‘चौदहवीं का चाँद’, ‘संगम’, ‘एक बार मुस्कुरा दो’, ‘सागर’ और ‘चाँदनी’ जैसी ढेरों फ़िल्में हिंदी में बनी हैं जिनमें दो दोस्त एक ही लड़की से प्यार करते हैं। कहानी की ज़रूरत के अनुसार उन दोनों में से एक को अपने प्यार की और अक्सर अपनी जान की भी क़ुर्बानी देनी पड़ती है। सालों पहले मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था हालाँकि हिंदी फ़िल्मों के उलट हम दो दोस्तों में से किसी को अपने प्राणों की आहुति नहीं देनी पड़ी थी। हमारे क़िस्से की नायिका भी दोनों में से किसी को नहीं मिली।
इस त्रिकोणीय संबंध के पहले दो पात्र थे मेरा वह युवा दोस्त और उसके पड़ोस में रहने वाली एक किशोरी जिसे वह फ़ुर्सत के समय में पढ़ाया करता था। जल्दी ही वह लड़की मेरे मेधावी दोस्त को पसंद करने लगी। दोस्त भी उसे पसंद करता था मगर उनके प्रेम संबंध एक सीमा से आगे नहीं जा सकते थे। कारण, वे एक-दूसरे से पारिवारिक रिश्ते से जुड़े थे और भारत का विवाह क़ानून उन दोनों के बीच शादी की इजाज़त नहीं देता था।
इसी समय उन दोनों के जीवन में मेरा प्रवेश हुआ। मैं दिल्ली में रहता था और उन दिनों छुट्टियों में कोलकाता गया हुआ था जहाँ मेरा वह दोस्त और वह लड़की रहते थे। दोस्त ने मुझे उस लड़की के बारे में बताया। जानकर मुझे उत्सुकता हुई और मैंने उससे मिलने की इच्छा प्रकट की। हम दोनों उस लड़की से उसके कॉलेज के बाहर मिले। पास के रेस्तराँ में नाश्ता किया, बातें कीं।
मुझे वह लड़की अच्छी लगी। वह 18-19 साल की थी मगर अपनी उम्र के हिसाब से मुझे काफ़ी परिपक्व लगी। उसे पता था कि समाजवाद और मार्क्सवाद क्या है। वह आधुनिक विचारों वाली थी और अपना बच्चा पैदा करने के बजाय कोई बच्चा अडॉप्ट करना चाहती थी। ऐसी ही लड़की मैं अपनी जीवनसंगिनी के रूप में चाहता था। लेकिन मुश्किल यह थी कि वह मेरे दोस्त की प्रेमिका थी।
दो-तीन दिनों बाद संयोग से उस दोस्त के ही घर में मेरी उस लड़की से एक बार फिर मुलाक़ात हुई। पहली मुलाक़ात में हम दोनों के बीच ठीकठाक वार्तालाप हुआ था लेकिन उस दूसरी मुलाक़ात में मैं काफ़ी चुप-चुप रहा। जाते समय आँखें मिलाकर उसे बाइ भी नहीं कहा। यह बात उसे खटकी और मेरे जाने के बाद उसने दोस्त से शिकायती लहजे में कहा भी कि तुम्हारा दोस्त (यानी मैं) आज कुछ बदला-बदला-सा लग रहा था।
दोस्त एकाध दिन बाद मेरे घर आया। बताया कि लड़की मेरे बारे में क्या कह रही थी और पूछा कि मैं उस दिन चुप-चुप क्यों था। मैंने उससे कुछ कहा नहीं। अपनी डायरी पढ़वा दी जिसमें मैंने पहली और दूसरी मुलाक़ातों के बारे में विस्तार से लिखा था।
डायरी पढ़कर दोस्त ने ज़ोरदार ठहाका लगाया। मैंने हैरान होकर पूछा कि इसमें हँसने की क्या बात है। लेकिन जवाब देने के बजाय वह बस हँसता रहा। पाँचेक मिनट के बाद उसने कहा, ‘तुम्हारी डायरी पढ़ने से पता चला कि मैं तुम्हारे बारे में जो सोच रहा था, वह सही है। मैंने तो पहले ही दिन उसे बता दिया था कि he has fallen in love with you. (देखें डायरी का वह अंश)। ’

