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एकला चलो

समलैंगिकता अप्राकृतिक है तो शादी क्या है?

कुछ लोग समलैंगिकता का विरोध यह कहकर करते हैं कि यह अप्राकृतिक है? अगर ऐसा है तो क्या शादी प्राकृतिक है? किन पशु-पक्षियों में शादी होती है? कुछ और लोग इसको विदेशी प्रवृत्ति कहकर दुरदुराते हैं। ऐसे लोगों को सलाह है कि वे भारतीय मंदिरों में समलैंगिकता को दर्शाने वाली मूर्तियाँ देख लें। और हाँ, यह भी देख लें कि उनके अपने जीवन में कितनी चीज़ें हैं जिनका आविष्कार विदेश में हुआ है। टीवी, फ़्रिज, कार, टूथपेस्ट, और हाँ, यह मोबाइल या कंप्यूटर जिस पर यह लेख पढ़ रहे हैं… एक बार गिनना तो शुरू करें।

तब मैं क्लास 8 में पढ़ता था। Homosexual शब्द अख़बारों में आ रहा था। मुझे इसका मतलब तो समझ तो गया था, फिर भी एक दिन अपने लेफ़्टिस्ट पिता से पूछ लिया था, यह होमोसेक्शुअल क्या होता है? वह जवाब नहीं दे पाए। टालमटोल वाले अंदाज़ में कहा, एक तरह की मानसिक बीमारी है। मैंने और सवाल पूछकर उनको परेशानी में नहीं डाला लेकिन यह जानकर मायूसी हुई कि मेरे पिता उतने आधुनिक और खुले विचारों वाले नहीं हैं जितना मैं समझता था।

वह करीब 50 साल पहले की बात थी। तब से आज तक समय काफ़ी बदल गया है। दुनिया भर में समलैंगिकता के प्रति स्वीकार्यता धीरे-धीरे बढ़ रही है। कई देशों में समलैंगिक शादियाँ भी वैध हैं। लेकिन इन सबके बावजूद आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं जो इसे एक मानसिक बीमारी समझते हैं। इसलिए समझते हैं कि उन्हें यह समझ में ही नहीं आता कि एक ही सेक्स के दो लोग कैसे एक-दूसरे के प्रति अट्रैक्ट हो सकते हैं। वे खुद ज़िंदगी भर दूसरे सेक्स के प्रति आकर्षण महसूस करते रहे हैं और यह बात उनके गले नहीं उतरती कि कैसे एक लड़की दूसरी लड़की से प्यार कर सकती है या कोई लड़का दूसरे लड़के को पसंद कर सकता है।

मेरे लिए यह समझना बिल्कुल ही आसान है क्योंकि मुझे बैंगन नहीं पसंद है लेकिन बहुत सारे लोगों को बैंगन पसंद है और मुझे नहीं लगता कि वे सारे लोग जो बैंगन खाते हैं, मानसिक तौर पर बीमार हैं। यह विशुद्ध मर्ज़ी का मामला है, मर्ज़ का नहीं।

होमोसेक्शुऐलिटी के ख़िलाफ़ जो सबसे बड़ा आरोप है, वह यह कि यह अननैचरल है। ऊपरी तौर पर यह आरोप सही लगता है क्योंकि मनुष्य ही नहीं, बाक़ी जीव-जंतुओं में भी सृष्टि ने नर और मादा अलग-अलग बनाए हैं – उनके शरीर अलग-अलग हैं, उनके सेक्शुअल अंग अलग-अलग हैं। वे एक-दूसरे के संपर्क में आने पर कामोत्तेजित होते हैं और एक-दूसरे को संतुष्ट करते हैं। और ऐसा करने में नेचर (या भगवान अगर आप आस्तिक हैं तो) का सबसे बड़ा मक़सद सृष्टि को कायम रखना है।

