23% ने कहा – ठंढ।

मैं बचपन से ठंड ही बोलता और लिखता आया हूँ, इसीलिए जब कभी किसी शब्दकोश में ठंढ लिखा देखता तो मुझे हैरत होती। मैं चाहते हुए भी ठंढ को नहीं अपना पाया। इसलिए नहीं अपना पाया कि मुझे ठंढ बोलने में दिक़्क़त होती थी और जब बोल नहीं पाता था तो लिखता कैसे?

तब नहीं पता था कि ठंढ बोलने में मुझे क्यों समस्या होती है लेकिन आज समझ पाया हूँ और यह भी समझ पाया हूँ कि क्यों (कुछ शब्दकोशों के अनुसार) मूल शब्द ठंढ होने के बावजूद 80% लोग ठंड ही बोल रहे हैं। लेकिन उसके बारे में आगे बात करेंगे। पहले यह देख लें कि कुछ शब्दकोश ठंढ को क्यों सही बता रहे हैं।

ठंढ को सही बताने वाला एक शब्दकोश है नागरी प्रचारिणी सभा का हिंदी शब्दसागर। इसके अनुसार ठंढ शब्द ठंढा से बना है जो संस्कृत के स्तब्ध का बहु-परिवर्तित रूप है। कोश के अनुसार यह परिवर्तन इस तरह हुआ – स्तब्ध>तद्ध>थडु>ठड्ड>ठंढा>ठंढ (देखें चित्र)।

यानी (कोशकार के अनुसार) स्तब्ध का ‘ध’ प्राकृत में आकर ‘ड’ में बदला जो हिंदी में आकर ‘ढ’ में बदल गया। शब्द हो गया ठंढा>ठंढ। ‘ड’ के ‘ढ’ में बदलने का उदाहरण हम मेंढक में भी देखते हैं जो संस्कृत के मंडूक से बना है – मण्डूक>मेंढक।

मगर यहाँ एक सवाल यह पूछा जा सकता है कि ठंढ और मेंढक – इन दोनों शब्दों में ‘ड’ ‘ढ’ में बदला है परंतु ऐसा क्यों है कि मेंढक तो अधिकतर लोगों के लिए मेंढक (या मेढक) ही रहा – वह मेंडक या मेडक नहीं बना – लेकिन ठंढ ठंड में बदल गया।

इसका कारण यह कि ठंढ में ‘ठ’ और ‘ढ’ दोनों ही महाप्राण हैं (जबकि मेंढक में केवल ‘ढ’ महाप्राण है) और दो महाप्राण ध्वनियों को एकसाथ बोलना मुश्किल होता है। इसी कारण ऐसे शब्दों में सामान्यतः एक ध्वनि अल्पप्राण में बदल जाती है।

क्या कहा? आप अल्पप्राण और महाप्राण नहीं जानते? तो ठीक है, पहले संक्षेप में अल्पप्राण और महाप्राण ध्वनियों को ही समझ लिया जाए।

अल्पप्राण ध्वनियाँ वे होती हैं जिनके उच्चारण में कम हवा निकलती है जबकि महाप्राण ध्वनियों के उच्चारण में ज़्यादा हवा निकलती है। लेकिन यह तो हुई परिभाषा। अल्पप्राण और महाप्राण ध्वनियों को पहचानने का आसान तरीक़ा यह है कि महाप्राण ध्वनियों में हकार रहता है यानी ‘ह’ की ध्वनि मिली रहती है। हिंदी वर्णमाला में पाँचों वर्गों की दूसरी और चौथी ध्वनियों (ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ) में हकार है और इसीलिए वे महाप्राण हैं। श, ष, स और ह भी महाप्राण हैं। महाप्राण ध्वनियों को पहचानने का एक और तरीक़ा यह है कि स को छोड़कर बाक़ी सभी को रोमन में लिखने पर h लगाना पड़ता है जैसे ख (Kh), भ (Bh), ढ (Dh) आदि।

अब जब आप अल्पप्राण और महाप्राण ध्वनियाँ समझ गए हैं तो यह नियम भी जान लीजिए – श, ष, स और ह के अलावा बाक़ी महाप्राण ध्वनियाँ आम तौर पर एकसाथ नहीं आतीं। क्यों नहीं आतीं? क्योंकि उनके एकसाथ उच्चारण में मुँह को डबल मेहनत करनी पड़ती और मुँह यह मेहनत नहीं कर पाता। इसलिए जब ऐसी स्थिति आती है तो हमारा मुँह एक ध्वनि को अल्पप्राण बना देता है।

यह प्रक्रिया हमें संयुक्ताक्षरों में हमेशा दिखती है। देखें संयुक्ताक्षरों में इस प्रवृत्ति की झलक।

