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21. जैसे दत्त का हुआ दत, वैसे ‘प्रायश्चित्त’ बना ‘प्रायश्चित’?

अगर मैं आपसे पूछूँ कि मुन्ना भाई का असली नाम क्या है तो आप कहेंगे संजय दत्त (डबल त) लेकिन मुँह से निकलेगा संजय दत (सिंगल त)। यही बात प्रायश्चित्त के मामले में हुई लगती है। संस्कृत में है प्रायश्चित्त लेकिन ज़्यादातर बोलते हैं प्रायश्चित। यह हमारे पोल में भी साबित हुआ। ऐसा क्यों हुआ, यह जानने के लिए पढ़ें।

जब मैंने प्रायश्चित और प्रायश्चित्त पर फ़ेसबुक पर पोल किया तो 70% ने प्रायश्चित को सही बताया, 30% ने प्रायश्चित्त को। इससे पहले एक और मंच पर पूछे गए इसी सवाल पर इससे भी ज़्यादा 90% ने प्रायश्चित को सही बताया था और केवल 10% ने प्रायश्चित्त को सही कहा था। सही क्या है?

सही है प्रायश्चित्त। सभी प्रामाणिक शब्दकोशों में ‘प्रायश्चित्त’ ही है, ‘प्रायश्चित’ नहीं और संस्कृत में इसका मूल शब्द भी ‘प्रायश्चित्तम्’ ही है (देखें चित्र)।

कुछ लोग कह सकते हैं कि संस्कृत में चाहे जो हो, और शब्दकोशों में भी चाहे जो हो, जब हिंदी के 70-90% लोग ‘प्रायश्चित’ को ही सही मान रहे हैं और वही लिख रहे हैं तो वही सही हुआ। इनके अनुसार ‘प्रायश्चित्त’ तत्सम (हूबहू संस्कृत रूप) है और ‘प्रायश्चित’ तद्भव (संस्कृत शब्द का परिवर्तित रूप)। वैसे ही जैसे विद्युत् और विद्युत, ग्राम और गाँव, दुग्ध और दूध, राजन् और राजा।

ख़ैर वह एक अलग बहस का विषय है कि ‘अज्ञान’ के चलते जो शब्द भाषा में चल रहे हैं, उनको भ्रष्ट मानकर सुधार का प्रयास किया जाए या भाषा का हिस्सा मानकर उन्हें अपना लिया जाए। लेकिन यह समझना दिलचस्प होगा कि आख़िर प्रायश्चित्त का प्रायश्चित कैसे हुआ होगा जो आज 70-90% लोग प्रायश्चित को ही सही बता रहे हैं। तभी अचानक मुझे सुनील दत्त और संजय दत्त का ख़्याल आया। दोनों के सरनेम में दत्त है जिसमें डबल त् या त्त है। लेकिन आप किसी से भी बात करके देख लें, सभी सुनील दत और संजय दत ही बोलते हैं। मैंने जाँच के लिए अभी एक यूट्यूब विडियो देखा और उसमें भी ऐंकर संजय दत ही बोल रही है। आप भी देखें वह विडियो –

संजय दत्त के बारे में विडियो जिसमें उनका सरनेम दत्त नहीं, दत बोला जा रहा है।

संजय दत्त बोलने में संजय दत हो गया लेकिन लिखने में दत्त ही रहा क्योंकि अंग्रेज़ी स्पेलिंग में -TT (DUTT) है। लेकिन प्रायश्चित्त बोलने और लिखने दोनों में (कई लोगों के लिए) प्रायश्चित हो गया।

वैसे भाषा-विषयक मामलों के अच्छे जानकार योगेंद्रनाथ मिश्र का इसके बारे में यह कहना है –

भाषा का एक सामान्य स्वभाव है कि वह कठिनता से सरलता की दिशा में आगे बढ़ती है।

इसी कारण

  1. बड़े शब्द छोटे हो जाते हैं।
  2. उच्चारण में कठिन शब्द सरल हो जाते हैं।
  3. संयुक्त व्यंजन वाले शब्द सरल व्यंजन में बदल जाते हैं।

परिवर्तन की ऐसी ही प्रक्रियाओं से होकर दुनिया की सारी भाषाएँ गुज़रती हैं। उसी क्रम में एक भाषा से दूसरी भाषा का जन्म होता है।

  • प्रायश्चित्त शब्द में दो संयुक्त व्यंजन (प्र तथा श्च) और एक द्वित्व (त्त) हैं।
  • आरंभ के दो संयुक्त व्यंजनों के उच्चारण में हवा की मात्रा ज्यादा लगती है। त्त तक पहुँचते-पहुँचते हवा का वेग कम पड़ जाता है। इसलिए त्त का उच्चारण आसानी से नहीं हो पाता। वह त के रूप में उच्चरित होता है।
  • यानी प्रायश्चित्त प्रायश्चित बन जाता है।

उनका पूरा पोस्ट पढ़ने के यहाँ क्लिक/टैप करें।

प्रायश्चित्त और प्रायश्चित में जिस हिस्से पर विवाद है – वह है चित्त और चित। इनसे मिलता-जुलता एक और शब्द है चित्। तीनों के अलग-अलग अर्थ हैं। अगर आपकी इन तीनों में अंतर जानने में रुचि हो तो आगे पढें परना इस पोस्ट को यहीं समाप्त समझें।

