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279. वध दुष्ट के लिए है तो अभिमन्यु-जटायु वध क्यों?

आम धारणा यह है कि जब किसी दुष्ट या आततायी की जान ली जाती है तो उसे वध कहते हैं और जब किसी निर्दोष को मारा जाता है तो उसे हत्या कहते हैं। इस प्रसंग में धर्मग्रंथों का हवाला दिया जाता है जिनमें महिषासुर वध या बकासुर वध आदि का प्रयोग मिलता है। लेकिन क्या यह धारणा सही है? आइए, देखते हैं कि महाभारत और रामायण में वध का किस अर्थ में प्रयोग हुआ है।

वध के अर्थ और प्रयोग के बारे में जब फ़ेसबुक पर एक पोल किया गया तो क़रीब तीन-चौथाई के भारी बहुमत ने कहा कि जब किसी दुष्ट चरित्र जैसे राक्षस आदि को मारा जाए, तभी वध का प्रयोग होता है। आइए, महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथों का परीक्षण करके देखते हैं, उनमें वध का किस अर्थ में प्रयोग हुआ है।

वध और हत्या – ये दोनों संस्कृत के शब्द हैं और पहली नज़र में दोनों का अर्थ है किसी की जान ले लेना। लेकिन क्या समानार्थी होने के बाद भी इन दोनों का समान स्थिति में प्रयोग किया जा सकता है या दोनों के अलग-अलग स्थिति में प्रयोग का कोई नियम है? आज हम इसी विषय की जाँच करेंगे।

वाल्मीकि रामायण में वध का कई स्थानों में प्रयोग है और अधिकतर मामलों में वह राक्षसों या उन लोगों के लिए ही प्रयुक्त हुआ है जो राम के विरोधी पक्ष के थे। लेकिन उसमें निर्दोष मनुष्यों और जीव-जंतुओं की हत्या के लिए भी वध शब्द का इस्तेमाल हुआ है। यही नहीं, सीता को बचाने की कोशिश करने वाले जटायु की हत्या को भी रामायण में वध लिखा गया है।

Jatayu vadh in Valmiki Ramayana
गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित वाल्मीकि रामायण में जटायु के मारे जाने को जटायु वध ही लिखा गया है।

इसी तरह महाभारत में एक पर्व का नाम ही अभिमन्युवधपर्व है। यदि वध का प्रयोग केवल दुष्टों के संहार के लिए मान्य होता तो अभिमन्यु के मारे जाने को वध क्यों लिखा जाता?

Abhimanyu Vadh Parv in Mahabharata
महाभारत की अनुक्रमणिका में अभिमन्युवध पर्व।

महाभारत में अभिमन्यु और रामायण में जटायु के लिए वध का प्रयोग निर्विवाद रूप से सिद्ध करता है कि वध का दुष्ट चरित्रों से कोई लेना-देना नहीं है।

रामायण की ही तरह महाभारत में भी वध शब्द का प्रयोग अच्छे-बुरे दोनों प्रसंगों में हुआ है। आइए, ऐसे कुछ श्लोक देखते हैं।

पांडवों के मित्र पांड्यनरेश सारंगध्वज के अंश्वत्थामा के हाथों मारे जाने का ज़िक्र इस श्लोक में है और उसमें वध शब्द का प्रयोग है।

वधः पाण्ड्यस्य च तथा अश्वत्थाम्ना महात्मना।
दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा॥

(आदिपर्व, द्वितीय अध्याय, श्लोक – 273)

अर्थ : उसके बाद महात्मा अश्वत्थामा के द्वारा राजा पाण्ड्य के वध की कथा है। फिर दण्डसेन और दण्ड के वध का प्रसंग है।

इसी तरह अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी के पुत्रों और परिजनों की हत्या को भी वध ही कहा गया है।

कृतवर्मणा च सहितः कृपेण च निजघ्निवान्।
यत्रामुच्यन्त ते पार्थाः पञ्च कृष्णबलाश्रयात्॥
सात्यकिश्च महेष्वासः शेषाश्च निधनं गताः।
पञ्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद् वधः
धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदितः।
द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता॥

(आदिपर्व, द्वितीय अध्याय, श्लोक – 301-303)

अर्थ : तत्पश्चात् अश्वत्थामा ने रात में निःशंक सोए हुए धृष्टद्युम्न आदि पांचालों तथा द्रौपदीपुत्रों को कृतवर्मा और कृपाचार्य की सहायता से परिजनों सहित मार डाला। भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति का आश्रय लेने से केवल पाँच पाण्डव और महान् धनुर्धर सात्यकि बच गए, शेष सभी वीर मारे गए। यह सब प्रसंग सौप्तिकपर्व में वर्णित है। वहीं यह भी कहा गया है कि धृष्टद्युम्न के सारथि ने जब पाण्डवों को यह सूचित किया कि द्रोणपुत्र ने सोए हुए पांचालों का ‘वध’ कर डाला है, तब द्रौपदी पुत्रशोक से पीड़ित तथा पिता और भाई की हत्या से व्यथित हो उठी।

