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एकला चलो

उसने पूछा था – क्या मुझे सचमुच मरना ही पड़ेगा?

उन दिनों मैं संपादकीय पेज की चिट्ठियाँ छाँटा करता था जब मुझ वह चिट्ठी मिली। चिट्ठी लिखने वाली थी 22 साल की एक लड़की जिसके माता-पिता उसकी जबरन शादी किए दे रहे थे। वह इस शादी के ख़िलाफ़ थी क्योंकि वह शादी करके अपने बच्चे पैदा करने के बजाय अनाथ बच्चों की माँ बनना चाहती थी। उसने नवभारत टाइम्स के संपादक से मदद माँगते हुए अंत में लिखा था – आप ही बताइए, क्या इस लड़की को सचमुच मरना ही पड़ेगा क्योंकि आप इस पत्र को इतना महत्वपूर्ण नहीं समझते।

बाईस साल की दुबली-पतली शलवार-कमीज़ पहने वह किसी भी साधारण, पारंपरिक मिडल क्लास फ़ैमिली की लड़की जैसी ही थी। पहली नज़र में वह प्रभावित नहीं करती थी। बोलती भी थी बहुत धीरे-धीरे और बातचीत के दौरान ही कभी-कभी वह पलकें झुकाकर बिल्कुल ख़ामोश हो जाती थी जब उसके पास सामनेवाले के किसी तीखे सवाल का जवाब नहीं होता था। ऐसे में किसी का भी झल्लाना स्वाभाविक था और तब वह अपनी बड़ी-बड़ी पनियाली आँखों को उठाकर कहती, ‘इसीलिए तो मैं आपके पास आई हूँ कि आप कोई रास्ता दिखाएँ।’

तृप्ता नाम था उसका। तृप्ता थरेजा।

तृप्ता के पास कई सवालों के जवाब नहीं थे। लेकिन वह जवाब चाहती थी, वह रास्ता तलाश कर रही थी। यही उसे बाक़ी लाखों-करोड़ों लड़कियों से अलग करता था। उसके इसी अलग होने ने आज से 31 साल पहले मुझे उसके बारे में कुछ सोचने और करने को प्रेरित किया था। अपने 34 साल के पत्रकारिता जीवन का एकमात्र काम जिसके लिए मैं गर्व महूसस कर सकता हूँ।

तृप्ता से मेरा पहला परिचय एक चिट्ठी के माध्यम से हुआ जो उसने संपादक के नाम लिखी थी। तब मैं एडिट पेज पर ‘संपादक के नाम आनेवाले पत्र’ छाँटा करता था। चिट्ठी में सबसे ऊपर लिखा था – कृपया इसे पढ़ें ज़रूर चाहे (बाद में इसे) फाड़कर फेंक दीजिए।

मैं हर चिट्ठी को पूरा पढ़ता था। इसे भी पढ़ा, कई बार पढ़ा और हर बार पढ़ने के बाद हैरान होकर सोचता रहा कि क्या आज के ज़माने में भी ऐसे इंसान हैं!

आप भी नीचे पढ़ें उस चिट्ठी का मज़मून (वर्तनी की ग़लतियों के साथ)। तृप्ता की लिखावट में मूल चिट्ठी के दोनों पन्ने भी नीचे दिए गए हैं।

महोदय,

मैं मध्यमवर्गीय परिकार से सम्बंधित हूँ। मेरी आयु 22 वर्ष है, मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हूँ। मुझे शुरू से यानि जब में होश सँभाला है, अखबार पढ़ने का बेहद शौक रहा है। टीवी की भी बेहद शौकिन हूँ। एक भावुक लड़की होने के नाते मुझ पर इन चीजों का बेहद असर रहा है। उन्हीं चीजों की संगत में मैंने कुछ अपने जीवन मूल्य तैयार किये जैसे कि दहेज प्रथा का विरोध करना, सादा विवाह करना, एक समाज सुधारक बनना, अपना बच्चा पैदा न करके बल्कि अनाथालय से दो बच्चों को लेकर उनकी परवरिश करना आदि अपना परम कर्तव्य माना है। लेकिन मेरे माता पिता इन बातों को तर्कहीन मानते हैं। वे मुझे पागल करार देते हैं। इसी दौरान उन्होंने मेरी शादी 5 अक्तूबर 1992 में तय कर दी है। वे मेरी कोई बात सुनने को राजी नहीं हैं।