उसका निष्कर्ष था कि मैं और वह लड़की एक-दूसरे को पसंद करने लगे हैं। यदि उस लड़की को मेरा चुप-चुप रहना या उसको इग्नोर करना खला है तो साफ़ है कि वह मुझसे अटेंशन चाहती है।
दोस्त ने मेरे सामने सीधा प्रस्ताव रख दिया, ‘तुम उससे शादी करोगे? क्योंकि हम दोनों तो नहीं कर सकते। अगर तुम कर लोगे तो मुझे तसल्ली हो जाएगी कि उसका जीवनसाथी एक अच्छा और जाना-पहचाना व्यक्ति है।’
मैंने कहा, ‘पहले उससे तो पूछो।’
उसने पूछा और कुछ दिनों के बाद बताया कि लड़की तैयार है।
मुझे उसकी ‘हाँ’ सुनकर ख़ुशी हुई लेकिन मेरे मन में एक दुविधा भी थी। दुविधा इस बात की नहीं थी कि वह मेरे दोस्त से प्यार करती थी और दोस्त उससे। इसके बारे में तो मैंने पहले ही कह दिया था ‘मुझे तुम दोनों के प्यार से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि मैं मानता हूँ कि एक व्यक्ति एकसाथ दो लोगों से प्यार कर सकता है। जब तक कोई मुझसे प्यार करता है, तब तक मुझे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह और किस-किससे प्यार करता है।’
दुविधा हम दोनों के बीच एज-गैप की थी। वह 18 की थी और मैं 28 का। हम दोनों की उम्र में कोई दस साल का फ़ासला था। क्या इतने गैप के बावजूद हमारी शादी कामयाब रहेगी? वैसे भी हम दोनों केवल दो बार मिले थे। इन दो मुलाक़ातों के आधार पर इतना बड़ा फ़ैसला करना क्या उचित था? इसलिए मैंने उससे एक और मुलाक़ात की दिल्ली लौटने से पहले। एकांत में। हम दोनों में लंबी बात हुई। एक-दूसरे के बारे में जाना। मैंने प्रस्ताव दिया कि हम दोनों को कोई भी निर्णय छह महीने के बाद ही करना चाहिए ताकि पता चल सके कि इस रिश्ते में कोई मज़बूती है भी या नहीं। वह मान गई।
इसके बाद मैं दिल्ली लौट आया।
वह मोबाइल का ज़माना नहीं था। सो पत्रों के ज़रिए ही हम एक-दूसरे से बात कर सकते थे। जनवरी में उसका पहला पत्र मिला। चिट्ठी के अंत में उसने लिखा था – I like you। फ़रवरी में वह I love you में बदल गया और मार्च-अप्रैल आते-आते I love you की झड़ी लग गई। हमारे पत्रों में हमारी अपनी बातों और सपनों के साथ-साथ हमारा दोस्त भी शामिल रहता था और दोस्त के पत्रों में वह भी रहती थी। मुझे उससे कोई समस्या नहीं थी।
कोई छह महीने बाद मैं फिर कोलकाता गया जब उसके कॉलेज में गर्मी की छुट्टियाँ पड़ने वाली थीं। पूरा एक महीना वहाँ रहा। मैं उसके परिवार से मिला। वह मेरे परिवार से मिली। दोनों परिवारों को बता दिया गया था कि हम एक-दूसरे से शादी करना चाहते हैं।
लेकिन इस बार की हमारी मुलाक़ातों में दोस्त तक़रीबन ग़ायब था। बीच में किसी ज़रूरी काम से उसे कोलकाता से बाहर भी जाना पड़ा और मेरे रवाना होने से पहले वह नहीं लौटा।
जिस दिन मुझे दिल्ली के लिए रवाना होना था, उस दिन वह मेरे घर आई और बातों ही बातों में उसने कहा, ‘मैंने उनको (दोस्त को) एक लेटर लिखा है।’
मैंने पूछा, ‘क्या लिखा है? क्या मैं पढ़ सकता हूँ?’