चित, चित् और चित्त में अंतर

चित्त का अर्थ होता है मन लेकिन अलग-अलग धर्म-दर्शनों में इसका अलग-अलग अर्थ है। हम यहाँ उसकी चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि वह हमारा विषय नहीं है और मेरा उसपर अधिकार भी नहीं है। लेकिन वेदांत में मन और चित्त को लेकर जो कहा गया है, वह मुझे रोचक लगा, इसलिए उसके बारे में अंत में बात करूँगा। अभी हम चित्त से मिलते-जुलते दो और शब्दों के बारे में विचार करते हैं जिनको लेकर अक्सर भ्रम हो जाता है। ये शब्द हैं – चित् और चित। उच्चारण में ये दोनों एक जैसे हैं लेकिन लिखने में अंतर है।

चित् संस्कृत का शब्द है और हिंदी में अलग से इस्तेमाल नहीं होता। इसका अर्थ है चेतना या ज्ञान। इसी से बना है सच्चिदानंद (सत्+चित्+आनंद), चिन्मय (चित्+मय)। चित् और चित्त में घालमेल न करें। एक का अर्थ है चेतना, दूसरे का मन। एक में हल् का चिह्न है, दूसरे में नहीं।

चित हिंदी का शब्द है और उसका अर्थ है पीठ के बल लेटा हुआ। इसका इस्तेमाल कुश्ती में होता है – किसी को चित कर देना। चित का उलटा है पट। सिक्का उछालने में भी इस शब्द का इस्तेमाल होता है – चित या पट! ध्यान दें, इसके अंत में (स्वरयुक्त) त है, चित्त (मन) के अंत में त्+त यानी त्त है और चित् (ज्ञान या चेतना) में हलंत है।

चित्त का अर्थ मैंने बताया – मन। लेकिन जैसा कि ऊपर लिखा, वेदांत में चित्त को अंतःकरण का एक अंग बताया गया है। अंतःकरण यानी वह भीतरी इंद्रिय जो संकल्प-विकल्प, निश्चय, स्मरण आदि करने का काम करती है तथा जो सुख-दुःखादि का अनुभव करती है। अंतःकरण के चार अंग हैं – (1) मन जिससे संकल्प-विकल्प होता है, (2) बुद्धि जिसका कार्य है निश्चय करना, (3) चित्त, जिससे बातों का स्मरण होता है, और (4) अहंकार, जिससे सृष्टि के पदार्थों से अपना संबंध दिख पड़ता है।

चित्त में स्मृति, मन में विचार और बुद्धि से निर्णय

ऊपर जो लिखा है, उसका जो अर्थ मैं समझ पाया, अगर वह सही है तो (1) चित्त हमारी पिछली यादों, अनुभवों और संस्कारों का पिटारा है, (2) मन सोच-विचार करता है कि यह करें या वह करें और (3) बुद्धि इस सोच-विचार और पिछले अनुभवों के आधार पर अंतिम फ़ैसला करती है।

मैंने अपनी इस समझ को चाय या कॉफ़ी पीने के एक उदाहरण से समझने की कोशिश की। मैंने कल्पना की कि यदि मैं किसी के घर गया और मुझसे पूछा गया कि आप चाय पीएँगे या कॉफ़ी तो मेरा ‘मन’ सोच-विचार करेगा। इस सोच-विचार में ‘चित्त’ चाय या कॉफ़ी पीने के मेरे नए-पुराने अनुभवों और यादों से ‘मन’ की मदद करेगा और फिर ‘चित्त’ के इन्हीं अनुभवों और ‘मन’ द्वारा किए गए सोच-विचार के आधार पर मेरी ‘बुद्धि’ फ़ैसला करेगी कि मुझे चाय पीनी चाहिए या कॉफ़ी।

जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि आज से सैकड़ों साल पहले भारत सहित दुनिया भर के दार्शनिक कितनी गहराई से मनुष्य की ज्ञात-अज्ञात क्षमताओं के बारे में सोचते थे और कल्पनाएँ किया करते थे। यह ज़रूरी नहीं कि उनकी सारी बातें आज सही साबित हों लेकिन इससे उनका योगदान कम नहीं होता। कोई भी व्यक्ति या समूह अपने समय में उपलब्ध जानकारी के आधार पर ही वर्तमान या भविष्य के बारे सोच-विचार या कल्पना कर सकता है और यह पूरी तरह संभव है कि उस दौर में जो बात या धारणा सही प्रतीत होती थी, वह बाद के समय के लिए सही साबित न हो। जैसे आज का विज्ञान मन या चित्त नामक किसी भीतरी सत्ता का अस्तित्व नहीं मानता और सबको बुद्धि का ही अंग माना जाता है। आपकी यादें उसी बुद्धि में स्थित न्यूरॉन में संचित हैं और आपके निर्णय और सोच-विचार का कर्मक्षेत्र भी वही बुद्धि है जो हमारी खोपड़ी में बंद है।

विज्ञान बदलता है, धर्म जड़ रहता है

लेकिन विज्ञान और धर्म में यही अंतर है कि विज्ञान और वैज्ञानिकों को यह मानने में कोई संकोच नहीं होता कि आज हम जो कह रहे हैं, कल नई जानकारियों के प्रकाश में उसमें सुधार करना पड़ सकता है लेकिन धर्म और धर्मांध इस बात पर अड़े रहते हैं कि आज से कुछ सौ या हज़ार साल पहले किसी व्यक्ति या किताब ने जो कह दिया था, वही ध्रुवसत्य है और उसमें कभी भी कोई परिवर्तन नहीं हो सकता।

मानव के विकास के बारे में एक किताब है – Sapiens – A Brief History of Humankind। लेखक हैं युवाल नोआ हरारी। संभव है, आपने पढ़ी हो। नहीं पढ़ी हो तो अवश्य पढ़िएगा। इसको पढ़ने के बाद कई मामलों में आपके सोचने का नज़रिया बदल सकता है। यह किताब हिंदी में भी उपलब्ध है लेकिन मुझे पता नहीं, उसका अनुवाद कैसा हुआ है।

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