जो दोषी नहीं, उसे हम कहते हैं कि वह निर्दोष है। जो धनी नहीं, उसे हम कहते हैं कि वह निर्धन है। जो कपटी नहीं, उसे कहते हैं कि वह निष्कपट है। तो जो अपराधी नहीं, उसे हम क्या कहेंगे? निरपराधी या निरपराध? आज की चर्चा इसी पर है। रुचि हो तो पढ़ें।
जब मैंने कुछ समय पहले अपराधी शब्द के विपरीतार्थक शब्द पर एक फ़ेसबुक पोल किया तो दस में चार लोगों ने कहा – निरपराधी होगा। शेष छह लोगों ने कहा – निरपराध होगा।
सही क्या है, हम नीचे जानते हैं लेकिन सबसे पहले हम यह समझ लें कि विपरीतार्थक शब्द कैसे बनते हैं। यह जानने के बाद ही हम समझ पाएँगे कि निरपराध और निरपराधी में कौनसा शब्द सही है।
शब्दों के रूप और उनके निर्माण के आधार पर विपरीतार्थक शब्दों को हम तीन समूहों में बाँट सकते हैं।
1. पहले समूह में वे विपरीतार्थक शब्द हैं जिनका निर्माण बिल्कुल स्वतंत्र ढंग से हुआ है। ऐसे शब्द संज्ञा, क्रिया, विशेषण कुछ भी हो सकते हैं। कुछ उदाहरण देखें।
- संज्ञा – रात-दिन, पूर्व-पश्चिम, हार-जीत।
- विशेषण – अच्छा-बुरा, लंबा-चौड़ा, ठंडा-गर्म।
- क्रिया – चलना-रुकना, जीना-मरना, भींगना-सूखना।
आपने देखा, विपरीतार्थक शब्दों के इन जोड़ों में कहीं कोई मेल नहीं है। न लंबा चौड़ा से मिलता है, न रात दिन से। ये शब्द स्वतंत्र रूप से बने हैं।
2. दूसरा समूह उन शब्दों का है जिनमें दोनों विपरीतार्थक शब्द एक जैसे होते हैं। अंतर केवल यह होता है कि एक के शुरू में अ/अन्, वि, ग़ैर या ना जैसे उपसर्ग लगे होते हैं जिसके कारण एक का अर्थ दूसरे का उलट हो जाता है। इनके भी कुछ उदाहरण देखें।
- ‘अ’ या ‘अन्’ – सम-असम, न्याय-अन्याय, आदर-अनादर, उचित-अनुचित।
- ‘वि’ – पक्ष-विपक्ष, क्रय-विक्रय, तर्क-वितर्क।
- ‘ग़ैर’ – ज़िम्मेदार-ग़ैरज़िम्मेदार, हा़ज़िर-ग़ैरहाज़िर, वाजिब-ग़ैरवाजिब।
- ‘ना’ – जायज़-नाजायज़, काफ़ी-नाकाफ़ी, क़ाबिल-नाक़ाबिल।
आपने देखा कि इस तरह के विलोम शब्द केवल कुछ नकारात्मक अर्थ वाले उपसर्ग लगाकर बने हैं। इनको बनाना भी बहुत आसान है। किसी शब्द में ‘अ’, ‘वि’, ‘ग़ैर’ या ‘ना’ जैसा उपसर्ग लगा दिया और वह विपरीतार्थक शब्द बन गया। लेकिन हर शब्द के साथ ऐसा नहीं हो सकता। ‘धीरे-धीरे वह मुझसे दूर होता चला गया’, इसके बजाय ‘धीरे-धीरे वह मुझसे असमीप होता चला गया’ नहीं लिख सकते। कारण, असमीप जैसा कोई शब्द प्रचलन में नहीं है। हिंदी का थिसॉरस बनाने वालों ने ऐसा कमाल किया है लेकिन मुझे यह सही नहीं लगता। इन उपसर्गों से बने शब्दों का प्रचलन में होना ज़रूरी है।
3. अब आती है तीसरे समूह की बारी। यह दूसरे समूह के शब्दों से कुछ-कुछ मिलता है, कुछ-कुछ अलग है। इसमें भी कुछ ख़ास तरह के उपसर्ग लगते हैं मगर उपसर्ग के बाद वाले हिस्सों में ‘सम-असम’ की तरह की संपूर्ण समानता नहीं दिखती। समानता होती है लेकिन आंशिक जैसे एक ही माता-पिता के दो बच्चों में कुछ-कुछ समानता हो सकती है, लेकिन वे बिल्कुल एक जैसे नहीं होते।
आइए, इसे दोषी-निर्दोष, धनी-निर्धन और कपटी-निष्कपट जैसे उदाहरणों से समझते हैं जो मैंने इंट्रो में दिए थे।
दोष से बनता है दोषी लेकिन जो दोषी नहीं है, उसे क्या हम निर्दोषी कहते हैं? इसी तरह धन से बनता है धनी लेकिन जिसके पास धन नहीं है, उसे क्या हम निर्धनी कहते हैं? और जो कपटी नहीं है, उसे क्या हम निष्कपटी कहते हैं?