वैसे तो यह बात सिरे से ग़लत है कि समलैंगिकता अप्राकृतिक है क्योंकि पशु-पक्षियों की हज़ारों प्रजातियाँ हैं जिनमें समलैंगिकता के प्रमाण मिले हैं। लेकिन अगर हम तर्क के लिए एक बार के लिए मान लें कि स्त्री-पुरुष में सेक्स ही नैचरल है और जो यह नहीं करता, वह अननैचरल और मानसिक तौर पर बीमार है तो फिर ये सॉ-कॉल्ड ब्रह्मचारी लोग क्या हैं? वे लोग जो सेक्स से ही दूर रहते हैं (या दूर रहने का ढोंग करते हैं), उन्हें तो हमारा समाज पूजता है, उनकी चरणसेवा करता है, उनके गुणगान करता है। तब किसी को याद नहीं आता कि ये लोग प्रकृति के नियमों के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं। यह कैसा न्याय है कि ब्रह्मचारियों के अननैचरल बिहैवियर की हम पूजा करते हैं और होमोसेक्शुल्स के (तथाकथित) अप्राकृतिक व्यवहार की निंदा!

चलिए, उनको छोड़िए, अपनी बताइए। अगर आप शादीशुदा हैं तो क्या आप नेचर के नियमों का पालन कर रहे हैं? आखिर किन कुत्ते-बिल्लियों में शादी होती है? किन मछलियों और मेढकों में एक ही पति या पत्नी से बँधे रहने की अनिवार्यता है? नहीं है। तो इसका मतलब यही हुआ कि शादी करके हम नेचर के नियम को तोड़ रहे हैं। लेकिन क्या हम उसे ग़लत मानते हैं? क्या शादी करने वाले को नीची नज़रों से देखते हैं? 

मैं नहीं कह रहा कि शादी ग़लत है। जब तक दुनिया में निजी संपत्ति को क़ानूनी मान्यता मिलती रहेगी और मरने के बाद उस संपत्ति पर किसका अधिकार हो, यह मसला ज़िंदा रहेगा, तब तक परिवार नामक संस्था भी जीवित रहेगी और किसी-न-किसी रूप में शादियाँ भी होती रहेंगी। लेकिन पारिवारिक संस्था के क़ायम रहने से यह साबित नहीं हो जाता कि यह नैचरल है। ठीक वैसे ही जैसे कि हमारा कपड़े पहनना नैचरल नहीं है, गुफाओं की जगह एयरकंडिशंड घरों में रहना नैचरल नहीं है, पैदल चलने के बजाय कार और बस में चलना नैचरल नहीं है।

कहने का मतलब यह कि हम ऐसे बहुत से काम करते हैं जो कि नैचरल नहीं है। हमने अपनी इच्छा और सुविधा के लिए नेचर के नियमों को बार-बार तोड़ा है, उसके उलटे जाकर काम किया है और आगे भी करेंगे।

अगर हम हर रोज़, हर घड़ी नेचर के ख़िलाफ़ जाकर काम कर रहे हैं तो हम ऐसी किसी भी प्रवृत्ति को जो हमें नेचर के ख़िलाफ़ लगती है, ग़लत कैसे ठहरा सकते हैं? यदि गाँधीजी सेक्स से दूर रहना चाहते थे तो मैं कौन होता हूँ जो कहूँ कि नहीं बापू, आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। वैसे ही अगर कोई पुरुष किसी पुरुष के साथ प्यार का या देह का संबंध बना रहा है, तब भी मेरा कोई हक़ नहीं बनता कि मैं उसे रोकूँ कि भाई, तू यह बहुत ही ग़लत कर रहा है। न मेरा, न आपका।

समलैंगिकता के बारे में एक आरोप यह भी है कि यह प्रवृत्ति भारतीय रुझानों के ख़िलाफ़ है और पश्चिम से आयातित है। इस शिकायत के दो हिस्से हैं। पहले भारतीय परंपरा की बात करें तो यह कहना बहुत मुश्किल है कि भारत में यह कबसे है और कितनी व्यापक है क्योंकि आम तौर पर लोग अपना यह रुझान उजागर नहीं करते। लेकिन भारतीय यौन दर्शन की दो महत्वपूर्ण विरासतों – कामसूत्र और खजुराहो की मूर्तियाँ इस बात की गवाह हैं कि समलैंगिकता हमारे देश के लिए कोई अनूठी अवधारणा नहीं है। नीचे की तस्वीरें देखें। पहली वाली तस्वीर ओरल सेक्स दिखा रही है और दूसरी जानवरों के साथ सेक्स। दोनों मूर्तियाँ भारत के मंदिरों से हैं। ऐसी और कई तस्वीरें आप इस लिंक पर देख सकते हैं।