महोदय, मैं केवल इतना चाहती हूँ कि आप मेरी सहायता करें। आप मेरा यह पत्र छोटा करके हिन्दी के नवभारत टाइम्स में छापें और पाठकों में निवेदन करें कि जो कोई युवक (जो कि मन से अपाहिज न हो कर बेशक तन मे अपाहिज हो) मुझसे विवाह करना चाहता हो, अपना पता इस अखबार के द्वारा लिखे। यदि मैं इस प्रत्यन में सफल हो जाती हूँ तो ठीक वरना एक लड़की जिसने समाज की कुरीतियों को उखाड़ फेंकना चाहा था, उसे समाज ही खा गया। क्योंकि मैं किसी भी हालत में दहेज लेकर और उत्तम विवाह (बेफालतू के खर्च) नहीं करूँगी चाहे मुझे अपने जान की कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े।

जब मेरी सगाई हुई थी तब भी मैंने एक पत्र राजेंद्र माथुर जी को लिखा था। लेकिन उसका उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। अब तो उनका देहांत हो चुका है। भगवान उन्हें शान्ति प्रदान करें ।

आप किसी नारी उद्धार संस्था का पता देने की भी कृपा करें।

संपादक महोदय, आप इसे रद्दी की टोकरी के हवाले भी कर सकते हैं। लेकिन एक नारी जो सचमुच चाहती है कि देश का उद्धार हो, उसे खो देंगे। हाँ, आप जो अखबार भरते रहिए, देश आगे कब बढ़ेगा बढ़ेगा, देश को सुधारने के लिए दहेज प्रथा, गरीबी आदि की बुराइयाँ करते रहिये लेकिन जब कोई आगे आए तो उसे उन्हीं बुराइयों में ढकेल दिजिए और रोज एक या दो ऐसी खबरें सुनाते रहिए आज दहेज के कारण इतनी स्त्रियों को बलि चढ़ाया गया।

आप ही बताइए, क्या इस लड़की को सचमुच मरना ही पड़ेगा क्योंकि आप इस पत्र को इतना महत्वपूर्ण नहीं समझते। कोई बात नहीं, जब इंसान को एक दिन मरना ही है तो फिर किसी उद्देश्य के लिए उसका बलिदान हो तो मेरे लिए इतना ही काफी है।

तृप्ता

पत्र की मूल प्रति। धर का पता छुपा दिया गया है।

मैंने वह चिट्ठी तो नहीं छापी (मूल चिट्ठी यहाँ भी पढ सकते हैं) लेकिन यह तय कर लिया कि तृप्ता ने जिस भरोसे के साथ हमारे अख़बार से संपर्क किया था, उसका वह भरोसा नहीं टूटने दूँगा। मैंने उसे दफ़्तर बुलाया और उससे लंबी बात की।

तृप्ता से बात करके मैं उससे और अधिक प्रभावित हुआ। वह बच्चे पैदा नहीं करना चाहती थी, इसलिए नहीं कि वह अक्षम थी बल्कि जैसा कि वह कहती ती, ‘जब पहले से दुनिया में इतने बच्चे हैं तो क्यों और बच्चों को इस अभावग्रस्त दुनिया में लाया जाए? क्या हम इन बच्चों को अपना नहीं सकते? उन्हें माँ और पिता का प्यार नहीं दे सकते?’

तृप्ता पागल नहीं थी जैसा कि उसके माता-पिता कहते थे। बहुत भावुक लड़की थी वह। शायद इसीलिए ‘पालना’ जैसी संस्थाओं में जाकर बिना पैसे लिए काम करना चाहती थी। मणिरत्नम की मार्मिक फिल्म ‘अंजली’ की चर्चा होते ही उसकी आँखों में ममतामय आँसू उमड़ आते थे।

लेकिन तृप्ता और उसकी अंजलियों के बीच मुश्किलों की एक ऊँची दीवार थी। वह जो करना चाहती थी, वह कर नहीं पा रही थी क्योंकि उसके माता-पिता और भाई ने उसकी तमाम आपत्तियों को ठुकराते हुए उसकी सगाई कर दी थी और ढाई महीने बाद उसकी शादी थी। ऐसी ही असहाय स्थिति में उसने हमें वह चिट्ठी लिखी थी ताकि हम उसका पत्र अख़बार में छाप दें और उसकी सगाई टूट जाए और उसके बाद वह अपने विचारों से मेल खाते किसी युवक से शादी कर ले – एक ऐसे युवक से ‘जो मन से अपाहिज न हो बेशक तन से अपाहिज हो’।

