1977 का दिसंबर का महीना था जब मैंने समिता को पत्र लिखकर बताया था कि मैं उससे कितना प्यार करता हूँ। उसने पत्र का कोई जवाब नहीं दिया। हाँ, एक दोस्त से अवश्य कहा था कि वह नहीं जानती थी कि मैं इतना गिरा हुआ लड़का हूँ। 33 साल बाद उसी समिता से फिर से मिलना हुआ संयोग से दिसंबर के ही महीने में और पता चला कि उसे अभी भी सबकुछ याद था…
2010 का साल। साल का अंतिम महीना। महीने का अंतिम सप्ताह। अपार्टमेंट के नोटिस बोर्ड पर यह सूचना लग गई थी कि 31 दिसंबर की रात को नए साल के स्वागत के लिए धूमधड़ाके और नाच-गाने से भरा कार्यक्रम होने वाला था।
जश्न के नाम पर होने वाला शोरशराबा न मुझे पसंद है, न पत्नी को। पत्नी ने सुझाया, कहीं चलें? मैंने कहा, कहाँ? उसने कहा, इतनी जल्दी तो कहीं दूर जाने का प्लान बन नहीं सकता। ऋषिकेश चलते हैं। मैंने तुरंत हाँ कर दी। ऋषिकेश हम पहले भी जा चुके थे – शादी के दो-एक साल बाद। उसी साल जिस साल डायना स्पेंसर की ऐक्सिडंट में मौत हो गई थी। बाक़ी अनुभव अच्छा रहा था। 13 साल बाद फिर वहाँ जाकर उन अनुभवों को दोहराने और यादों को तरोताज़ा करने का मौक़ा मिल रहा था।
ऋषिकेश के प्रस्ताव को ‘हाँ’ कहने का एक और कारण था। मन में उम्मीद थी कि शायद इस बार वहाँ समिता से मुलाक़ात हो जाए। वही समिता जिसको मैंने किशोरावस्था में प्रेमपत्र लिखा था और जिसकी प्रतिक्रिया में उसने मेरे एक दोस्त से कहा था, नीरेंद्र तो बहुत गिरा हुआ निकला…। मैं मायूस हुआ था लेकिन उम्मीद नहीं छोड़ी। एक कॉमन फ़्रेंड मेधा के मार्फ़त उससे संपर्क करने की लगातार कोशिश करता रहा हालाँकि शादी की बात आगे नहीं बढ़ पाई क्योंकि उसने आजीवन अविवाहित रहने का व्रत ले लिया था।
एक दिन हरिद्वार में बिताने के बाद हम ऋषिकेश चले गए। वहाँ लक्ष्मण झूला आदि देखने का इरादा था। मुझे मालूम था कि समिता वहीं गीता भवन में रहती थी। धड़कते दिल से उसका नंबर मिलाया और बताया कि हम सपरिवार ऋषिकेश में आए हैं और उससे मिलना चाहता हैं। उसने कहा, आइए। साथ में सूचना भी दी कि उसकी माँ का कुछ ही समय पहले निधन हुआ है। दोपहर बाद उससे उसके घर पर मिलना तय हुआ।
लक्ष्मण झूले की तरफ़ जाते हुए रास्ते में सच्चा धाम दिख गया जहाँ हम 13 साल पहले तीन दिनों के लिए रुके थे। अपनी याद ताज़ा करने के लिए वहाँ कुछ देर बैठे। इस बीच काफ़ी बदल गया था वह। लगता था, रईस भक्तों की बड़ी कृपा रही है इस धाम पर। इधर बारिश भी बहुत तेज़ हो गई थी। समिता के निवास पर पहुँचते-पहुँचते क़रीब 2 बज गए।
समिता ने बहुत स्नेह से हमारा स्वागत किया। आग्रह करके खाना भी खिलाया।
समिता पिछले कई सालों से माता-पिता के साथ यहाँ ऋषिकेश में रहती थी और उसके हितैषी और परिजन इस कारण से निश्चिंत थे। अब चूँकि माता और पिता दोनों नहीं रहे सो उसकी चिंता होना स्वाभाविक था।
मैंने पूछा, ‘अब? अकेली कैसे रहोगी?’
उसने कमरे में बने छोटे-से मंदिर की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘ये हैं न।’
हमने स्कूल के दिनों की यादें ताज़ा कीं। मुझे लगता था कि वह सबकुछ भूल गई होगी लेकिन उसे काफ़ी कुछ याद था। 17 साल की उम्र में मैंने जो प्रेमपत्र लिखा था, उसका ज़िक्र करते हुए उसने बताया, ‘जब हमें मेधा से वह पत्र मिला तो हमने माँ को दिखाया और पूछा, इसका क्या करें? माँ ने पत्र पढ़ा और कहा कि फाड़ दो तो हमने फाड़ दिया।’
समिता माँ से बहुत प्रभावित थी और उन्हीं के प्रभाव में उसकी अध्यात्म में रुचि हुई। जब पत्नी ने पूछा कि आप इस राह पर कैसे आईं, तो उसने बताया, ‘एक सत्संग सभा में हम माँ के साथ गए थे। वहाँ हमने अपनी माँ के गालों पर आँसू टपकते देखे। हमने माँ से पूछा, आप क्यों रो रही हैं तो माँ ने आँसू पोछते हुए कहा, बेटी, तू शादी मत करना, तुम भगवान की भक्ति करना। हमने कहा, ठीक है। हम वही करेंगे जो आप कहेंगी।’
अपनी माँ की याद करते हुए समिता की आँखों से आँसुओं की धार बह निकली। उसने कहा, ‘हम अपनी माँ की पूजा करते थे। कभी-कभी वह हमारी चिंता करती थीं कि उनके बाद हमारा क्या होगा। हमने एक दिन उनसे पूछा – क्या आप दीदी की चिंता करती हैं? उन्होंने कहा – नहीं। तब हम बोले – जब आपको जीजाजी जैसे एक इंसान पर इतना भरोसा है तो उस ठाकुर पर पूरा भरोसा होना चाहिए जो सारी सृष्टि को चलाता है। उसके बाद उन्होंने हमारी चिंता करना छोड़ दिया।’
समिता के चेहरे पर मुझे मीरा का रूप नज़र आ रही था। कभी मैंने भी उससे प्यार किया था और उसे अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहा था। फिर भले ही कोई सामाजिक रिश्ता बना हो या न बना हो लेकिन स्नेह का और आत्मीयता का रिश्ता तो था ही और शायद है भी। मैं खुद नास्तिक हूँ, कभी मंदिर में नहीं गया, किसी भगवान के सामने हाथ नहीं जोड़े… लेकिन आज मन कर रहा है समिता के ठाकुर से यह कहने का – इसका ख़्याल रखना…इसका भरोसा टूटने मत देना। मुझमें किसी मू्र्ति को देखकर आस्था नहीं जगती… लेकिन समिता को लेकर मन में एक अनोखी निश्चिंतता है। फिल्म ‘गाइड’ के एक संवाद में हलका-सा फेरबदल करके कहूँ तो उसे अपने ठाकुर पर विश्वास है और मुझे उसके विश्वास पर विश्वास है।
यह लेख 31 दिसंबर 2010 को नवभारत टाइम्स के एकला चलो ब्लॉग सेक्शन में प्रकाशित हुआ था। यह लेख उसका संपादित रूप है।