इसी तरह ब्राह्मण की हत्या के लिए भी वध का प्रयोग किया गया है और यह शब्दप्रयोग ख़ुद अणीमाण्डव्य कर रहे हैं जो स्वयं एक ऋषि थे। अणीमाण्डव्य को चोर न होते हुए भी चोर समझकर सूली पर चढ़ा दिया गया था। परलोक में जाने पर वह धर्मराज से प्रश्न करते हुए कहते हैं –

इषीकया मया बाल्याद् विद्धा ह्येका शकुन्तिका।
तत् किल्बिषं स्मरे धर्म नान्यत् पापमहं स्मरे॥
तन्मे सहस्रमितं कस्मान्नेहाजयत् तपः।
गरीयान् ब्राह्मणवधः सर्वभूतवधाद् यतः॥

(आदिपर्व अध्याय 63, श्लोक – 94-95)

अर्थ : धर्मराज! पहले कभी मैंने बाल्यावस्था के कारण सींक से एक चिड़िये के बच्चे को छेद दिया था। वही एक पाप मुझे याद आ रहा है। अपने दूसरे किसी पाप का मुझे स्मरण नहीं है। मैंने अगणित सहस्रगुना तप किया है। फिर उस तप ने मेरे छोटे-से पाप को क्यों नहीं नष्ट कर दिया? ब्राह्मण का वध समस्त प्राणियों के वध से भी बड़ा है।

महाभारत के आदिपर्व में ही मुझे इतने दृष्टांत मिल गए कि इस बात में कोई संदेह नहीं रहा कि वध का दुष्टों के संहार से कोई संबंध नहीं है। संस्कृत और हिंदी के शब्दकोश भी इसी धारणा की पुष्टि करते हैं कि किसी की भी हत्या को वध कहा जा सकता है चाहे वह मानव की हो या पशु की (देखें चित्र)।

आप्टे के संस्कृत कोश में वध और हत्या का एक ही अर्थ दिया हुआ है – killing, murder, slaughter, slaying.

भारतीय क़ानून में भी Homicide के लिए मानव वध का प्रयोग होता है। अगर वध का मतलब दुष्टों की हत्या होता तो Homicide का अनुवाद मानव वध कभी नहीं किया गया होता क्योंकि तब तो हत्या का शिकार व्यक्ति ख़ुद-ब-ख़ुद दुष्ट और दोषी साबित हो जाता।

निष्कर्ष यह कि वध का दुष्टों की हत्या से कोई लेना-देना नहीं है। किसी भी हत्या को वध कहा जा सकता है चाहे वह युद्ध में हो या सड़क पर।

अब अंत में यह प्रश्न उठता है कि आख़िर यह धारणा कैसे फैली कि दुष्टों या खल चरित्रों की हत्या को ही वध कहा जाता है।

मेरे अनुसार इसका कारण यह है कि संस्कृत के धर्मग्रंथों, ख़ासकर महाभारत और रामायण ( जो राम और पांडवों की विजय गाथाएँ हैं), उनमें विरोधी पक्षों के योद्धाओं का ही अधिक संहार हुआ है और उन सबके लिए ग्रंथों में वध का ही प्रयोग किया गया – जयद्रथ वध, भीष्म वध, रावण वध, वालि वध आदि। सो लोगों को लगा होगा कि जब खलनायकों को मारा जाता है, तभी वध शब्द का प्रयोग होता है। किसी ने यह ध्यान नहीं दिया कि नायक पक्ष से जो कुछेक योद्धा मारे गए थे, उनके लिए भी इन ग्रंथों में वध शब्द का ही प्रयोग किया है जैसा कि हमने अभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्रों या जटायु आदि के मामले में देखा।

जाते-जाते एक ज़रूरी बात। फ़ेसबुक पोल में तीन-चौथाई से भी अधिक लोगों ने वध के ग़लत अर्थ का समर्थन किया। इससे पता चलता है कि किस तरह कोई भ्रांत धारणा इतने बड़े पैमाने पर समाज में व्याप्त हो जाती है। इसमें बड़ी भूमिका तो इंटरनेट पर उग आए उन स्वयंभू गुरुओं की है जो बिना किसी साक्ष्य या प्रमाण के किसी भी मुद्दे पर अपनी राय दे देते हैं। लेकिन उससे भी अधिक भूमिका उस सामान्य जन की है जो आँख मूँदकर उनकी बातों पर भरोसा कर लेता है। मेरी सलाह है – कोई कुछ भी कहे, पहले उससे पूछें, इस बात का सबूत क्या है? सबूत मिले, तभी मानें।

सच जानना हो तो पहले सवाल करना सीखें। संदेह करना सीखें। और जब तक कोई ठोस प्रमाण न मिले तब तक किसी की बात का विश्वास न करें। मेरा भी नहीं।

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