मेरे कई वरिष्ठ साथियों ने मेरी सक्रियता देखकर मुझे इस अभियान से रोकने की कोशिश की कि लड़की-वड़की के चक्कर में मत पड़ो, फँस जाओगे। लेकिन मेरे एक जूनियर सहकर्मी विकास शुक्ला ने तृप्ता की लड़ाई में मेरा साथ देने की ठानी। वह वकालत किए हुआ था और क़ानून का जानकार था। इससे मेरी हिम्मत बढ़ी।

हम दोनों उसके भाई से मिले, उसके माता-पिता से मिले। पहले तो उन्होंने यही कहा कि तृप्ता की मर्ज़ी से ही शादी हो रही है लेकिन जब हमने उसकी चिट्ठी दिखाई तो वे डिफ़ेंसिव हो गए। उन्होंने कहा कि अगर ऐसा है तो हम वही करेंगे जो वह चाहेगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। तृप्ता स्कूल में पढ़ाती थी, वहाँ उसका जाना बंद करवा दिया गया। उसने एक बार फिर हमसे संपर्क साधा। हमने उसके पिता से बात की लेकिन उन्होंने फिर कहा कि तृप्ता तो शादी के लिए राज़ी हो गई है। वे उसको लेकर हमारे ऑफ़िस में भी आए और तृप्ता ने हमारे सामने शादी के लिए रज़ामंदी ज़ाहिर की।

हमने कहा, हम इससे अकेले में बात करेंगे। अकेले में बात करने पर उसने वही कहा जो सच था। बोली, ‘घर में ना बोलकर मैं एक पल नहीं रह सकती इसलिए हाँ करनी पड़ती है।’ मैंने पूछा, ‘तो क्या शादी कर लोगी?’ ‘उसका तो सवाल ही नहीं उठता। उससे पहले मैं जान दे दूँगी।’ 

यानी मामला बहुत गंभीर था।

तृप्ता के माता-पिता से कोई दो-तीन मुलाकातें हुई होंगी। आख़िरी मुलाक़ात 2 सितंबर को हुई यानी शादी की तारीख़ से क़रीब एक महीना पहले जब उसने कहा, ‘मैं शादी के लिए राज़ी हूँ।’ अंतिम शब्द कहते-कहते उसकी आँखों के किनारे भींग चुके थे। हमने विचार बदलने का कारण पूछा तो बोली, ‘हर इंसान की इच्छाएँ कहाँ पूरी होती हैं?’

‘कहीं ऐसा तो नहीं कि अभी तो हाँ कह रही हो लेकिन शादी से पहले या बाद में आत्महत्या कर लोगी?’

‘नहीं, उसका तो सवाल ही नहीं उठता,’ वह बोली। तृप्ता को तब तक विकास ने बता दिया था कि यदि उसने आत्मघाती कदम उठाया तो उसके घरवाले सींखचों के पीछे होंगे और निश्चित ही वह ऐसा नहीं चाहती थी।

तृप्ता से जब पहले बार मिला था तो उसमें ग़ज़ब का आत्मविश्वास था। वह घर-परिवार छोड़ने को तैयार थी और किसी ऐसी सामाजिक संस्था का पता चाहती थी जहाँ वह सुरक्षित रह सके और काम भी कर सके। हमारे पास ऐसा कोई पता नहीं था और उसके सामने कोई उपाय नहीं था सिवाय घरवालों की बात मान लेने के। ‘ना’ कहकर घर में रह नहीं सकती थी और घर छोड़कर इस जंगली शहर में अकेले रह नहीं सकती थी। कोई ऐसा मित्र नहीं, कोई रिश्तेदार नहीं जो सहारा बनता।

असहाय तृप्ता हमसे मदद माँगने आई थी लेकिन हम उसकी पूरी मदद नहीं कर पा रहे थे। उसकी चिट्ठी के वे शब्द मुझे दिन-रात कचोटते थे – आप अख़बार में बेशक दहेज़ की बुराइयाँ करते रहिए, दहेज़ की बलि चढ़नेवाली औरतों की ख़बरें छापते रहिए। लेकिन जब बुराइयों के विरुद्ध लड़ने के लिए कोई आगे आए तो उसे उन्हीं बुराइयों में धकेल दीजिए।