अगर तर्क के लिए मान भी लें कि होमोसेक्शुऐलिटी विदेशी प्रवृत्ति है तो पहले अपने चारों तरफ़ नज़रें घुमाकर देख लें कि हमने अपने जीवन में क्या नहीं अपनाया जो विदेशी है। आपके घर में जो टीवी है, क्या वह महाभारत काल में पांडवों द्वारा ईजाद किया गया था? बिजली-पंखा-एसी क्या रामायण काल में वानरों ने बनाए थे? ये गोली जो आप सिरदर्द होते ही लेते हैं, क्या च्यवन ऋषि ने बनाई थी? यह टूथपेस्ट जो आप रोज़ अपने ब्रश में लगाते हैं, क्या सम्राट अशोक की रसायन शाला में तैयार किया गया था? यह कार, बस, बाइक जो आप इस्तेमाल करते हैं, वे सब चंद्रगुप्त के समय में आविष्कृत हुई थीं? 

अगर ये सारी आधुनिक चीज़ें जो विदेशों से आई हैं, उनको अपनाने में कोई तकलीफ़ नहीं है आपको तो कोई प्रवृत्ति अगर विदेश से आई है तो आपको क्या परेशानी है? आपसे तो कोई कह नहीं रहा कि आप पुरुष हैं तो किसी पुरुष से प्रेम करें और स्त्री हैं तो स्त्री से प्रेम करें। बिल्कुल न करें। लेकिन जिसके अंदर यह प्रवृत्ति है, वह अगर वैसा करता या करती है तो आपके पेट में दर्द क्यों होने लगता है?

मेरे विचार से समलैंगिकता के विरोध का मूल कारण यह नहीं है कि वह अप्राकृतिक है या विदेशी प्रवृत्ति है। मूल कारण यह है कि हमारे पुरातनपंथी समाज को वह कोई भी बात नहीं पचती जो उसके द्वारा तय पैमानों से अलग और नई हो। लड़कियों को घर का सारा कामकाज करना चाहिए और बच्चे पालने चाहिए – सो नौकरी करने वाली और बच्चों को क्रेश में छोड़ने वाली युवतियाँ उसे बुरी लगती हैं। उसके अनुसार पुरुषों को घर का कामकाज नहीं करना चाहिए – सो घर का कामकाज करने वाले पुरुष उसे जोरू का ग़ुलाम लगते हैं। उसके अनुसार लड़कियों को जल्द-से-जल्द घर बसा लेना चाहिए – सो ज़िंदगी भर कुँआरी रहने वाली युवतियाँ उसे आवारा लगती हैं।

बाग़ियों के प्रति YOU ARE NOT OK की इस भावना के चलते ही हमारा या किसी भी देश का कट्टरपंथी समाज हर उस व्यक्ति और उसके आचार-विचार का विरोध और प्रतिरोध करता है जो उसके बनाए गए ढाँचों में फ़िट होने से इनकार कर देता है।

इसके विपरीत उदारवादी सभी प्रकार के व्यक्तियों, आचारों और विचारों का सम्मान करते हैं। जिसे बैंगन पसंद है, वह बैंगन खाए, जिसे आलू पसंद है, वह आलू खाए। वह पूछता है कि किसी भी समाज में यह दादागिरी क्यों हो कि हमें बैंगन पसंद है तो सभी को बैंगन ही खाना होगा?

I AM OK, YOU ARE OK का सिद्धांत क्यों नहीं अपनाया जा सकता?

यह लेख 25 फ़रवरी 2010 को नवभारत टाइम्स के एकला चलो ब्लॉग सेक्शन में प्रकाशित हुआ था। यह लेख उसका संशोधित रूप है।

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