नहीं। जो दोषी नहीं, उसे हम निर्दोष कहते हैं, निर्दोषी नहीं। जो धनी नहीं, उसे हम निर्धन कहते हैं, निर्धनी नहीं। जो कपटी नहीं, उसे हम निष्कपट कहते हैं, निष्कपटी नहीं। ऐसा इसलिए कि निर्दोष, निर्धन या निष्कपट शब्द दोषी, धनी या कपटी से नहीं बने हैं, वे दोष, धन और कपट से बने हैं। दोष, धन और कपट से दोषी, धनी और कपटी भी बने हैं। लेकिन दोनों में अंतर यह है कि एक में शब्द के बाद ‘ई’ प्रत्यय लगा है, दूसरे में शब्द से पहले ‘निस्’ उपसर्ग लगा है। इसी कारण दोनों के रूप अलग हैं, अर्थ अलग हैं।
इसे यूँ समझें कि एक ही अभिनेता ने चेहरे पर मूँछ (उपसर्ग) लगा ली तो वह रावण बन गया और पीछे पूँछ (प्रत्यय) लगा ली तो हनुमान बन गया। अब वही अभिनेता चेहरे पर रावण की मूँछ (उपसर्ग) और पीछे हनुमान की पूँछ (प्रत्यय) एकसाथ लगा ले तो क्या वह रामायण के किसी पात्र की भूमिका निभा सकेगा?
निरपराधी को सही समझने वाले भी वैसी ही भूल कर रहे हैं। वे इस शब्द में उपसर्ग और प्रत्यय एकसाथ लगा रहे हैं। कैसे, यह नीचे समझते हैं।
पहले उस निस्/निर् उपसर्ग के बारे में जान लें जो निरपराध/निरपराधी में लगा है। यह उपसर्ग क्रियाओं और संज्ञाओं से पहले लगता है और आम तौर पर दूरी या अभाव (कमी) का अर्थ देता है। दोष से पहले लगकर यह निर्दोष बनाता है जिसका अर्थ हुआ जिसका/जिसमें कोई दोष नहीं हो। इसी तरह धन से पहले निर् लगने से बनता है निर्धन जिसका मतलब है वह जिसके पास धन नहीं हो। कपट से पहले निस् लगने से बनता है निष्कपट यानी जिसके भीतर कपट न हो।
अब हमारी आज की चर्चा के मूल सवाल पर आइए। यही निर् जब अपराध से पहले लगेगा (निर्+अपराध) तो क्या बनेगा?
निश्चित रूप से निरपराध। जिसने अपराध नहीं किया हो, वह है निरपराध।
व्याकरण की दृष्टि से निरपराध ही सही है, निरपराधी ग़लत है। हिंदी शब्दसागर भी निरपराध को ही सही बताता है। निरपराधी की एंट्री भी निरपराध की तरफ़ ही ले जाती है (देखें चित्र)।
आपमें से जो लोग आज तक निरपराधी को सही मानते आए हों या जो आज भी निरपराधी को सही मानते हों, वे पूछ सकते हैं कि निर् के बाद अपराध के जुड़ने से निरपराध बन सकता है तो निर् के बाद अपराधी के जुड़ने से निरपराधी भी तो बन सकता है।
सही प्रश्न है। लेकिन जवाब ना में है।
निरपराधी नहीं बन सकता। क्योंकि जैसा कि ऊपर कहा, निस्/निर् उपसर्ग केवल क्रिया और संज्ञा से पहले आता है। देखें नीचे चित्र में आप्टे के कोश का में निस् की प्रविष्टि।
अब अपराधी न तो क्रिया है, न ही संज्ञा है। यह शुद्ध विशेषण है। तो विशेषण से पहले निर् उपसर्ग कैसे लगेगा?