वह बोली,’नहीं, तुम पढ़ोगे तो तुमको ईर्ष्या होगी…’
मैंने कहा, ‘मुझे क्यों ईर्ष्या होगी! मैं जानता हूं कि तुम उससे प्यार करती हो…’
वह बोली, ‘फिर भी। आख़िरकार तुम एक मर्द हो।’ उसने इंग्लिश में कहा था।
मेरी जिज्ञासा बढ़ रही थी। मैंने कहा, ‘मैं पढ़ना चाहूँगा।’
उसने अनिच्छा से वह चिट्ठी मुझे थमा दी।
मैंने उसे पढ़ना शुरू किया। बहुत ही इमोशनल लेटर था जैसा कि एक प्रेमिका अपने प्रेमी का साथ छूटने पर लिखती है कि वह उसे कितना मिस करेगी। यह सब सामान्य था और मुझे बुरा भी नहीं लगा लेकिन चिट्ठी के अंत में उसने जो लिखा था, उसने मुझे हिलाकर रख दिया। उसने लिखा – मेरा शरीर चाहे किसी का भी हो जाए लेकिन मेरा मन हमेशा आपका रहेगा…
वह मेरे चेहरे के बदलते भाव देख रही थी। जब मैंने उसे चिट्ठी लौटाई तो उसने पूछा, ‘ख़राब लगा न पढ़कर? मैंने पहले ही कहा था…’
मैंने उसे तत्काल कोई जवाब नहीं दिया। घर से स्टेशन वह मेरे साथ ही गई लेकिन हमारे बीच बहुत कम बातचीत हुई। उसने वह चिट्ठी नहीं पढ़ाई होती तो मैं बहुत ख़ुश-ख़ुश विदा होता। लेकिन चिट्ठी पढ़वाकर उसने अच्छा ही किया।
उसकी चिट्ठी से मुझे यह एहसास हुआ कि वह मुझे ‘पाना’ चाहती थी मगर उस दोस्त को ‘खोना’ नहीं चाहती थी। या यूँ कहें कि उस दोस्त की ‘क़ीमत’ पर वह मुझे नहीं ‘पाना’ चाहती थी।
इसी बात को मेरे उस दोस्त ने कुछ दिन बाद लिखे एक पत्र में बहुत ही काव्यात्मक अंदाज़ में समझाया था –
मैं तुम दोनों के बीच एक पुल हूँ
और वह तुम्हारे साथ
एक घर बनाना चाहती है।
मुश्किल बस यह है कि
वह अपना यह घर
इस पुल पर ही बनाना चाहती है…
दिल्ली लौटकर बहुत सोच-विचार के बाद मैंने उसे एक लंबी चिट्ठी लिखी जिसका मर्म यही था कि मैं उसके शरीर के लिए उससे शादी नहीं कर रहा। मुझे उसका मन भी चाहिए। अगर उसका मन बँटा हो तो भी चलेगा लेकिन दिल में छोटी-सी ही सही, मेरे लिए भी एक ख़ास जगह तो होनी चाहिए।
उससे फिर मेरी शादी नहीं हुई, यह बताने की ज़रूरत नहीं है। कुछ दिन बाद पता चला कि उसने एक कॉमन फ़्रेंड के हाथों मेरे दिए गिफ़्ट मेरे घर पर भिजवा दिए हैं। उनमें एक गोल्डन घड़ी थी और एक कंघा भी था। मैंने उसी कॉमन फ़्रेंड के हाथों वह घड़ी फिर उसके पास भिजवा दी (जिसका पता नहीं, उसने क्या किया) लेकिन कंघा रख लिया – यादगार के तौर पर (देखें ऊपर का चित्र)। वह आज भी रखा हुआ है उसकी उन्हीं चिट्ठियों के साथ जिनपर कभी अपनी ख़ूबसूरत लिखावट में उसने मेरा नाम-पता लिखा था और जिन्हें ऑफ़िस के डाक के डिब्बे में देखकर मेरी धड़कनें तेज़ हो जाती थीं।
इन चिट्ठियों को देखकर हर बार जगजीत सिंह की गाई वह नज़्म याद आ जाती है – तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे… सो सँभालकर रखे हुए हैं। चाहता हूँ कि जिस दिन दुनिया को अलविदा कहूँ, उसी दिन ये ख़त और डायरियाँ भी जलें मेरे शरीर के साथ-साथ।