  • शक्कर (क्+क) लेकिन दक्खिन (क्+ख)।
  • दिग्गज (ग्+ग) लेकिन बग्घी (ग्+घ)।
  • बच्चा (च्+च) लेकिन अच्छा (च्+छ)।
  • लज्जा (ज्+ज) लेकिन झज्झर (ज्+झ)।
  • टट्टू (ट्+ट) लेकिन पिट्ठू (ट्+ठ)।
  • गुड्डा (ड्+ड) लेकिन बुड्ढा (ड्+ढ)।
  • कुत्ता (त्+त) लेकिन कत्था (त्+थ)।
  • गद्दा (द्+द) लेकिन शुद्ध (द्+ध)।
  • गप्प (प्+प) लेकिन प्+फ के संयोग वाला कोई शब्द नहीं।
  • गब्बर (ब्+ब) लेकिन ब्+भ के संयोग वाले इक्का-दुक्का शब्द जैसे जिब्भा।

आपने ऊपर देखा कि संयुक्ताक्षरों में क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प और ब जैसी अल्पप्राण ध्वनियों को सजातीय अल्पप्राण ध्वनियों के साथ आने में कोई समस्या नहीं है (दिग्गज, लज्जा आदि) मगर ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ और भ जैसी महाप्राण ध्वनियों से पहले सजातीय ध्वनि नहीं आती, आती है तो वह अल्पप्राण हो जाती है यानी घ की जगह ग (बग्घी), ठ की जगह ट (पिट्ठू) आदि। फ और भ के मामले में तो अल्पप्राण ध्वनियों वाले शब्द भी नहीं बनते या बहुत कम बनते हैं।

अब देखते हैं कि जब ये दोनों ध्वनियाँ स्वरों के साथ आती हैं तो क्या होता है। क्या तब भी महाप्राण ध्वनि के अल्पप्राण में बदलने की प्रवृत्ति दिखाई देती है?

मुश्किल यह है कि ऐसे शब्द बहुत कम हैं जिसमें दो महाप्राण ध्वनियाँ साथ-साथ हों। कुछ याद आते हैं जैसे घाघरा, भभूत, भभकी, छाछ अथवा भाभी, फूफी जैसे रिश्तावाचक शब्द जो संभवतः दादा, चाचा, काका आदि के ढर्रे पर बने हैं।

ठंढ या ठंढा भी ऐसा ही एक विरल शब्द हैं हालाँकि इनमें भी ‘ठ’ और ‘ढ’  बिल्कुल पास-पास नहीं हैं, उनके बीच अनुस्वार (ण्) है। ठंढ को मैं विरल इसलिए कह रहा हूँ कि मुझे ऐसे बहुत कम शब्द मिले जिनके अंत में ढ हो और दूसरी ध्वनि महाप्राण हो। ऐसा एक प्रचलित शब्द ढूँढ है जिसे ढूँढ़ भी लिखा जाता है। उधर ‘ड’ से अंत होने वाले ऐसे शब्दों की भरमार है – पंडा, डंडा, कंडा, खंड, गैंडा, चंडी, तांडव, भांडा, मुंडन, सांड, हुंडी, हांडी। बात साफ़ है कि दो अल्पप्राण या अल्पप्राण-महाप्राण जोड़ी के उच्चारण में समस्या नहीं है परंतु दो महाप्राण ध्वनियों के उच्चारण में दिक़्क़त है। तभी तो ऐसे शब्द बहुत कम हैं।

और यही कारण है कि ठंढ और ठंढा समय के साथ ठंड और ठंडा में बदल गए और आज अधिकतर लोग ठंड और ठंडा ही बोलते-लिखते हैं। आज यह शब्द इतना प्रचलित है कि ज्ञानमंडल के कोश को ठंड और ठंडा को सही बताने में कोई हिचक नहीं है (देखें चित्र)।

उच्चारण की सुविधा के चलते कैसे शब्द अपना रूप बदलते हैं, उसका एक बेहतरीन उदाहरण है डफली। इसमें ‘ड’ अल्पप्राण है और ‘फ’ महाप्राण। यह कॉम्बिनेशन सही है और इसको बोलने में कोई समस्या नहीं है। लेकिन कुछ लोगों ने डफली के ‘ड’ को ‘ढ’ बोलना शुरू कर दिया। ऐसे में नया शब्द बनता – ढफली। परंतु ढफली बोलने से तो दोनों ध्वनियाँ महाप्राण हो जातीं और ऐसा शब्द बोलना मुश्किल है इसलिए इस नए शब्द में ‘फ’ भी बदलकर ‘प’ हो गया। नया शब्द बन गया ढपली। ढपली बोलने में कोई दिक़्क़त नहीं हैं क्योंकि ‘ढ’ महाप्राण और ‘प’ अल्पप्राण।

इस तरह दोनों शब्द प्रचलित हैं – डफली और ढपली (देखें चित्र)

जिस तरह सर्दी के मौसम के लिए हिंदी में ठंड और ठंढ दोनों चलते हैं, वैसा ही मामला एक और मौसम – गर्मी और गरमी – के मामले में भी है। इनमें से कौनसा शब्द लिखना उचित है, इसपर हम पहले बात कर चुके हैं। जिन्होंने वह क्लास नहीं पढ़ी हो, आगे दिए गए लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं।

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