धनी और दोषी भी विशेषण हैं। इसीलिए तो धनी से पहले निर् लगाकर हम निर्धनी नहीं बना सकते। दोषी से पहले निर् लगाकर हम निर्दोषी नहीं बना सकते। निर् के बाद धन और दोष ही जुड़ते हैं जो संज्ञाएँ हैं। यहाँ भी निर् के बाद अपराध ही जुड़ेगा जो संज्ञा है।
एक बार फिर बता दूँ। आप इसे गाँठ बाँध लें। संस्कृत व्याकरण के नियमों के अनुसार निस्/निर् उपसर्ग केवल क्रियाओं और संज्ञाओं के साथ जुडता है, विशेषणों के साथ नहीं।
और यह केवल संस्कृत का मामला नहीं है। निस/निर् उपसर्ग की तरह उर्दू में भी एक उपसर्ग है – ‘बे’ जो उसी तरह काम करता है जैसे कि ‘निस्’ उपसर्ग। जैसे वफ़ादार का विलोम बेवफ़ादार नहीं होता, बेवफ़ा होता है। ईमानदार का उलटा बेईमानदार नहीं होता, बेईमान होता है। गुनहगार का विपरीत भी बेगुनहगार नहीं, बेगुनाह होता है। यहाँ भी वफ़ा, ईमान और गुनाह संज्ञाएँ हैं और उनके आगे ‘बे’ उपसर्ग लगाकर ये सारे शब्द बनाए गए हैं।
तो जैसे गुनहगार और बेगुनाह, वैसे ही अपराधी और निरपराध।
मेरी समझ से निरपराधी को सही समझने वाले लोग ‘निर्’ को ‘अ’ या ‘ग़ैर’ जैसा उपसर्ग मान लेते हैं जिसको किसी भी शब्द के पहले लगाकर उसका विपरीतार्थक शब्द बनाया जा सकता है। परंतु ‘निर्’ उपसर्ग ‘अ’ या ‘ग़ैर’ जैसा उपसर्ग नहीं है। यह एक विशेष उपसर्ग है जो केवल संज्ञा या क्रिया से पहले लगता है, विशेषण से पहले नहीं लगता।
ऊपर मैंने निस् और निर् दोनों उपसर्गों की बात की लेकिन मूलतः दोनों एक हैं। निर् दरअसल निस् का ही एक रूप है। स्वरों और घोष ध्वनियों से पहले निस् निर् हो जाता है तो कुछ और ध्वनियों से पहले वह निष्, निश् या विसर्ग में बदल जाता है। कब-कब वह अपना रूप बदलता है, उसके बारे में नीचे संक्षेप में लिखा है।
- स्वर या घोष वर्णों से पहले निर् – निर्जन, निर्भय, निर्विवाद, निराश्रय, निरुद्देश्य।
- क और प-फ से पहले निष् – निष्कपट, निष्पाप, निष्फल।
- च और छ से पहले निश् – निश्चल, निश्छल।
- श, ष और स से पहले अगले वर्ण या विसर्ग में परिवर्तन – निःसंदेह/निस्संदेह, निःशंक/निश्शंक।
जिन साथियों को घोष ध्वनियों के बारे में आइडिया न हो, उनको बता दूँ कि हिंदी वर्णमाला के जो शुरुआती पाँच वर्ग हैं (कवर्ग से पवर्ग तक), उस हर वर्ग की अंतिम तीन ध्वनियाँ घोष हैं। मसलन कवर्ग में ग, घ और ङ घोष ध्वनियाँ हैं। इसके अलावा सारे स्वर तथा य, र, ल, व और ह भी घोष ध्वनियाँ हैं (देखें चित्र)। यदि इन सारी ध्वनियों से पहले निस् आएगा तो वह निर् में बदल जाएगा।
निरपराध में भी निस् इसी कारण निर् में बदला। निस् के बाद अगला शब्द अपराध है जो ‘अ’ यानी स्वर से शुरू होता है। इसीलिए निस्+अपराध=निर्+अपराध=निरपराध।
अब जब यहाँ तक पढ-समझ लिया है तो बताएँ, रोगी का विलोम क्या होगा? निरोग या निरोगी? या कुछ और? इसपर हम अतीत में चर्चा कर चुके हैं। रुचि हो तो नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक/टैप करके पढ़ें।