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एकला चलो

कुछ बलात्कारी दूल्हे के लिबास में आते हैं

शादी का झूठा वादा करके जो पुरुष किसी स्त्री से संबंध बनाता है, उसकी मानसिकता और एक बलात्कारी की मानसिकता में कोई अंतर नहीं है। दोनों में ही स्त्त्री के शरीर से खेलने की मंशा होती है। फ़र्क़ बस इतना है कि एक में शारीरिक बल का इस्तेमाल करते हुए किसी के शरीर से खेला जाता है, तो दूसरे में शादी के मीठे वादे की सेज सजाकर वही काम किया जाता है। इसी कारण एक में लड़की पूरी ताक़त से विरोध करती है, दूसरे में ख़ुशी-ख़ुशी सहयोग करती है। लेकिन दोनों में समानता यही है कि अगर ताक़त का ज़ोर नहीं होता तो बलात्कार नहीं होता और शादी का भरोसा न होता तो सहवास भी नहीं होता।

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उसने कहा था, तुम तो बहुत गिरे हुए निकले…

चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ में लहना सिंह को आजीवन याद रहता है कि किशोरावस्था में वह जिस लड़की को ‘तेरी कुड़माई हो गई’ कहकर छेड़ा करता था, उसने सालों बाद मिलने पर क्या वचन माँगा था। लहना सिंह अपनी जान देकर भी उस वचन को निभाता है। मेरी किशोरावस्था में भी ‘उसने कहा था’ वाला क्षण आया था। लेकिन उसने मुझसे कोई वचन नहीं माँगा था बल्कि बहुत ही शिकायती लहजे में कहा था – तुम तो बहुत गिरे हुए निकले, नीरेंद्र। बरसों-बरस कैसे मैं इस कलंक को ढोता रहा और फिर कैसे उसी लड़की की बदौलत इस कलंक से मुक्त हुआ, इसकी रोचक दास्तान आज के ब्लॉग में है। रुचि हो तो पढ़ें।

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छोड़कर जाने वाली प्रेमिका को दिल से कहें – थैंक यू

अगर आपकी प्रेमिका आपको किसी दिन टाटा-बाइ-बाइ बोल दे तो आप क्या करेंगे? क्या आप उसकी जान ले लेंगे जैसा कुछ लोग करते हैं? या उसके साथ-साथ अपनी भी जान दे देंगे जैसा कुछ और लोग करते हैं? या उसकी अंतरंग तस्वीरें जो कभी उसने आपके लिए खींची या खिंचवाई थीं, उनको सोशल मीडिया पर शेयर करके अपना प्रतिशोध लेंगे? या फिर ऐसा कुछ भी न करते हुए शरीफ़ों की तरह उसपर बेवफ़ा का लेबल चिपकाकर ज़िंदगी भर उससे नफ़रत करते रहेंगे? 

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बिन बुलाया मेहमान जो जाने का दिन नहीं बताता

गौतम बुद्ध ने कहा था – दुख है। दुख का कारण है। दुख का कारण इच्छा है। तो क्या इसका मतलब यह है कि जब तक इच्छाएँ रहेंगी, तब तक दुख रहेगा? अगर हाँ तब तो दुख को समाप्त करने का या दुखों से मुक्ति का एक ही मार्ग दिखता है – इच्छाओं का नाश। मगर क्या इच्छाओं के नाश के बाद ज़िंदगी का कोई मक़सद बचता है? आख़िर इच्छाओं की पूर्ति ही तो हमें सुख भी देती है…

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ख़ुद को कैसे माफ़ करूँ?

हाल ही में एक किताब पढ़ी – Tuesdays with Morrie. मॉरी एक बुज़ुर्ग टीचर हैं जिन्हें ऐसी बीमारी हुई है कि उनकी मौत निश्चित है। ऐसे में उनका एक पुराना छात्र हर मंगलवार को उनके पास आता है और ज़िदगी के उनके अनुभवों के बारे में ज्ञान लेता है। हर हफ़्ते एक नया टॉपिक होता है। एक हफ़्ते मोरी उससे क्षमा के बारे में बात करते हैं और कहते हैं, मरने से पहले ख़ुद को माफ़ करो और फिर बाक़ी सबको।

लेकिन क्या ख़ुद को माफ़ करना इतना आसान है?

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