अगर आपसे पूछा जाए कि राम द्वारा शबरी के जूठे बेर खाने की कथा किस धर्मग्रंथ में है तो आप क्या कहेंगे? रामचरित मानस या वाल्मीकि रामायण? जब एक फ़ेसबुक पोल में यही सवाल किया गया तो दो-तिहाई वोटरों ने रामचरितमानस और एक-तिहाई ने वाल्मीकि रामायण के पक्ष में वोट किया। दोनों जवाब ग़लत हैं क्योंकि जूठे बेरों का ज़िक्र दोनों में किसी में भी नहीं है। तो फिर जूठे बेरों की यह कथा आई कहाँ से? जानने के लिए आगे पढ़ें।
जी हाँ, राम द्वारा शबरी के जूठे बेर खाने की कथा इन दोनों में से किसी भी रामकथा में नहीं है। तो फिर यह प्रसंग कहाँ से आया, इसपर नीचे चर्चा करेंगे। पहले रामायण और मानस के संबंधित पद्यांश का हवाला ले लें।
वाल्मीकि रामायण के अरण्यकांड के 74वें सर्ग में शबरी और राम की मुलाक़ात का ज़िक्र है।
अर्थ : पुरुषप्रवर! उन महाभाग महात्माओं ने मुझसे उस समय ऐसी बात कही थी। अतः पुरुषसिंह! मैंने आपके लिए पंपातट पर उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकार के जंगली फल-मूलों का संचय किया है।
संस्कृत मुझे आती नहीं इसलिए गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित रामायण में लिखित टीका ही ऊपर हूबहू लिख दी है। इस श्लोक के अलावा आगे-पीछे किसी भी श्लोक में बेरों का ज़िक्र नहीं है। संदर्भ के लिए देखें नीचे दिया गया चित्र।
रामचरितमानस में इस संबंध में क्या लिखा है, यह भी पढ़ लेते हैं —
अर्थ : उन्होंने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कंद, मूल और फल लाकर श्रीरामजी को दिए। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेमसहित खाया।
जिनको लगता होगा कि इसके पहलेवाली चौपाई में इसका उल्लेख होगा या उसके बादवाली चौपाई में, तो उसका अर्थ भी पढ़ा देता हूँ। मूल चौपाइयाँ नीचे चित्र में भी देख सकते हैं।
अर्थ : वे प्रेम में मग्न हो गईं, मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरणकमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और फिर उन्हें सुंदर आसनों पर बैठाया।
इसके बाद ही 34 नंबर पर दोहा आता है जिसमें शबरी द्वारा ‘अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कंद, मूल और फल लाकर श्रीरामजी को देने और प्रभु द्वारा बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेमसहित खाने’ का उल्लेख है। यह दोहा आपने ऊपर पढ़ा। उसके बादवाली चौपाई का भावार्थ है —
अर्थ : फिर वे हाथ जोड़कर खड़ी हो गईं। प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया। (उन्होंने कहा) मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ। मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़बुद्धि हूँ।
नीचे उस पेज की तस्वीर देखें जहाँ से ये दोहे और चौपाइयाँ ली गई हैं।
आपने देख लिया न, कहीं भी जूठे बेरों का ज़िक्र नहीं। तो फिर ये जूठे बेर आए कहाँ से?
यह जानने में हमारी मदद करते हैं पौराणिक कथाओं के विद्वान लेखक देवदत्त पटनायक। उनका कहना है कि सबसे पहले यह कथा तुलसीदास के समकालीन बलरामदास के ओड़िया रामायण में मिलती है। लेकिन वहाँ बेर के बजाय आम हैं।
वह बताते हैं, ‘जब तुलसीदास रामचरितमानस लिख रहे थे, ठीक उसी समय बलरामदास ने ओड़िया में दांडि रामायण लिखी। इसमें राम और शबरी की मुलाक़ात के प्रसंग में लिखा है कि किस तरह वे राम के लिए मीठे आम खोजने के क्रम में सारा जंगल छान मारती हैं। राम परोसे गए आमों में से वे आम खाते हैं जिनमें ‘दाँत के निशान’ हैं और उनको छोड़ देते हैं जिनमें ‘दाँत के निशान’ नहीं हैं।’
डॉ. पटनायक के अनुसार यह पहली किताब थी जिसमें हम राम को चखे हुए यानी जूठे फल दिए जाने और उनके द्वारा उन्हें ख़ुशी-ख़ुशी खाए जाने का उल्लेख पाते हैं। लेकिन जूठे आमों की कथा जूठे बेरों में कैसे बदल गई, इसके बारे में डॉ. पटनायक का यह कहना है, ‘दांडि रामायण की रचना के 200 साल बाद प्रियादास ने नाभादास रचित ‘भक्तमाल’ पर ब्रज भाषा में ‘भक्तिरसबोधिनी’ टीका लिखी। इस टीका में उन्होंने वैष्णव संतों के जीवन के बारे में लिखते हुए शबरी कथा का विस्तार से उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा कि किस तरह पंपा झील के आसपास रहने वाले संन्यासी अस्पृश्य और नीची जाति का होने के कारण शबरी को दुत्कारते थे लेकिन राम ने उनके द्वारा पेश किए गए ‘जूठे बेर’ प्रसन्नता के साथ खा लिए।’
उनकी मानें तो ब्रज भाषा में लिखी इस पुस्तक से ही संभवतः जूठे बेरों की कथा समस्त भारत में फैली और पिछली सदी में पहले कल्याण पत्रिका और बाद में रामानंद सागर के टीवी सीरियल ने इस कथा को घर-घर तक पहुँचा दिया।
डॉ. देवदत्त पटनायक का यह लेख आप यहाँ क्लिक/टैप करके पढ़ सकते हैं जिसमें दांडि रामायण के जूठे आमों से संबंधित अंश का अंग्रेज़ी अनुवाद भी दिया हुआ है।