और एक दिन मैंने और विकास ने फ़ैसला किया – अब एक ही उपाय बचता है। सीधे तृप्ता के मंगेतर से बात की जाए। पिछली मुलाक़ात के बाद तृप्ता से संपर्क बंद था लेकिन शुरुआत में उसने उसका नंबर दिया था। हमने लड़के से फ़ोन पर बात की और उसे दफ़्तर बुलाया। वहाँ उसे वह चिट्ठी दिखाई और कहा, ‘अब फ़ैसला आपके हाथ में है।’ उसने शांति से सबकुछ सुना लेकिन कुछ बताया नहीं कि वह क्या करेगा। हमने भी सोचा कि अब इससे ज़्यादा हम क्या कर सकते हैं।

हमारी वह आख़िरी कोशिश काम कर गई। शादी की तारीख़ से हफ़्ता भर पहले मुझे तृप्ता की चिट्ठी मिली। उसने बताया कि अब उसकी जगह उसकी छोटी बहन की शादी हो रही है। साथ ही यह भी लिखा था –

‘आपने मुझे जो ज़मीन दी है, उसके लिए आपका धन्यवाद. पहले मैं लड़खड़ा रही थी लेकिन आज मुझमें दृढ़ निश्चय का संचार हो गया है। लगता है जैसे कुछ-कुछ मैं अपने सपनों के करीब हूँ। अब मैं किसी से बात करने में घबराती नहीं बल्कि पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी बात को समझाने की कोशिश करती हूँ। लेकिन इन बातों को समझाने में समय लगेगा। अगर वे नहीं भी समझते तो भी मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कुछ नहीं करेंगे।

… अब मैं सबसे पहले सरकारी नौकरी प्राप्त करूँगी ताकि यदि ये लोग मुझसे कुछ कहेंगे तो मैं अलग रहकर अपने लक्ष्यप्राप्ति में संघर्षरत होऊँगी। भविष्य में यदि फिर कभी मुश्किल आती है तो फिर मैं आपको सूचित करूँगी।’

तृप्ता का धन्यवाद पत्र।

उससे फिर कभी कोई बात नहीं हुई। न ही उसकी कोई चिट्ठी मिली। इससे यही लगा कि उसके सामने फिर कभी दुविधा की घड़ी नहीं आई होगी वरना वह सहायता के लिए अवश्य मुझे चिट्ठी लिखती क्योंकि मैं तो अगले 13 सालों तक उसी दफ़्तर में कार्यरत रहा।

लेकिन कभी-कभी सोचता भी हूँ, क्या तृप्ता अपने मक़सद में कामयाब हो पाई होगी? क्या वह अपने पैरों पर खड़ी हो पाई होगी? क्या वह बेसहारा अंजलियों की माँ बन पाई होगी?

आज क़रीब 30 सालों बाद उससे मिलकर यह सब जानने का मन कर रहा है। तृप्ता, तुम कहाँ हो? कैसी हो? क्या तुम्हें ऐसा मनचाहा साथी मिला जो मन से अपाहिज नहीं है? क्या तुम बेसहारा बच्चों में खुशियाँ बाँटने का अपना सपना पूरा कर पाई?

फ़ेसबुक पर तृप्ता थरेजा नाम से खोजा लेकिन वह नहीं मिली। वैसे भी यदि उसने शादी कर ली होगी तो उसका सरनेम बदल गया होगा। हाँ, एक जानकारी है मेरे पास। उसके पिता का नाम (जो मैं यहाँ बताना नहीं चाहूँगा) और जन्म की तारीख़ जो मैं बता सकता हूँ – 1 अक्टूबर यानी कल।

अगर आप किसी तृप्ता को जानते हों जिसका जन्मदिन 1 अक्टूबर को पड़ता हो तो कृपया मेरा यह लेख उस तक पहुँचा दें और कल के लिए जन्मदिन की शुभकामनाएँ भी।

जन्मदिन मुबारक़ हो तृप्ता!

यह लेख 11 जुलाई 2012 को नवभारत टाइम्स के एकला चलो ब्लॉग सेक्शन में प्रकाशित हुआ था। यह लेख उसका संशोधित और परिवर्धित रूप है।

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