पेच शब्द सुना है आपने? नहीं सुना! लेकिन इससे मिलता-जुलता पेंच शब्द ज़रूर सुना होगा जो कुश्ती में लगता है, पतंगबाज़ी में लगता है, फ़र्नीचर में लगता है और हाँ, आँखों-आँखों में भी लड़ाया जाता है। सारी बातें ठीक है, बस एक गड़बड़ है। क्या है वह गड़बड़, जानने के लिए आगे पढ़ें।
गड़बड़ यह है कि सही शब्द पेंच नहीं, पेच है हालाँकि ज़्यादा लोकप्रिय पेंच ही है। इसका पता हमें हमारे फ़ेसबुक पोल से भी लगा जब 62% वोटरों यानी बहुमत ने पेंच को सही बताया। कुछेक तो इतने उत्साह में आ गए कि कॉमेंट में भी पेंच लिख मारा ताकि सनद रहे कि हमने सही लिखा था। लेकिन अफ़सोस, वे सही नहीं थे। जैसा कि ऊपर बताया, सही शब्द है पेच।
पेच शब्द फ़ारसी से आया है और इसका अर्थ है घुमाव, चक्कर आदि।
पेच यानी स्क्रू देखा है न आपने? उसमें कितने घुमाव होते हैं, इसीलिए उसे पेच कहते हैं। और जिस औज़ार से आप उसे कसते या खोलते हैं, उसे कहते हैं पेचकश यानी स्क्रूड्राइवर। ध्यान दिया, मूल शब्द है पेचकश! लेकिन हिंदी में पेचकश का पेचकस हो गया है क्योंकि इससे किसी पेच को कसते हैं। कसना प्राकृत के कस्सण से बना है जो संस्कृत के कर्षण का परिवर्तित रूप था।
कहने का अर्थ यह कि पेच में बिंदी नहीं है। हिंदी में यह बिंदी कैसे आ गई, पता नहीं। आपको बता दूँ कि उर्दू-फ़ारसी या अरबी शब्दों के शुरू में यह अँ, आँ, एँ जैसी ध्वनि नहीं के बराबर है।
मैंने आचार्य रामचंद्र वर्मा द्वारा संपादित उर्दू-हिंदी शब्दकोश पूरा-का-पूरा देख मारा और शब्दों के शुरू में ऐसी ध्वनि केवल चार शब्दों में मिली। वे शब्द हैं – आँब (आम), बाँग (आवाज़, पुकार, मुर्गे की आवाज़), माँदा (बीमार) और राँदा (बहिष्कृत)। इन चार के अलावा किसी शब्द के शुरू में यह ध्वनि नहीं है। रोचक बात यह कि ये चारों ‘आ’ से शुरू होनेवाले शब्द हैं। यानी उर्दू-फ़ारसी का कोई शब्द हो और उसके शुरू में आपको डाउट हो कि वहाँ अनुनासिक ध्वनि है या नहीं, तो समझिए, नहीं ही है।
हाँ, यह ध्वनि शब्द के अंत में कई मामलों में है जहाँ वह ‘न’ के विकल्प के रूप में आती है। जैसे क़ुरबाँ (क़ुरबान), ज़बाँ (ज़बान), परेशाँ (परेशान), हिंदोस्ताँ (हिंदोस्तान)। इसी तरह ग़मगीं (ग़मगीन), हसीं (हसीन), ज़मीं (ज़मीन), मजनूँ (मजनून) आदि। ‘म’ से शुरु होने वाले कुछ शब्दों के अंत में भी अनुनासिक ध्वनि है जैसे मज़मूँ, मौजूँ।
फिर से पेच पर आते हैं। पेच का एक अर्थ उलझन, झंझट आदि भी है।
हिंदी शब्दसागर में इसकी चर्चा करते हुए कोशकार ने तुलसी की ‘गीतावली’ का ज़िक्र किया है जिसमें तुलसी ने इस शब्द का इस्तेमाल किया है – सोचत जनक पोच पेच परि गई है (देखें चित्र)।
आपने देखा कि घुमावदार कील के रूप में पेच जहाँ पुल्लिंग के तौर पर लिखा जाता है, वहीं उलझन के अर्थ में तुलसी ने इसका स्त्रीलिंग के रूप में प्रयोग किया है।
पेच शब्द पर खोजबीन के दौरान उर्दू-हिंदी शब्दकोश पलटते हुए मुझे ‘माँ’ शब्द मिला और उसे उसमें फ़ारसी से आया बताया गया है। ‘माँ’ शब्द हिंदी में भी ख़ूब चलता है और हिंदी के शब्दकोश उसे संस्कृत के अंवा या माता से आया बताते हैं। पता नहीं, यह शब्द दोनों जगह अपने स्तर पर बना या एक भाषा से दूसरी भाषा में गया या एक ही भाषा से दोनों जगह आया। आपको शायद मालूम हो कि संस्कृत और फ़ारसी दोनों का स्रोत एक ही है क्योंकि दोनों के पूर्वज एक ही थे। डॉ. भोलानाथ तिवारी अपनी पुस्तक ‘हिंदी भाषा का इतिहास’ में लिखते हैं, ‘अपने मूल स्थान से चलकर भारत-ईरानी लोग ओक्सस घाटी के पास आए और वहाँ से फिर उनका एक वर्ग ईरान चला गया, दूसरा कश्मीर तथा आसपास एवं तीसरा भारत।’
माँ से याद आया, जितने भी क़रीबी रिश्तों के नाम हैं, वे या तो स्वरों से शुरू होते हैं या पवर्ग से (प, फ, ब, भ, म) जिनका उच्चारण दो होठों के सटने से होता है। मैं यहाँ लिस्ट दे सकता हूँ लेकिन यह काम आपपर छोड़ता हूँ। सोचना शुरू कीजिए, आपको अधिकतर शब्द इन्हीं दोनों वर्गों से शुरू होते मिलेंगे। ऐसा क्यों है, पता नहीं। शायद बोलने में आसानी के कारण।
जब बात पेच पर हुई है तो उसपर मजाज़ लखनवी का एक शेर पढ़ते जाइए।